किस्सा दुनिया की आखिरी डोली का
गोरखपुर। भारतीय संस्कृति विलक्षण है।
ऐसी संस्कृति दुनिया के किसी अन्य देश में देखने को नहीं मिलेगी। यह हमारा
दावा है। दावे की दलील भी है। यहां की मिट्टी में कई मजहब, भाषा, रीति
रिवाज, रहन सहन कदम-कदम पर बदलते हुये मिलेंगे। फिर भी संस्कृति विविधता
लिये एकता के सूत्र में जुड़ी है। सभी एक दूसरे की संस्कृति, रीति रिवाज
की इज्जत करते है। यह हमारी आन, बान और शान की मिसाल है। शहर से लेकर गांव
तक संस्कृति के विविध रंग नजर आयेंगे। जिस पर कभी हमें फख्र हुआ करता था।
शायद अब नहीं।
आधुनिकता की अंधी दौड़ ने हमारा नजरिया बदल दिया। शहरीकरण व औद्योगिकीकरण ने संस्कृति रीति रिवाज में दखल दी। जिससे कुछ रीति रिवाज लुप्त हो गये और कुछ आखिरी सांसे गिन रहे है। एक ऐसी प्रथा प्रचलन में थी डोली या पालकी। जिससे आप अच्छी तरह वाकिफ है। आप को जानकर ताज्जुब होगा। यह डोली या पालकी का प्रचलन खत्म हो गया। यह अब हमें किस्से, कहानियों, शायरों के शेर या दूल्हा दुल्हन के तसव्वुर में सुनने को मिलेगा।
आज हम आपके लिये लाये दुनिया की आखिरी डोली की कहानी तफसील से। प्रिय पाठकों मेरे एक मित्र है पत्रकार अशफाक अहमद। उन्होंने इस ओर मेरा रूझान दिलावाया। मुझे भी शौक पैदा हुआ कि दुनिया की आखिरी डोली का हिस्सा बना जायें। टापिक दिलचस्प था। सवाल पैदा हुआ कि डोली की तलाश का। मामला पेचीदा था। वजह, शहर छोडि़ए गांवों में डोली नजर आना दुर्लभ। लेकिन हार नहीं मानी। कई लोगों से राफ्ता कायम किया। कई गांवों के छाक छानी। 15 साल पहले ही इसका वजूद मिट चुका था। इसलिए तलाश में मुश्किल आ रही थी। आखिर हमारी मेहनत रंग लायी। एक गांव में डाली या पालकी मिलने की खबर लगी। फिर क्या था हाथों में कैमरा लिया, मोटरसाइकिल उठायी निकल पड़े मंजिल की ओर। गांव का नाम लक्ष्मीपुर (सरहरी) जो विकास खण्ड जंगल कौडि़य थाना पीपीगंज में पड़ता है। इस जगह तक पहुंचना भी आसान नहीं था। उबड़खाबड़ रास्तों के जरिये व एक सहयोगी कमलेश यादव की रहनुमाई में हम उस गांव में पहुंच गये। दिन शायद सितम्बर माह 2014 का प्रथम रविवार रहा होगा। काफी घरों में तलाश किया। डोली उठाने वाले तो मिले, डोली न मिली। खैर एक घर के बारे में लोगों ने बताया। वहां गये कुछ बच्चे व औरतें अपने काम में मश्गूल थे। छप्पर का मकान था। छप्पर के करीब गये तो देखा एक 75 वर्षीय बुजुर्ग आराम कर रहे थे। चेहरे पर घनी सफेद मंूछ। दरमियानी कद। हमनें आवाज लगायी। बुजुर्ग उठे। हमने परिचय दिया। मकसद बताया। उन्होंने ठेठ भोजपुरी में अपना नाम रामबेलास बताया। हमनें सवाल किया डोली है आपके यहां। डोली का नाम सुनते ही उनके चेहरे पर चमक आ गयी। कुछ देर वह अतीत में गुम हो गये। मुस्कुराते हुये बोले कि हां बाबू है। छप्पर के अंदर ले गये तो एक कोने में हमें डोली नजर आयी। तसल्ली मिली। खोज पूरी हो गयी। डोली निकालने के