सीएम योगी आदित्यनाथ के अदबी शहर में बेगाने हुए 'उर्दू नॉवेल'
सैयद फरहान अहमद
गोरखपुर। इस समय गोरखपुर की चर्चा पूरी दुनिया में है। सीएम आदित्यनाथ का यह शहर कभी देश का अदबी (साहित्यिक सरगर्मियों) मरकज हुआ करता था। मजनूं, फिराक का यह शहर
अदबी दुनिया के आसमान पर चमकता हुआ मेहताब (चांद) था। जिस शहर से मुंशी प्रेमचंद की बावस्तगी हो उस शहर की अदबी शोहरत का अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है। इस शहर में उर्दू परवान चढ़ी। लेकिन अब इस अदबी शहर के हालात बदल चुके है। बाबा गोरखनाथ और हजरत रौशन अली रहमतुल्लाह अलैह की यह तपोस्थली इस बार सीएम योगी आदित्यनाथ की वजह से चर्चा के उरुज पर है, लेकिन इस अदबी शहर से उर्दू अदब का जनाजा निकल चुका है। यहां से उर्दू के चाहने वाले करीब न के बराबर हैं और इसी के साथ खत्म हो गया 'उर्दू नॉवेलों' का दौर। यानी इस शहर में उर्दू नॉवेल बेगाने हो चुके हैं। अब इस शहर में 'पाकीजा आंचल' और 'हुमा' ही बिकता है वह भी बेहद कम तादाद में और पढ़ने वालों में सिर्फ महिलाएं। समय के साथ या तरक्की के दौर में वक्त की किल्लत और उर्दू से नाआशनाई ने उर्दू नॉवेल का बेड़ा गर्क कर दिया।
अदबी महफिलों, मुशायरों, उर्दू नॉवेल के प्रति दिलचस्पी लगभग खत्म हो चुकी हैं। उर्दू का ज़िक्र छिड़ते ही बहुत से लोगों के ज़ेहन में दो-चार शेर गर्दिश करने लगते है, लेकिन सस्पेंस और थ्रिलर के शौकीन इस ज़ुबान के ज़रिए जासूसी की दुनिया में ग़ोते खाते रहे हैं।
दैनिक जागरण के सब एडिटर सैयद कासिफ अली बतातें हैं कि साठ के दशक में पाकिस्तान के लाहौर शहर से 'उर्दू डाइजेस्ट' नाम से अदबी नॉवेल छपता था। उसी की नकल हिन्दुस्तान में की गई और दिल्ली से 'शबिस्तां', 'हुआ व हुदा' का प्रकाशन हुआ। लेकिन जितनी कामयाबी 'जासूसी दुनिया' व 'पाकीजा आंचल' को मिली उतनी किसी और को नहीं मिलीं।
टाइम्स ऑफ इंडिया की संवाददाता अर्जुमंद बानो बताती हैं कि गोरखपुर के अदबी शिनाख्त को खुद यहां के अदब नवाजों ने खत्म कर दिया। मजनूं और फिराक ने यहां के उर्दू अदब को आसमान की बुलंदियो तक पहुंचाया। यहां से प्रकाशित होने वाले रिसाले बहुत मशहूर हुए। यहां से मजनूं गोरखपुरी जनवरी 1921 में 'इवान' तथा जनवरी 1940 में 'नशेमन', वहीदुल्लाह अब्बासी 1920 में 'अल तहकीक' हरदत्त सिंह खुशतर सितंबर 1922 में 'तोहफे खुश्तर' काजी तजम्मुल हुसैन 1910 में 'लेसानुन असर' निकालते थें। तिवारीपुर स्थित खादिम हुसैन के मकान से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मौलाना आजाद सुभानी ने 'रब्बानियत' 'रुहानियत' व 'दावत' का प्रकाशन किया। जिसमें मरहूम खादिम हुसैन का खूब सहयोग रहा।
इंकलाब के ब्यौरो चीफ मोहम्मद आतिफ उर्दू अदब में जासूसी विधा की मौजूदा हक़ीकत से वाकिफ़ हैं, लेकिन भविष्य को लेकर वो नाउम्मीद भी नहीं हैं। वो कहते हैं, “इस वक़्त तो यही लगता है कि कुछ अच्छा नहीं लिखा जा रहा है। लेकिन इसमें कोई नियम या तर्क काम नहीं करता। जैसे इब्ने सफ़ी पैदा हो गए और उनके साथ कई लोग भी आ गए लिखने वाले, अच्छे या बुरे। अब वो सारा क़िस्सा खत्म हो गया.”“लेकिन हो सकता है कि कल या परसों कोई नया आदमी पैदा हो जाए ।
