ऐतिहासिक: मियां साहब इमामबाड़ा ने देखा नवाबी-अंग्रेजी दौर, आजाद हिंदुस्तान का चश्मदीद भी
ऐतिहासिक: मियां साहब इमामबाड़ा ने देखा नवाबी-अंग्रेजी दौर, आजाद हिंदुस्तान का चश्मदीद भी
स्थापत्य कला की अमिट निशानी अवध के नवाब आसफ-उद्दौला ने स्थापित किय। अवध की नक्काशी बेजोड़ बहुत खूब है सोने चांदी के ताजिए सैयद फरहान अहमद गोरखपुर। मोहर्रम का चांद होते ही इस्लामी नये साल का आगाज हो गया। इसी माह में हजरत इमाम हुसैन और उनके साथियों ने मैदाने करबला में तीन दिन के भूखे प्यासे रह कर अजीम कुर्बानियां दी। इस्लाम को बचा लिया। इसलिए तो कहा गया है इस्लाम जिंदा होता है हर करबला के बाद। मुहर्रम के मौके पर खास पेशकश। इसकी पहली कड़ी में जानिए मियां साहब इमामबाड़े का इतिहास। यह इमामबाड़ा सामाजिक एकता, अकीदत व एकता का केन्द्र है। यह गोरखपुर का मरकजी इमामबाड़ा है। भारत में सुन्नी सम्प्रदाय के सबसे बड़े इमामबाड़े के रूप में इसकी ख्याति है। 18वीं सदी के सूफीसंत सैयद रौशन अली शाह का फैज बटता है। यहां हर मजहबें के मानने वालों की दिली मुरादें पूरी होती है। इमामबाड़ा की शान पुरानी चकम दमक के साथ बरकरार है। इमामबाड़ा मुगल स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। इसकी दरों दीवार की नक्काशी बेजोड़ है। इसके चार बुलंद दरवाजे इसकी बुलंदी बयां करते है। यह गोरखपुर रेलवे स्टेशन से लगभग दो किलोमीटर दूरी पर स्थित है। यह भारत का इकलौता इमामबाड़ा है जहां सोने-चांदी की ताजिया है। दर्शन करने लोग दूर-दूर से आते है। करीब तीन सौ वर्षों से बाबा रौशन अली शाह द्वारा जलायी धूनी आज भी बदस्तूर जारी है। गोरखपुर में मुहर्रम मनाने की परम्परा अनोखी है। इसका श्रेय इमामबाड़ा स्टेट को जाता है। मियां साहब इमामबाड़ा तारीख के आईने में गोरखपुर। मियां साहब इमामबाड़ा के पांचवें सज्जादानशीन मियां अदनान फर्रूख अली शाह के मुताबिक रौशन अली शाह करीब सन् 1707 ई. में गोरखपुर तशरीफ लायें। उन्होंने सन् 1717 ई. इमामबाड़ा तामीर किया। विकीपीडिया में भी इमामबाड़ा की स्थापना तारीख 1717 ई. दर्ज है। इमामबाड़ा के जखीम रिकार्ड जाया (खत्म) हो चुके है। सूफीसंत सैयद रौशन अली शाह बुखारा के रहने वाले थे। वह मोहम्मद शाह के शासनकाल में बुखारा से दिल्ली आये। इतिहासकार डा. दानपाल सिंह की किताब गोरखपुर-परिक्षेत्र का इतिहास (1200-1857 ई. ) खण्ड प्रथम में गोरखपुर और मियां साहब नाम से पेज 65 पर है कि यह एक धार्मिक मठ है जो गुरू परम्परा से चलता है। दिल्ली पर अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण (1760 ई. ) के समय इस परम्परा के सैयद गुलाम अशरफ पूरब (गोरखपुर) चले आये और बांसगांव तहसील के धुरियापार में ठहरे। वहां पर उन्होंने गोरखपुर के मुसलमान चकलेदार की सहायता से शाहपुर गांव बसाया ( रौशन