जब सरदार अली खां की रिहाईशगाह आखिरी आरामगाह बनी

गोरखपुर। 1857 की जंगे आजादी की पहली लड़ाई हम भुल नहीं सकते। कहतें है शहीद मरता नहीं है। यह सभी धर्मों का अकीदा है। हमारा भी यहीं अकीदा है। लेकिन शहीद का भुला देना या सम्मान न देने की सभी धर्मों में मजम्मत होती है। देश के लिए जान कुर्बान करने वालों के साथ यह अन्याय कई सौ सालों से चला आ रहा हैं। ऐसी ही एक शख्सियत हैं सरदार अली खां। जिन्हें हर खासों आम जानता जरूर है कि वह जंगे आजादी के योद्धा थे। लेकिन वह वाकिया आवाम के जेहन में नहीं है। जिसकी वजह से उन्हें और अहले खानदान को शहादत देनी पड़ी। पहली जंगे आजादी के दीवाने की मजार आज भी मौजूद है। घरवालें भी है। मजार पर जाकर और घरवालों से बात करके देखिए आपका दिल पिघल जायेगा। जिससे सम्मान का यह घराना हकदार था। उसी मयस्सर नहीं हुआ। नखास स्थित कोतवाली से हर कोई वाकिफ है। यह कभी मुअज्जम अली खां की हवेली हुआ करती थी। आज उनके खानदान वालों की आखिरी आरामगाह बन चुकी है। सरदार अली खां ,उनके भाई रमजान अली खां व उनके परिवार वालों की रूहें वहां पर मौजूद है। कभी आईए तो खुद बा खुद अहसास हो जायेगा। शहीद का दर्जा भी न मिल सका। यह जो मजार आप देख रहे हैं। यह अंग्रेजों ने नहीं बनवायी। बल्कि देशभक्त जनता ने बनवायी। अंग्रेज तो उन्हें बागी मान रहे  थें। सरकारी दस्तावेजों में यही दर्ज है।
सरदार अली खां की अमानतदारी मशहूर थी। लखनऊ की बेगम हजरत महल ने अपनी दो बेटियों को अंगे्रजों से बचाने के लिए सरदार अली खां के पास गोरखपुर भेजा था। उनकी एक बेटी की मौत तपेदिक से हो गई थी। उनकी मजार कृष्णा टाॅकीज के पास बनी है जो गुमनामी में खो गई है। जबकि दूसरी बेटी ने राप्ती में छलांग लगा दी थी। यह कोई कम फख्र की बात नहीं थी। बेगम हजरत महल अवध की मल्लिका थी। पहली जंगे आजादी की अहम किरदार थी। उन्हें पूरा भरोसा था कि सरदार अली खां उनकी बेटियों की अच्छी तरह हिफाजत कर सकंेगे। जो उन्होंने की भी।
खैर! मुअज्जम अली खां के घर में किसे पता था कि यह बच्चा बड़ा होकर जंगे आजादी का सिपाही बनेगा। अच्छी तालीम व तर्बियत मिली। गोरखपुर के रहने वाले सरदार अली खान पुत्र मुअज्जम अली खान अवध कोर्ट के रिसालादार यानी सैनिक कमांडर और बड़े जमींदार थे। जब 1857 को जंगे आजादी की ज्वाला भड़की तो गोरखपुर ने भी लब्बैक कहा। मोहम्मद हसन व श्रीनेत राजाओं के नेतृत्व में सरदार अली खां ने जंग लड़ी। सरदार अली खां के नेतृत्व में नाजिम मोहम्मद हसन का साथ देने वाले अधिकांश मुसलमान मुहल्ला शाहपुर, बशारतपुर, मुगलहा और चरगांवा के थे। सभी मध्यम वर्गीय कामगार परन्तु देशप्रेम  से ओत प्रोत थे। कुछ गोली का शिकार हुये। अधिंकाश बचे हुये सपरिवार पकड़ कर फीजी भेज दिए गए। शाहपुर व बशारतपुर में ईसाईयों को बसा दिया गया। शहीद सरदार अली खां, उनके भाई रमजान अली खां व खानदान वालों को फांसी पर चढ़ा दिया गया। हवेली को कोतवाती में तब्दील कर दिया गया। सरदार अली की बेटी मासूमा बीबी अपने भाई गौहर अली खान भतीजे कासिम अली खान को लेकर अंग्रेजों की नजर बचा कर भाग निकली थी। उसी से परिवार आगे बढ़ा और सालों तक गुमनामी में काटे। अब भी कट रहे है।
इतिहासकारों ने कम से कम शहीद सरदार अली खां को तो अपने इतिहास लेखन में अपने अवराक की जीनत बनाया। नहीं तो इनका भी यही हस्र होता जैसा मौलाना आजाद सुभानी व सरफराज अली का हुआ। इन दोनों शख्सियत को तो कोई जानता ही नहीं है। लेकिन सरदार अली से सब वाकिफ है। सरदार अली की शहादत का यह किस्सा पीएन चोपड़ा, विजयी बी. सिन्हा और पीसी राय ने संयुक्त रूप से लिखी अपनी पुस्तक हूज इज हू में दर्ज किया है। यह पुस्तक भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने 15 अगस्त 1973 को प्रकाशित की थी।
गोरखपुर कोतवाली परिसर में आज भी सरदार अली खां की मजार है। इस मजार के पास कई मजारें है जो उनके परिजनों की है। 1857 की क्रंाति के बाद गोरखपुर और आस-पास की छोटी बड़ी 87 रियासतों, ताल्लुकदारों और जमींदारों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी थी। इस जंग में गोरखपुर के सरदार अली खां ने मोहम्मद हसन के कयादत में जंग लड़ी। सरदार अली खां और उनके भाई रमजान अली खां ने भी महत्वपूर्ण भूमिका  अदा की थी। यह उन्हीं का प्रयास था कि 10 जून 1857 को गोरखपुर और आस-पास के क्षेत्र अंग्रेजों की दास्ता से मुक्त करा लिया गया था। यह आजादी करीब 6 माह तक कायम रही, बाद में अंग्रेजों ने अपनी कुटिल चाल से 16 जनवरी 1858 को गोरखपुर को अपने कब्जे में ले लिया।
न तो सरकारी महकमें ने और ना ही आवाम ने उनको वह सम्मान दिया जो उन्हें मिलता है। सिवाय हर साल की 15 अप्रैल को चंद घर वालें चादर व फूल लेकर हाजिर होते है।

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