लिए कहां बोले मेहनत लगेगी। तख्त वगैरह निकालना पड़ेगा। छप्पर बेहद छोटा था। हमें यकीन नहीं हो रहा था कि इसमें से डोली निकाली जा सकेगी। लेकिन रामबेलास के छोटे-छोटे आधे दर्जन नाती पोतों ने हमारा काम आसान कर दिया। डोली का कड़ी मशक्कत के बाद बाहर निकाला। दुनिया की शायद इस आखिरी डोली को देखने की उत्सुकता हमारे अंदर भी मौजूद थी। दिल में इस बात का यकीन था कि डोली को इतने करीब से पहली व आखिरी बार देख रहे है। फिल्मों, किताबों, शायरी, गीतों में डोली या पालकी का जिक्र तो हमेशा से सुना लेकिन करीब से पहली बार देखा था। अनकरीब डोली निकलने वाली थी। उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। आखिरी वह घड़ी आ गयी। डोली हमारी नजरों के सामने थी। पिछले 15 सालों में डोली शायद पहली बार छप्पर से बाहर निकली। जालांें व गर्द व गुबार से पटी हुई डोली आकर्षक तो नहीं लग रही थी लेकिन दिलचस्प बेहिसाब थी। इधर हम बुजुर्ग से बातचीत करने में मश्गूल थे। उधर बच्चों ने डोली को साफ कर धुल डाला। डोली चमक उठी। बच्चों का कार्य प्रशंसनीय रहा। डोली का एक हत्था गायब था। वहीं बांस का बना एक हत्था महफूज था। डोली लोहे, लकड़ी व बासं की बनी हुई थी। बुजुर्ग रामबेलास ने बताया कि जब डोली का प्रचलन था। तब इसे बेहद आकर्षक तरीके से सजाया जाता था। बारात की शान हुआ करती थी। इस तरह की डोली करीब पच्चीस वर्ष पूर्व एक हजार रूपये में तैयार हो जाती थी। किसी जमाने में पांडेयहाता डोली का प्रमुख बाजार हुआ करता था।
बुजुर्ग ने बात का रूख मोड़ते हुये बताया कि घर की महिलायें डोली तोड़ देना चाहती थी। उनके लिय यह बेकार की वस्तु, जगह छेकने वाला सामान महज था। लेकिन रामबेलास की डोली से मोहब्बत के आगे सब नतमस्तक थे। यह डोली करीब पचास साल पहले रामबेलास के दादा ने बतौर तोहफा दिया था। डोली का काम इनके पूर्वज भी किये करते थे। इसलिए इन्होंने भी यह पेशा अपना लिया। यह प्रथा विलुप्त हो गयी तो बेरोजगारी की समस्या खड़ी हुई तो दूसरा पेशा अपना लिया।
रामबेलास ने बताया कि इस डोली से अनगिनत दुल्हनों को उनके ससुराल पहुंचाया। कितनों का गवना अपने मजबूत कंधों से करवाया। वह इस अतीत की याद डोली को अपने सामने टूटना गंवारा नहीं है। उन्होंने घर वालों से कह दिया कि जब मेरी मृत्यु हो जाये तब ही डोली तोड़े।
अतीत की कई यादों से हमकों रूबरू करवाया। ठेठ भोजपुरी में बताया कि बाबू आजादी के पचास साल तक डोली की खूब डिमांड रही। हालांकि डोली या पालकी का प्रचलन प्राचीन, मध्य व आधुनिक काल में मिलता है। प्राचीन व मध्य काल में यह शान की सवारी हुआ करती थी। डोली या पालकी का प्रचलन कई देशों में है लेकिन भारत में इसका अलग महत्व है। विवाह में इसकी बेहद अहम भूमिका थी। इसी डोली में दूल्हा अपनी सपनों की रानी दुल्हन का अपने घर लाता था। डोली का इस तरह का प्रचलन भारत के अलावा कहीं और नहीं मिलता।