अली शाह के गोरखपुर आने को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है ) था। इनके पुत्र सैयद रौशन अली अली शाह की इच्छा इमामबाड़ा बनाने की थी। गोरखपुर में उन्हें अपने नाना से दाऊद-चक नामक मुहल्ला विरासत में मिला था। उन्होंने यहां इमामबाड़ा बनवाया। जिस वजह से इस जगह का नाम दाऊद-चक से बदलकर इमामगंज हो गया। मियां साहब की ख्याति की वजह से इसको मियां बाजार के नाम से जाना जाने लगा। उस समय अवध के नवाब आसफ-उद्दौला थे। जिन्होंने रौशन अली शाह को 15 गांवों की माफी जागीर दी। एक मशहूर वाकिये के दौरान नवाब आसफ-उद्दौला रौशन अली शाह की बुजुर्गी के कायल हुये। रौशन अली शाह से उनके लिए कुछ करने की इजाजत चाही। रौशन अली ने नवाब से इमामबाड़े की विस्तृत तामीर के लिए कहा जिसे नवाब ने माना और इमामबाड़ा तामीर करवाया। रौशन अली शाह की इच्छानुसार उसने छह एकड़ के इस भू-भाग पर इमाम हुसैन की याद में मरकजी इमामबाड़े की तामीर शुरू कराई। 12 साल तक तामीरी काम चलता रहा। जो 1796 ई में मुकम्मल हुआ। वही इमामबाड़ा आज इतिहास का साक्षी है । इमामबाड़े की तामीर करने के बाद अवध के नवाब आसफ-उद्दौला ने सोने से बना ताजिया को यहां भेजा था। नवाब की बेगम ने भी चांदी का ताजिया इसी वजन या इससे कम कुछ कम वजन का भेजा। इमामबाड़े की दरों दीवार व सोने-चांदी की ताजिया में मुगलिया वास्तुकला रची बसी नजर आती है। जो ऐतिहासिकता का अनुभव कराती है। जब अवध के नवाब ने गोरखपुर को अंग्रेजों को दे दिया तब अंग्रेजों ने भी इनकी माफी जागीर को स्वीकृत कर दिया। इसके अतिरिक्त कई गुना बड़ी जागीर दी। सन् 2000 ई. इमामबाड़ा की दरो दीवार काफी पुरानी व खस्ताहाल हो गयी। तो उसकी मरम्मती तामीर करायी गयी। सन् 2003 ई. से लेकर अब तक काफी काम हुआ। वर्तमान में इमामबाड़ा बेहतरीन स्थिति में नजर आ रहा है। पर्यटन के प्रमुख केंद्र के रूप में गोरखपुर की शान बन चुका है। ऐतिहासिक फाटक गोरखपुर। मियां साहब इमामबाड़े का फाटक वास्तुकला का अनमोल नमूना है। इस पर की गयी नक्काशी लोगों को आकर्षित करती है। चार फाटक चार दिशाओं में है। पश्चिम व पूरब फाटक काफी बड़े है। किसी जमाने में इन फाटकों से हाथियों का गुजर होता था। पूरब फाटक तो हमेशा खुला रहता है। लेकिन इसके तीन अन्य फाटक मुहर्रम माह में खोले जाते हैं। साल भर यह बंद रहते है। ऐतिहासिक मस्जिद व ईदगाह गोरखपुर। इमामबाड़े की उत्तर तरफ ऐतिहासिक मस्जिद है। यहां पर नमाज के साथ दर्सें कुरआन व हदीस का प्रोग्राम चलता है। इसके अलावा रौशन अली शाह द्वारा एक एकड़ में इमामबाड़े की दक्खिन की तरफ बनवायी ईदगाह है। जहां पर ईदुल फित्र व ईदुल अज्हा की नमाज अदा की जाती है। यहां बड़ी तादाद में लोग नमाज अदा करते है। (स्रोतः- गोरखपुर परिक्षेत्र का इतिहास लेखक डा. दानपाल सिंह, विकीपीडिया) दूसरी कड़ी में जानिए इमामबाड़ा के सभी सज्जादानशीनों के बारे में