वह बताते हैं कि जाफरा बाजार के बुक स्टाल पर आज भी 'जासूसी दुनिया' नॉवेल के कद्रदान आते हैं जबकि यह नॉवेल 20 साल पहले बंद हो चुका हैं। प्रो. मलिकजादा मंजूर अहमद 1967 में 'नब्ज' नाम की पत्रिका निकाला करते थें। इसके अलावा उर्दू में प्रकाशित कुछ महत्वपूर्ण नॉवेल व पत्रिकाएं जैसे 'जासूसी दुनिया' 'शबीस्ता' 'खिलौना' 'नया दौर' 'आस्ताना' 'निगार' 'आलमी डायजेस्ट' 'हुमा' 'पाकीजा आंचल' ' 'हजार रंग' 'निकहते गुल' 'कुर्बा' 'मश्रिकी आंचल' खातून मश्रिक, 'शमां' 'मश्रिकी जरायम' 'तारीखी कहानियां' हैं, जो बेहद चांव से पढ़ीं जातीं थीं। लोगों को बेसब्री से इंतजार रहता था। लेकिन अब सब बंद हैं और अब कुछ बुक स्टॉल, घरों व लाइब्रेरियों में दीमक व धूल की खुराक बन रही हैं। हालांकि इस्लामिक नॉवेल आज भी जोर-शोर से बिकता हैं नखास स्थित अख्तर बुक डिपो के प्रोपराइटर अख्तर आलम बताते हैं कि 'और श्मशीर टूट गई' 'दास्तान ईमान फरोशों की' 'अरब की शहजादी' 'सुल्तान सलाउद्दीन' नॉवेल की डिमांड आज भी हैं। काफी लोग खरीदने आते हैं।
हिन्दुस्तान टाइम्स के पत्रकार अब्दुल जदीद बताते हैं कि कभी उर्दू नावेलों को पढ़ने वालों की लाइन नखास स्थित वाहिद लाइब्रेरी में लगी रहती थीं। उन्होंने बताया कि अदब का यह शहर उर्दू ज़बान से दूर होता गया जिस वजह से उर्दू अदब का दायरा घटता गया। इस वजह से उर्दू नॉवेल की कद्र खत्म हो गई। अब शायद ही कोई उर्दू नॉवेल या पत्रिका छपती हो, अगर छपती भी होगी तो यकीन से कहा जा सकता हैं कि वह अवाम के हाथों में नहीं पहुंचती। ले दे के तीन-चार उर्दू अखबार, स्टार हास्पिटल की जानिब से शहर में एक बड़ा मुशायरा और छोटी-छोटी गुमनाम नशिस्ते बस यहीं हैं शहर का दम तोड़ता अदबी नजारा।
आई नेक्सट के सब एडिटर सैयद सायम रऊफ बतातें हैं कि 'जासूसी दुनिया' की दिलचस्प बात ये है कि इस दुनिया के किरदार न किसी ने टीवी पर देखे हैं, ना सिनेमा के पर्दे पर। एनिमेशन की दुनिया तक पहुंचना तो उनके लिए और दूर की बात लगती है। ये किरदार बस सालों-साल से भारत और पाकिस्तान में काग़ज़ के पन्नों से पढ़ने वालों के दिलो-दिमाग़ पर उतरते रहे।
इन किरदारों को रचने वालों में सबसे बड़ा नाम है इब्ने सफ़ी। उर्दू में जासूसी अदब लिखने वाले नाम तो कई और भी है, लेकिन इस बात पर ज़्यादातर लोग सहमत हैं कि इसे बुलंदी बख़्शने वाले शख़्स इब्ने सफ़ी ही हैं। वो कहते हैं, “जैसे कहा जाता है कि ग़ालिब के बाद उर्दू में जितनी भी क्लासिकी ग़ज़ल थी, वो आगे नहीं बढ़ पाई। इसी तरह उर्दू का ख़ालिस जासूसी नॉवेल इब्ने सफ़ी से इब्ने सफ़ी तक ही महदूद रहा। इब्ने सफ़ी ने 120 उपन्यासों वाली ‘जासूसी दुनिया’ सीरीज़ लिखी। इसके अलावा उनके 125 उपन्यास इमरान सिरीज़ के है। उनके लगभग सभी उपन्यासों को आप 'बेस्ट सेलर' का तमग़ा दे सकते हैं। हर महीने उनका नया उपन्यास बाज़ार में आता था और पाकिस्तान और भारत, दोनों जगह हाथों-हाथ बिक जाता था। बताते हैं कि पायरेसी और ब्लैक मार्केटिंग होती थी, वो अलग। हिंदी के अलावा तेलुगु और बांग्ला समेत कई भारतीय भाषाओं में उनके उपन्यासों का नियमित रूप से अनुवाद होता था। लेकिन वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया। शहर की अदबी पहचान लगभग खत्म हो चुकी है।
बेहतरीन त्र
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