रामबेलास ने बताया कि आधुनिक तरक्की से डोली खत्म हो गयी। साथ ही डोली से जुड़ी अन्य रस्में मसलन परछावन वगैरह का अस्तीत्व भी खत्म हो गया। बोले पहले जमाने में डोली या पालकी रईस लोगों शान की सवारी हुआ करती थी। लेकिन उससे ज्यादा अहम शादी के मौके पर डोली का रिवाज आम था। डोली का खूब सजाया जाता था। तरह के फूल पत्तियों के डिजायन बनाये जाते थे। बेहतरीन चादर व अन्य चीजों से इसे आकर्षण बनाया जाता था। डोली के अंदर गद्दा व तकिया रखी जाती थी ताकि दूल्हा व दूल्हन को बैठने में तकलीफ न हो। डोली ले जाने की प्रथा दूल्हा के तरफ से होती थी। डोली ले जाते समय महार लोग गीत गवनई भी करते थे।
रामबेलास को अभी यह गीत याद है
उठाओं रे डोली चलो रे कहार।
पियां मिलन को जाईये।।
इस दौरान एक रस्म अदा की जाती थी। जिसे परछावन के नाम से जाना जाता था। इस रस्म के दौरान दूल्हें की विदाई की जाती थी। दूल्हे को डोली में बैठाकर महिलाएं एकत्र रूप से गीत गवनई करती थी। गांव के देवी देवताओं के यहां माथा टेकाते हुये ससुराल रूख्सत करती थी। जब तक डोली ससुराल नहीं पहुंचती थी। तब तक दूल्हन वाले किसी को पानी तक नहीं पूछंते थे। जब डोली समेत बारात पहुंचती थी तब द्वार पूजा की रस्म अदा की जाती है। दूल्हा की आवभगत होती है। इसके बाद अन्य मेहमानों का सत्कार होता था। इसके बाद शादी की अन्य रस्म अदा की जाती है। फिर दूल्हा इसी डोली में दूल्हन को बैठाकर अपने घर लेकर आता है। घर पहुंचने पर महिलाएं एकत्रित होकर परम्परिक मांगलिक गीत गाती है। चवाल, बताश, चूरा, पैसा लूटाती है। इसके बाद दूल्हन डोली से कदम निकालती है। दूल्हन का पैर जमीन पर न पड़ने पाये इसके लिए एक खास तरह का सामान जिसे मौनी कहा जाता है। बिछाया जाता है। डोली से पहला कदम दूल्हन का मौनी पर पड़ता है। उसी के जरिये वह घर में कदम रखती थी। सोचिए उस दौर में डोली की कितनी अहमियत थी। डोली का एक झलक पाने के लिए लोग बेताब नजर आते थे।
रामबेलास ने बताया कि डोली तकरीबन हर गांव में पायी जाती थी। कहार जाति के लोग डोली का काम करते थे। जिन्हें महार के नाम से सम्बोधित किया जाता था। एक डोली उठाने में 6-8 आदमियों का सहयोग रहता था। इस समय यह काम करने वाले चंद लोग बचे है। जिनकी उम्र अधिक हो चुकी है। जिनमें बिरजू 50, रामलखन 85, शिवमूरत 90 साल के हो चुके है। उन्होंने बताया डोली उठाने के एवज में जो रकम मिलती थी। उसके बराबर हिस्से किये जाते थे। हिस्सा महारों में बांट दिया जाता था। एक हिस्सा डोली का भी रहता था। डोली ले जाने के एवज में उस जमाने में 15 से 100 रूपया तक लिया जाता था। दूरी ज्यादा होने पर रकम बढ़ा दी जाती थी। उन्होंने बताया कि जब लगन का सीजन होता था तो बकायदा बयाना मिलता था। उन्होंने बताया की घुघुनकोठा सहित अन्य क्षेत्रों तक अनगिनत गवना करा चुके है। उस जमाने में पन्द्रह रूपये की बड़ी वैल्यू थी। रूपयों