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यादे शोहदाए करबला संग दफन हुए ताजिए

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हजरत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम व उनके जानिसारों की शहादत को याद करके दसवीं तारीख केा तािजयों के जुलूस निकाले गए। सुबह से ही ताजियों के निकलने का सिलसिला शुरू हुआ तो सारी रात तक चलता रहा। मुहर्रम की दसवीं तारीख यानी शनिवार को महानगर के सभी इमामचैकों पर बैठाए गए ताजिए के साथ अकीदतमंदों ने जुलूस निकाला और कर्बला पहुंचकर शहीदाने कर्बला को खेराजे अकीदत पेश करने के बाद ताजियों को दफन किया। इमामचैकों पर रखे गए बड़े ताजिए जुलूस में शामिल हुए। घर-घर में फातिहा पढें गए। गरीबों में खानाबांटा गया। जगह-जगह मीठे सर्बत व खिचडा बनाया गया और वितरित किया गया। तुर्कमानपुर नूरी मस्जिद में मजलिस जिक्रे शोहदाए करबला का आयोजन हुआ। इसके बाद लंगर बांटा गया। दसवीं मुहर्रम के मौके पर मजलिसें बरपा हुई। तकरीरों में जब जिक्र-ए-हुसैन आया तो सुनने वालों की आंखे अश्कबार हो गई। दसवीं मुहर्रम को मोहल्ला रसुलपुर, जमुनहिया, गोरखनाथ, हुमायंुपुर, रेलवे स्टेशन, जटेपुर, शाहपुर, घेाषीपुरवा, अंधियारी बाग, जाफरा बाजार, घासीकटरा, गाजीरौजा, खोखरटोला, रहमतनगर, मिर्जापुर, निजामपुर, चिंगी शहीद, हाल्सीगंज, तुर्कमानपुर, पहाड़पुर, खुनीप...

सैयदुश्शुहदा हजरत सैयदना इमाम हुसैन के बारे में

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मदरसा दारूल उलूम हुसैनिया दीवान बाजार के सहायक अध्यापक मोहम्मद आजम ने बताया कि हजरत इमाम हुसैन का इस्मे गिरामी हुसैन और कुन्नीयत अबु-अब्दुल्लाह है। सैयद शबाबे अहलिल जन्नः यानि जन्नती जवानों के सरदार। एक बात और काबिले गौर है कि जन्नत में कोई बूढा न होगा। इसलिए यह यकीन के साथ कहा जा सकता है कि इमाम हसन और हुसैन तमाम जन्नतियेां के सरदार होंगे। आपके पिता हजरत अली है। माता का नाम हजरत फातिमा। आपके नाना पैगम्बरें खुदा मोहम्मद साहब है। नानी हजरत खदीजतुल कुब्रा़ है। आपका शजरए नसब यह है हुसैन बिन अली बिन अबी-तालिब बिन हाशिम बिन अब्द-मनाफ़ करशी हाशिमी व मुत्तलबी। विलादत बा सआदत इमाम हुसैन तीसरे इमाम और अबुल अइम्मा है। आपके पैदाइश के मुत्तालिक हदीस में आया है कि पैगम्बर साहब की चची जान पैगम्बर साहब की खिदमत में हाजिर हुई और अर्ज किया कि आज रात मैंने एक खतरनाक ख्वाब देखा है। हुजूर ने फरमाया क्या है? बोलीं, मैंने देखा है कि आपके जिस्म पाक का टुकड़ा काटा गया और मेरी गोद में रखा गया। रसूल ने फरमाया ख्वाब अच्छा है। इन्शाअल्लाह फातिमा केा एक लड़का पैदा होगा और वह तुम्हारी गोद में दिया जाएगा। जब इमाम ह...

गुस्ल सुरमा लगाना

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मुहर्रम की दस तारीख को गुस्ल जरूर करें। क्योंकि उस रोज जमजम का पानी तमाम पानियों में पहंचता है। मुसन्निफे तफसीर नईमी अलैहिर्रहमः फरमाते है आशूरह के दिन गुस्ल करने वाला साल भर बीमारियों से महफूज रहेगा। मुहर्रम की दस तारीख को जो शख्स सुरमा लगाए तो इंशाअल्लाह साल भर उसकी आंख नहीं दुख्ेागी।

आशूरह के दिन हमें क्या करना चााहिए?

