गोरखपुर में 1967 से विवाद निपटा रही दारुल कजा



 मुफ्ती वलीउल्लाह सुनाते हैं फैसला

1984 में बिहार से आए काजी दारुल मुजाहिदुल ने दारुल कजा की दस्तावेजी प्रक्रिया प्रदान की

गोरखपुर।

आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड 15 जुलाई को देश में दारुल क़ज़ा की संख्या बढ़ाए जाने के प्रस्ताव पर चर्चा करेगा। उधर गोरखपुर में दारूल कजा 1967 से सेवाएं प्रदान कर रहा है। 84 वर्षीय शहर-ए-काजी मुफ्ती वलीउल्लाह शरीयत की रोशनी में दारूल कजा में फैसले सुनाते हैं। हालांकि अब दारूल कजा में तीन से चार मामले ही हर महीने पहुंचते हैं। मुफ्ती वलीउल्लाह को उम्मीद है कि मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड और शहर के मौजिज लोग आगे आए तो दारुल कजा में ज्यादा से ज्यादा विवादों को सुलह सफाई से निपटारा किया जा सकता है। उन्हें न केवल कुछ सहयोगी मिल जाएंगे बल्कि त्वरित न्याय की संकल्पना भी साकार होगी।

शहर-ए-काजी मुफ्ती वलीउल्लाह कहते हैं कि मुसलमानों के मसायल के सिलसिले में कोई बेंच नहीं है। मुसलमान को मुसलमान कहने के लिए महजबी वे काम जो हदीस और कुरान से हर मुसलमान के जिम्मे लगा है, उस से हट कर मुसलमान, मुसलमान नहीं रहेगा। इसलिए मुसलमानों को अपने मजहब पर रहने के लिए दारुल कजा सरीखी अदालतों का वजूद जरूरी है। दारुल कजा में कुरान एवं हदीश की रोशनी में विवादों को हल निकाला जाता है।

मदरसा अंजुमन इस्लामियां खुनीपुर में 1967 में मौलाना गयासुद्दीन, मौलाना फजीउर्रहमान, मुफ्ती मौलाना वलीउल्लाह समेत कई अन्य मौजिज लोगों ने मिल कर दारुल कजा कायम किया। इसके लिए नोटिस निकाली गई,‘शौहर रखती हुई बेवाओं के लिए दारुल कजा कायम किया जा रहा है।’1984 में बिहार से आए काजी दारूल कजा मौलाना मुजाहिदुल गोरखपुर आए तो उन्होंने बिहार के दारुल कजा में गए गोरखपुर के मामले का गोरखपुर के दारुल कजा में निपटारा कराया, और एक दस्तावेजी प्रक्रिया प्रदान की।

दारुल कजा के साथ दारुल इफ्ता भी

मुफ्ती वलीउल्लाह के मुताबिक दारुल कजा के अलावा वहीं दारुल इफ्ता भी संचालित होती है। दारूल इफ्ता में संपंत्ति के बंटवारे समेत अन्य मसलों पर फतवा दिया जाता है। उन्होंने बताया कि कभी एक तो कभी-कभी दोनों पक्ष दारुल क़ज़ा में अर्जी देते हैं। मामला दर्ज होने पर दारुल क़ज़ा दोनों पक्षों को सुनवाई के लिए बुलाती है। कभी रोज तो कभी दो-चार दिन बाद सुनवाई होती है। दारुल क़ज़ा फैसले मनवाने के लिए किसी को बाध्य नहीं कर सकता है लेकिन भारतीय कानून एवं शरीयत की रोशनी में नजीरों के आधार पर फैसले दिए जाते हैं। स्वीकार करते हैं कि कुछ मामले यह निर्णण के बाद अदालत में गए लेकिन निर्णय को जांचने के बाद अदालत ने दारुल कजा के फैसले को ही स्वीकार किया। दारुल क़ज़ा में खासतौर से निकाह और तलाक के मामलों की सुनवाई होती है। फिलहाल दारुल क़जा को अदालत की तरह कोई ज्यूडिशल पावर नहीं है।

और कोई शुल्क नहीं

दारूल कजा एवं दारुल इफ्ता में मामलों की सुनवाई करते हुए मुफ्ती वलीउल्लाह कोई शुल्क नहीं लेते हैं। इसके अलावा मदरसा एवं गोरखपुर विश्वविद्यालय में छात्रों को उर्दू पढ़ाने के बदले में भी कोई मानदेय नहीं लेते हैं।

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