के अलावा खाना, कपड़ा व अन्य सामान भी मिलता था। उन्होंने बताया कि जब वह डोली लेकर चलते थे तब सोटा (डंडा) लेकर चलते थे। जिसकी लंबाई डोली उठाने वाले महारों के कंधों तक हुआ करती थी। इन्हीं सोटों के सहारे वह दूरी तय किया करते थे। महारों को इन सोटों से आराम मिलता था। रात के समय महार मशालों की भी व्यवस्था रखते थे। डोली रोकने की हिम्मत किसी को नहीं थी। रामबेलास ने एक अतीत की बात बतायी कि एक बार डोली ले जाते समय मल्लाहों ने डोली रोक ली। मल्लाहों की खूब धुनाई की।
कमलेश यादव ने बताया कि डोली का पारम्परिक महत्व भी हैं पहले जमाने में राजा, महाराजा व पुरूषोत्तम की पदवी धारण करने वाले लोग डोली या पालकी का प्रयोग करते थे। चूंकि दूल्हन का पति उसके लिए राजा, महाराजा से कम नहीं था। इसलिए डोली का प्रयोग होता था। इसके अलावा मुगल दौर में भी इसका प्रचलन रहा। अंग्रेजों के जमाने में यह शान की एकमात्र सवारी मानी जाती थी। आजादी के बाद भी इसका महत्व रहा। करीब नब्बे के दशक के बाद इसकी मांग कर होनी शुरू हुई। और पन्द्रह सालों से इसको कोई नहीं पूछता। कहारों के सामने रोटी रोजी का संकट उत्पन्न हुआं। उन्होंने अन्य रोजगार के साधन अपना लिये। अब इन डोली की जगह आधुनिक मोटरवाहनों ने ले लिया। लेकिन उस दौर का अतीत हमें एक शानदार उपहार डोली पर रस्क करने को मजबूर करता है। खैर यह बात सौ फीसदी सत्य है कि यह डोली शायन दुनिया की आखिरी डोली है। जिसमें दूल्हा अपनी दूल्हन को अपने घर लेकर आता था। दूल्हा-दूल्हन की आरजू रहती थी कि
चंदा की डोली और सितारों की बारात होगी।
तेरे दरवाजें पर इक दिन मेरी बारात होगी।
गूंजेगी शहनाई उस दिन।
अपनी जिदंगी की नयी शुरूआत होगी।
आधुनिकता की अंधी दौड़ ने हमारा नजरिया बदल दिया। शहरीकरण व औद्योगिकीकरण ने संस्कृति रीति रिवाज में दखल दी। जिससे कुछ रीति रिवाज लुप्त हो गये और कुछ आखिरी सांसे गिन रहे है। एक ऐसी प्रथा प्रचलन में थी डोली या पालकी। जिससे आप अच्छी तरह वाकिफ है। आप को जानकर ताज्जुब होगा। यह डोली या पालकी का प्रचलन खत्म हो गया। यह अब हमें किस्से, कहानियों, शायरों के शेर या दूल्हा दुल्हन के तसव्वुर में सुनने को मिलेगा।
आज हम आपके लिये लाये दुनिया की आखिरी डोली की कहानी तफसील से। प्रिय पाठकों मेरे एक मित्र है पत्रकार अशफाक अहमद। उन्होंने इस ओर मेरा रूझान दिलावाया। मुझे भी शौक पैदा हुआ कि दुनिया की आखिरी डोली का हिस्सा बना जायें। टापिक दिलचस्प था। सवाल पैदा हुआ कि डोली की तलाश का। मामला पेचीदा था। वजह, शहर छोडि़ए गांवों में डोली नजर आना दुर्लभ। लेकिन हार नहीं मानी। कई लोगों से राफ्ता कायम किया। कई गांवों के छाक छानी। 