स्थापत्य कला की अमिट निशानी अवध के नवाब आसफ-उद्दौला ने स्थापित किय। अवध की नक्काशी बेजोड़ बहुत खूब है सोने चांदी के ताजिए सैयद फरहान अहमद गोरखपुर। मोहर्रम का चांद होते ही इस्लामी नये साल का आगाज हो गया। इसी माह में हजरत इमाम हुसैन और उनके साथियों ने मैदाने करबला में तीन दिन के भूखे प्यासे रह कर अजीम कुर्बानियां दी। इस्लाम को बचा लिया। इसलिए तो कहा गया है इस्लाम जिंदा होता है हर करबला के बाद। मुहर्रम के मौके पर खास पेशकश। इसकी पहली कड़ी में जानिए मियां साहब इमामबाड़े का इतिहास। यह इमामबाड़ा सामाजिक एकता, अकीदत व एकता का केन्द्र है। यह गोरखपुर का मरकजी इमामबाड़ा है। भारत में सुन्नी सम्प्रदाय के सबसे बड़े इमामबाड़े के रूप में इसकी ख्याति है। 18वीं सदी के सूफीसंत सैयद रौशन अली शाह का फैज बटता है। यहां हर मजहबें के मानने वालों की दिली मुरादें पूरी होती है। इमामबाड़ा की शान पुरानी चकम दमक के साथ बरकरार है। इमामबाड़ा मुगल स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। इसकी दरों दीवार की नक्काशी बेजोड़ है। इसके चार बुलंद दरवाजे इसकी बुलंदी बयां करते है। यह गोरखपुर रेलवे स्टेशन से लगभग दो किलोमीटर दूरी पर स्थित है। यह भारत का इकलौता इमामबाड़ा है जहां सोने-चांदी की ताजिया है। दर्शन करने लोग दूर-दूर से आते है। करीब तीन सौ वर्षों से बाबा रौशन अली शाह द्वारा जलायी धूनी आज भी बदस्तूर जारी है। गोरखपुर में मुहर्रम मनाने की परम्परा अनोखी है। इसका श्रेय इमामबाड़ा स्टेट को जाता है। मियां साहब इमामबाड़ा तारीख के आईने में गोरखपुर। मियां साहब इमामबाड़ा के पांचवें सज्जादानशीन मियां अदनान फर्रूख अली शाह के मुताबिक रौशन अली शाह करीब सन् 1707 ई. में गोरखपुर तशरीफ लायें। उन्होंने सन् 1717 ई. इमामबाड़ा तामीर किया। विकीपीडिया में भी इमामबाड़ा की स्थापना तारीख 1717 ई. दर्ज है। इमामबाड़ा के जखीम रिकार्ड जाया (खत्म) हो चुके है। सूफीसंत सैयद रौशन अली शाह बुखारा के रहने वाले थे। वह मोहम्मद शाह के शासनकाल में बुखारा से दिल्ली आये। इतिहासकार डा. दानपाल सिंह की किताब गोरखपुर-परिक्षेत्र का इतिहास (1200-1857 ई. ) खण्ड प्रथम में गोरखपुर और मियां साहब नाम से पेज 65 पर है कि यह एक धार्मिक मठ है जो गुरू परम्परा से चलता है। दिल्ली पर अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण (1760 ई. ) के समय इस परम्परा के सैयद गुलाम अशरफ पूरब (गोरखपुर) चले आये और बांसगांव तहसील के धुरियापार में ठहरे। वहां पर उन्होंने गोरखपुर के मुसलमान चकलेदार की सहायता से शाहपुर गांव बसाया ( रौशन अली शाह के गोरखपुर आने को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है ) था। इनके पुत्र सैयद रौशन अली अली