गोरखपुर : तवायफ की बनवायी कई सौ साल पुरानी मस्जिद खंडहर में तब्दील, नहीं होती नमाज नमाज होनी चाहिए: मुफ्ती अख्तर

गोरखपुर। मस्जिदें बाबरी से ये आई सदा, हर इलाके की मस्जिद को आबाद कर। अपने सज्दों की पहले हिफाजत तो कर खाली मस्जिद बनाना जरूरी नहीं।। शेर का जुमला नसीराबाद स्थित राज आई हास्पिटल के पीछे खंडहर में तब्दील कई सौ साल पुरानी मस्जिद की जुंबा से खुद बा खुद निकल रहा है। यह मस्जिद सिर्फ इसलिए वीरान है कि इसे किसी तवायफ ने बनवाया था। मुहल्ला नसीराबाद आबादी की कदीम मस्जिद आज भी वीरान और नमाज से महरूम है। तारीख के शफाअत में जहां का इंद्राज बतौर मस्जिद दर्ज है। वहां समाज के सबसे खराब पेशे से वाबस्ता खातून का नाम जुड़ जाने की वजह से उजाड़ है। इलाके के बुजुर्ग भी ये बताने से कासिर है कि आखिरी बार इसमें नमाज कब पढ़ी गयी। लेकिन मस्जिद में नमाज पढ़ी गयी उससे इंकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि अगर उस वक्त के उलेमा किराम की जानिब से इस की मुखालफत की गयी होती तो तारीख में इसका जिक्र आता। जबकि इस तरह की मुखालफत का कोई सबूत और गवाही मौजूद नहीं है। गौर की बात है कि जब तवायफ मस्जिद बनवा रही थी तब उस वक्त कोई आवाज नहीं उठी। अगर आवाज उठी होती तो तामीर मुकम्मल ही नहीं होता है। लेकिन मस्जिद के हालात बतो रहे हैं कि मस्जिद मुकम्मल हुई थी। सदियों से देखभाल ने होने के कारण भले ही वीरानी छायी हुई है। लेकिन मस्जिद की रूहानियत भी यहां पर एक अलग तरह का अहसास होता है। चूंकि उस जमाने में मस्जिद बनाने के लिए अच्छी खासी रकम अदा करनी पड़ी होगी। इसके अलावा मस्जिद के लिए काबे का रूख वगैरह भी तय करना पड़ा होगा। इस लिए इस बात को तकवियत मिलती है कि खातून के नाम पर जायदाद वगैरह रही होगी। जिस को फरोख्त करके यह मस्जिद तामीर की गयी। मस्जिद बनाने वालों को भी इस तकद्दुस मालूम होता है। मस्जिद के वीरानी में जरूर कोई ना कोई अहम राज छुपा हुआ है जो वक्त के आगोश में गुम हो चुका है। गुजश्तिा एक तवील अरसे के जिस तरह यह उजाड़ है, उस की एक अहम वजह मुहल्ले में मुस्लिम आबादी का ना होना भी है। वहीं इसके वारिसों का कोई अता पता नहीं है। सरकारी बंदोबस्त (मुहल्ले के नक्शे) जो सन् 1914 में हुआ उसमें ये मस्जिद आज भी दर्ज है। इससे अंदाजा होता है कि ये मस्जिद कितनी कदीम (कई सौ साल पुरानी) होगी। इसकी बनावट और इसमें इस्तेमाल में लायी गयी ईंट और चूना भी इसके कदीम होने पर गवाही देता है। इसके तामीर में वहीं चीजें लगी है जो उर्दू बाजार की जामा मस्जिद, बसंतपुरसराय में इस्तेमाल किया गया है। इससे एक अंदाजा लगाया जा सकता है कि मस्जिद दौ सौ साल से ज्यादा पुरानी है। तकरीबन बारह सौ स्कवायर फुट में मौजूद इस मस्जिद की जगह पर साल 2000 में कुछ शरारती तत्वों के जरिए कब्जा करने की कोशिश की गयी थी। लेकिन मुसलमानों की बेदारी व गुस्से के कारण यह मुमकिन नहीं हो सका। कुछ माह बाद मस्जिद के आगे खाली जमीन पर दुकानें बनवा दी गयी और इसकी देखरेख की जिम्मेदारी रिटायर्ड हाईडिल अफसर मोबिनुल हक को सौंप दी गयी। ताकि इस जगह की हिफाजत हो सके। फिलहाल यहां दुकान तो है ही उसमें कारोबार भी किया जा रहा है। लेकिन मस्जिद की सूरते हाल खस्ताहाल है। इसमंे पाकड़ का जखीम दरख्त उग आया है। जिससे मस्जिद की दीवारों को काफी नुकसान पहुंच रहा है। इस बाबत संवाददाता ने मोबिनुल हक से राफ्त कायम करने की कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली। मकामी लोगों ने बताया कि वो नसीराबाद से मुहल्ला से कहीं और शिफ्ट हो गए है। जिस की मालूमात उन्हें नहीं है। मुहल्ला नसीराबाद की आबादी तकरीबन पांच हजार है। इनमें तकरीबन एक हजार घर मुसलमानों के बताये जाते है। लेकिन जहां यह मस्जिद है इसके आसपास में मुसलमानों के सिर्फ एक-दो घर ही है। जबकि सामने एक मस्जिद और है। जिसे फारूकी साहब की मस्जिद के नाम से जाना जाता है। और इसमें मुसलमान नमाज अदा करते है। मुहल्लें के नजदीक बुजुर्गों की माने ते इस मस्जिद को एक तवायफ ने तामीर करवाया था, जिस की वजह से इसमें कभी नमाज नहीं पढ़ी गयी। ऐसे में सवाल ये पैदा होता है कि तवायफ के जरिए तामीर मस्जिद में नमाज हो सकती है या नहीं। उलेमा किराम को सबूत की रोशनी में इसकी रहनुमाई की जाने की जरूरत है। ताकि इस मस्जिद को फिर से आबाद किया जा सके। ये बात भी काबिले जिक्र है कि मुल्क की बहुत सी तारीखी मस्जिदें भारतीय पुरातत्व विभाग के कब्जे में है। उनमें नमाज की इजाजत नहीं तो नहीं है। अलबत्ता गैर शरई कामों करने की छूट मिली हुई है। इसके बरअक्स यहां मामला मुख्तलिफ है। नसीराबाद की खस्ताहाली को देखते हुए इस बात का कवीं अंदेशा है कि ये मस्जिद खुद ही कहीं टूट फूट का शिकार होकर जमींदोज ना हो जायें। मस्जिद के ताल्लुक से हाजी तहव्वर हुसैन ने बताया कि इस मस्जिद को अल्लाह के सिवा कोई और देखने वाला नहीं है। इन का कहना है कि इस का कोई वारिस भी नहीं बचा है। उन्होंने कहा कि अगर शरीयत इस मस्जिद में नमाज अदा करने की इजाजत नहीं देती हो इस जगह को लाइब्रेरी या इस्लामिक इंफार्मेशन संेटर बना देना चाहिए। मदरसा दारूल उलूम हुसैनिया दीवान बाजार के मुफ्ती अख्तर हुसैन ने बताया कि मस्जिद में नमाज जायज है। ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है कि तवायफ ने ही मस्जिद बनवायी। हो सकता है उसने ये तामीर आवाम के चंदे से की हो। लेकिन वह मस्जिद है नमाज होनी चाहिए।

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