15 साल पहले ही इसका वजूद मिट चुका था। इसलिए तलाश में मुश्किल आ रही थी। आखिर हमारी मेहनत रंग लायी। एक गांव में डाली या पालकी मिलने की खबर लगी। फिर क्या था हाथों में कैमरा लिया, मोटरसाइकिल उठायी निकल पड़े मंजिल की ओर। गांव का नाम लक्ष्मीपुर (सरहरी) जो विकास खण्ड जंगल कौडि़य थाना पीपीगंज में पड़ता है। इस जगह तक पहुंचना भी आसान नहीं था। उबड़खाबड़ रास्तों के जरिये व एक सहयोगी कमलेश यादव की रहनुमाई में हम उस गांव में पहुंच गये। दिन शायद सितम्बर माह 2014 का प्रथम रविवार रहा होगा। काफी घरों में तलाश किया। डोली उठाने वाले तो मिले, डोली न मिली। खैर एक घर के बारे में लोगों ने बताया। वहां गये कुछ बच्चे व औरतें अपने काम में मश्गूल थे। छप्पर का मकान था। छप्पर के करीब गये तो देखा एक 75 वर्षीय बुजुर्ग आराम कर रहे थे। चेहरे पर घनी सफेद मंूछ। दरमियानी कद। हमनें आवाज लगायी। बुजुर्ग उठे। हमने परिचय दिया। मकसद बताया। उन्होंने ठेठ भोजपुरी में अपना नाम रामबेलास बताया। हमनें सवाल किया डोली है आपके यहां। डोली का नाम सुनते ही उनके चेहरे पर चमक आ गयी। कुछ देर वह अतीत में गुम हो गये। मुस्कुराते हुये बोले कि हां बाबू है। छप्पर के अंदर ले गये तो एक कोने में हमें डोली नजर आयी। तसल्ली मिली। खोज पूरी हो गयी। डोली निकालने के लिए कहां बोले मेहनत लगेगी। तख्त वगैरह निकालना पड़ेगा। छप्पर बेहद छोटा था। हमें यकीन नहीं हो रहा था कि इसमें से डोली निकाली जा सकेगी। लेकिन रामबेलास के छोटे-छोटे आधे दर्जन नाती पोतों ने हमारा काम आसान कर दिया। डोली का कड़ी मशक्कत के बाद बाहर निकाला। दुनिया की शायद इस आखिरी डोली को देखने की उत्सुकता हमारे अंदर भी मौजूद थी। दिल में इस बात का यकीन था कि डोली को इतने करीब से पहली व आखिरी बार देख रहे है। फिल्मों, किताबों, शायरी, गीतों में डोली या पालकी का जिक्र तो हमेशा से सुना लेकिन करीब से पहली बार देखा था। अनकरीब डोली निकलने वाली थी। उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। आखिरी वह घड़ी आ गयी। डोली हमारी नजरों के सामने थी। पिछले 15 सालों में डोली शायद पहली बार छप्पर से बाहर निकली। जालांें व गर्द व गुबार से पटी हुई डोली आकर्षक तो नहीं लग रही थी लेकिन दिलचस्प बेहिसाब थी। इधर हम बुजुर्ग से बातचीत करने में मश्गूल थे। उधर बच्चों ने डोली को साफ कर धुल डाला। डोली चमक उठी। बच्चों का कार्य प्रशंसनीय रहा। डोली का एक हत्था गायब था। वहीं बांस का बना एक हत्था महफूज था। डोली लोहे, लकड़ी व बासं की बनी हुई थी। बुजुर्ग रामबेलास ने बताया कि जब डोली का प्रचलन था। तब इसे बेहद आकर्षक तरीके से सजाया जाता था। बारात की शान हुआ करती थी। इस तरह की डोली करीब पच्चीस वर्ष पूर्व एक हजार रूपये में तैयार हो जाती थी। किसी जमाने में पांडेयहाता डोली का प्रमुख बाजार हुआ करता था।
