मेरे उम्मती को तू बख्श दे यह मेरे नबी का कलाम था।।
न तो रब्बे अरनी का शोर था न कलीम था न कलाम था।
थीं तजल्लियों प तजल्लियां वह हबीबे महवे खराम था।
जहां जिबरईल न जा सके न किसी नबी का गुजर हुआ।
वहां पहुंचे सरवरे अम्बिया वह उबूदियत का मकाम था।
कभी पुलसिरात पे जलवागर कभी उनकी मीजां पे थी नजर।
हमी आसियों की तलाश में वह शफीये आली मकाम था।
कदमें हबीब जहां रूका वहीं उदनु मिना की दी सदा।
वह नजर नवाज तजल्लियों का अजीब तरजे कलाम था।
मेरे मुस्तफा मेरे मुज्तबा यह बताओ क्या-क्या करूं अता।
मेरे उम्मती को तू बख्श दे यह मेरे नबी का कलाम था।।
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