शाह की इच्छा इमामबाड़ा बनाने की थी। गोरखपुर में उन्हें अपने नाना से दाऊद-चक नामक मुहल्ला विरासत में मिला था। उन्होंने यहां इमामबाड़ा बनवाया। जिस वजह से इस जगह का नाम दाऊद-चक से बदलकर इमामगंज हो गया। मियां साहब की ख्याति की वजह से इसको मियां बाजार के नाम से जाना जाने लगा। उस समय अवध के नवाब आसफ-उद्दौला थे। जिन्होंने रौशन अली शाह को 15 गांवों की माफी जागीर दी। एक मशहूर वाकिये के दौरान नवाब आसफ-उद्दौला रौशन अली शाह की बुजुर्गी के कायल हुये। रौशन अली शाह से उनके लिए कुछ करने की इजाजत चाही। रौशन अली ने नवाब से इमामबाड़े की विस्तृत तामीर के लिए कहा जिसे नवाब ने माना और इमामबाड़ा तामीर करवाया। रौशन अली शाह की इच्छानुसार उसने छह एकड़ के इस भू-भाग पर इमाम हुसैन की याद में मरकजी इमामबाड़े की तामीर शुरू कराई। 12 साल तक तामीरी काम चलता रहा। जो 1796 ई में मुकम्मल हुआ। वही इमामबाड़ा आज इतिहास का साक्षी है । इमामबाड़े की तामीर करने के बाद अवध के नवाब आसफ-उद्दौला ने सोने से बना ताजिया को यहां भेजा था। नवाब की बेगम ने भी चांदी का ताजिया इसी वजन या इससे कम कुछ कम वजन का भेजा। इमामबाड़े की दरों दीवार व सोने-चांदी की ताजिया में मुगलिया वास्तुकला रची बसी नजर आती है। जो ऐतिहासिकता का अनुभव कराती है। जब अवध के नवाब ने गोरखपुर को अंग्रेजों को दे दिया तब अंग्रेजों ने भी इनकी माफी जागीर को स्वीकृत कर दिया। इसके अतिरिक्त कई गुना बड़ी जागीर दी। सन् 2000 ई. इमामबाड़ा की दरो दीवार काफी पुरानी व खस्ताहाल हो गयी। तो उसकी मरम्मती तामीर करायी गयी। सन् 2003 ई. से लेकर अब तक काफी काम हुआ। वर्तमान में इमामबाड़ा बेहतरीन स्थिति में नजर आ रहा है। पर्यटन के प्रमुख केंद्र के रूप में गोरखपुर की शान बन चुका है। ऐतिहासिक फाटक गोरखपुर। मियां साहब इमामबाड़े का फाटक वास्तुकला का अनमोल नमूना है। इस पर की गयी नक्काशी लोगों को आकर्षित करती है। चार फाटक चार दिशाओं में है। पश्चिम व पूरब फाटक काफी बड़े है। किसी जमाने में इन फाटकों से हाथियों का गुजर होता था। पूरब फाटक तो हमेशा खुला रहता है। लेकिन इसके तीन अन्य फाटक मुहर्रम माह में खोले जाते हैं। साल भर यह बंद रहते है। ऐतिहासिक मस्जिद व ईदगाह गोरखपुर। इमामबाड़े की उत्तर तरफ ऐतिहासिक मस्जिद है। यहां पर नमाज के साथ दर्सें कुरआन व हदीस का प्रोग्राम चलता है। इसके अलावा रौशन अली शाह द्वारा एक एकड़ में इमामबाड़े की दक्खिन की तरफ बनवायी ईदगाह है। जहां पर ईदुल फित्र व ईदुल अज्हा की नमाज अदा की जाती है। यहां बड़ी तादाद में लोग नमाज अदा करते है। (स्रोतः- गोरखपुर परिक्षेत्र का इतिहास लेखक डा. दानपाल सिंह, विकीपीडिया) दूसरी कड़ी में जानिए इमामबाड़ा के सभी सज्जादानशीनों के बारे में
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