बुजुर्ग ने बात का रूख मोड़ते हुये बताया कि घर की महिलायें डोली तोड़ देना चाहती थी। उनके लिय यह बेकार की वस्तु, जगह छेकने वाला सामान महज था। लेकिन रामबेलास की डोली से मोहब्बत के आगे सब नतमस्तक थे। यह डोली करीब पचास साल पहले रामबेलास के दादा ने बतौर तोहफा दिया था। डोली का काम इनके पूर्वज भी किये करते थे। इसलिए इन्होंने भी यह पेशा अपना लिया। यह प्रथा विलुप्त हो गयी तो बेरोजगारी की समस्या खड़ी हुई तो दूसरा पेशा अपना लिया।
रामबेलास ने बताया कि इस डोली से अनगिनत दुल्हनों को उनके ससुराल पहुंचाया। कितनों का गवना अपने मजबूत कंधों से करवाया। वह इस अतीत की याद डोली को अपने सामने टूटना गंवारा नहीं है। उन्होंने घर वालों से कह दिया कि जब मेरी मृत्यु हो जाये तब ही डोली तोड़े।
अतीत की कई यादों से हमकों रूबरू करवाया। ठेठ भोजपुरी में बताया कि बाबू आजादी के पचास साल तक डोली की खूब डिमांड रही। हालांकि डोली या पालकी का प्रचलन प्राचीन, मध्य व आधुनिक काल में मिलता है। प्राचीन व मध्य काल में यह शान की सवारी हुआ करती थी। डोली या पालकी का प्रचलन कई देशों में है लेकिन भारत में इसका अलग महत्व है। विवाह में इसकी बेहद अहम भूमिका थी। इसी डोली में दूल्हा अपनी सपनों की रानी दुल्हन का अपने घर लाता था। डोली का इस तरह का प्रचलन भारत के अलावा कहीं और नहीं मिलता।
रामबेलास ने बताया कि आधुनिक तरक्की से डोली खत्म हो गयी। साथ ही डोली से जुड़ी अन्य रस्में मसलन परछावन वगैरह का अस्तीत्व भी खत्म हो गया। बोले पहले जमाने में डोली या पालकी रईस लोगों शान की सवारी हुआ करती थी। लेकिन उससे ज्यादा अहम शादी के मौके पर डोली का रिवाज आम था। डोली का खूब सजाया जाता था। तरह के फूल पत्तियों के डिजायन बनाये जाते थे। बेहतरीन चादर व अन्य चीजों से इसे आकर्षण बनाया जाता था। डोली के अंदर गद्दा व तकिया रखी जाती थी ताकि दूल्हा व दूल्हन को बैठने में तकलीफ न हो। डोली ले जाने की प्रथा दूल्हा के तरफ से होती थी। डोली ले जाते समय महार लोग गीत गवनई भी करते थे।
रामबेलास को अभी यह गीत याद है
उठाओं रे डोली चलो रे कहार।
पियां मिलन को जाईये।।
इस दौरान एक रस्म अदा की जाती थी। जिसे परछावन के नाम से जाना जाता था। इस रस्म के दौरान दूल्हें की विदाई की जाती थी। दूल्हे को डोली में बैठाकर महिलाएं एकत्र रूप से गीत गवनई करती थी। गांव के देवी देवताओं के यहां माथा टेकाते हुये ससुराल रूख्सत करती थी। जब तक डोली ससुराल नहीं पहुंचती थी। तब तक दूल्हन वाले किसी को पानी तक नहीं पूछंते थे। जब डोली समेत बारात पहुंचती थी तब द्वार पूजा की रस्म अदा की जाती है। दूल्हा की आवभगत होती है। इसके बाद अन्य मेहमानों का सत्कार होता था। इसके बाद शादी की अन्य रस्म अदा की जाती है। फिर दूल्हा इसी डोली में दूल्हन को बैठाकर अपने घर लेकर आता है। घर पहुंचने पर महिलाएं एकत्रित होकर परम्परिक मांगलिक गीत गाती है। चवाल, बताश, चूरा, पैसा लूटाती है। इसके बाद दूल्हन डोली से कदम निकालती है। दूल्हन का पैर जमीन पर न पड़ने पाये इसके लिए एक खास तरह का सामान जिसे मौनी कहा जाता है। बिछाया जाता है। डोली से पहला कदम दूल्हन का मौनी पर पड़ता है। उसी के जरिये वह घर में कदम रखती थी। सोचिए उस दौर में डोली की कितनी अहमियत थी। डोली का एक झलक पाने के लिए लोग बेताब नजर आते थे।
रामबेलास ने बताया कि डोली तकरीबन हर गांव में पायी जाती थी। कहार जाति के लोग डोली का काम करते थे। जिन्हें महार के नाम से सम्बोधित किया जाता था। एक डोली उठाने में 6-8 आदमियों का सहयोग रहता था। इस समय यह काम करने वाले चंद लोग बचे है। जिनकी उम्र अधिक हो चुकी है। जिनमें बिरजू 50, रामलखन 85, शिवमूरत 90 साल के हो चुके है। उन्होंने बताया डोली उठाने के एवज में जो रकम मिलती थी। उसके बराबर हिस्से किये जाते थे। हिस्सा महारों में बांट दिया जाता था। एक हिस्सा डोली का भी रहता था। डोली ले जाने के एवज में उस जमाने में 15 से 100 रूपया तक लिया जाता था। दूरी ज्यादा होने पर रकम बढ़ा दी जाती थी। उन्होंने बताया कि जब लगन का सीजन होता था तो बकायदा बयाना मिलता था। उन्होंने बताया की घुघुनकोठा सहित अन्य क्षेत्रों तक अनगिनत गवना करा चुके है। उस जमाने में पन्द्रह रूपये की बड़ी वैल्यू थी। रूपयों के अलावा खाना, कपड़ा व अन्य सामान भी मिलता था। उन्होंने बताया कि जब वह डोली लेकर चलते थे तब सोटा (डंडा) लेकर चलते थे। जिसकी लंबाई डोली उठाने वाले महारों के कंधों तक हुआ करती थी। इन्हीं सोटों के सहारे वह दूरी तय किया करते थे। महारों को इन सोटों से आराम मिलता था। रात के समय महार मशालों की भी व्यवस्था रखते थे। डोली रोकने की हिम्मत किसी को नहीं थी। रामबेलास ने एक अतीत की बात बतायी कि एक बार डोली ले जाते समय मल्लाहों ने डोली रोक ली। मल्लाहों की खूब धुनाई की।
कमलेश यादव ने बताया कि डोली का पारम्परिक महत्व भी हैं पहले जमाने में राजा, महाराजा व पुरूषोत्तम की पदवी धारण करने वाले लोग डोली या पालकी का प्रयोग करते थे। चूंकि दूल्हन का पति उसके लिए राजा, महाराजा से कम नहीं था। इसलिए डोली का प्रयोग होता था। इसके अलावा मुगल दौर में भी इसका प्रचलन रहा। अंग्रेजों के जमाने में यह शान की एकमात्र सवारी मानी जाती थी। आजादी के बाद भी इसका महत्व रहा। करीब नब्बे के दशक के बाद इसकी मांग कर होनी शुरू हुई। और पन्द्रह सालों से इसको कोई नहीं पूछता। कहारों के सामने रोटी रोजी का संकट उत्पन्न हुआं। उन्होंने अन्य रोजगार के साधन अपना लिये। अब इन डोली की जगह आधुनिक मोटरवाहनों ने ले लिया। लेकिन उस दौर का अतीत हमें एक शानदार उपहार डोली पर रस्क करने को मजबूर करता है। खैर यह बात सौ फीसदी सत्य है कि यह डोली शायन दुनिया की आखिरी डोली है। जिसमें दूल्हा अपनी दूल्हन को अपने घर लेकर आता था। दूल्हा-दूल्हन की आरजू रहती थी कि
चंदा की डोली और सितारों की बारात होगी।
तेरे दरवाजें पर इक दिन मेरी बारात होगी।
गूंजेगी शहनाई उस दिन।
अपनी जिदंगी की नयी शुरूआत होगी।
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