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आशूरह के दिन दस चीजों को उलमाए किराम ने मुस्तहब लिखा है। बाज उलमा ने उसे इरशादे रसूल और बाज नेउसे हजरत अली का कौल बताया है। बहरहाल ! यह सब काम अच्छे काम है, उनको करना चाहिए।रोजा रखना,सदका करना, नवाफिल पढ़ना, एक हजार मर्तबा सूरः इख्लास पढ़ना, उलमा और औलिया की जियारत करना, यतीमों के सर पर हाथ रखना, अपने घर वालों पर खाने में वुस्अत व फराखी करना,सुरमा लगाना, गुस्ल करना, नाखुन तराशना और मरीजों की बीमार पुर्सी करना , इमाम आली मकाम व दीगर के नाम की फातिहा करना।

मजालिसे मुहर्रम

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मुहर्रम-हराम के दसों दिन खुसूसन आशूरह के दिन मजलिस मुनअकिद करना और सही रिवायतों के साथ हजरत सैयदना इमाम हुसैन व शोहदाए करबला के फजाइल और वाकियाते करबला बयान करना जायज व बाइसे सवाब है। हदीस शरीफ में है जिस मजलिस में सालिहीन का जिक्र हो, वहां रहमत का नुजूल होता है।

खिचड़ा और सबीले इमाम हुसैन

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खिचड़ंे के मुताल्लिक तो एक रिवायत मे आता है कि खास मुहर्रम के दिन खिचड़ा पकाना हजरत नूह अलैहिस्सलाम की सुन्नत है। चुनांचे मंकल है कि हजरत नूह की कश्ती तूफान से नजात पाकर जूदी पहाड़ पर ठहरी हो वह दिन आशुरह मुहर्रम था। हजरत नूह ने कश्ती के तमाम अनाजों को बाहर निकाला तो फोल (बड़ी मटर), गेहूं, जौ, मसूर,चना, चावल, प्याज यह सात किस्म के गल्ले मौजूद थे। आप ने उन सातों को एक हांडी में लाकर पकाया। चुनंाचे अल्लामा शहाबुद्दीन कल्यूबी ने फरमाया कि मिस्र में जो खाना आशूरह के दिन तबीखुल हुबूब (खिचड़ा) के नाम से मशहर है उसकी असल व दलील यही हजरत नूह अलैहिस्सलाम का अमल है। सबीले वगैरह बांटने में सवाबे खैर है।

आशूरह का रोजा

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नवीं और दसवीं मुहर्रम दोनों दिन का रोजा रखना चाहिए। इसकी बहुत फजीलत है। हजरत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास से रिवायत है कि रसूल मदीना तशरीफ लाए तो यहूदियों को आशूरह के दिन रोजा रखे हुए देखा। आप ने उनसे फरमाया यह कैसा दिन है कि जिसमें तुम लोग रोजा रखते हो? उन्होंने कहा यह वह अजमत वाला दिन है जिसमें अल्लाह ने मूसा और उनकी कौम को फिरऔन के जुल्म से नजात दी और उसको उसकी कौम के साथ डुबो दिया। हजरत मूसा ने उसी के शुक्रिया में रोजा रखा। इसलिए हम भी रोजा रखते हैं। रसूल ने फरमाया हजरत मूसा की मुवाफिकत करने मंे तो तुम्हारी बनिस्बत हम ज्यादा हकदार है। चुनांचे हुजूर ने खुद भी आशूरह का रोजा रखा और सारी उम्मत को उसी दिन रोजा रखने का हुक्म दिया। मुसनद इमाम अहमद अैार बज्जाज में हजरत इब्ने अब्बास से मर्वी है कि रसूल ने फरमाया यौमे आशूरह का रोजा रखो और उसमें यहूद की मुखालफत करो। याानि नवीं और दसवीं मुहर्रम दोनों दिन रोजा रखों।

मोहर्रम की दसवीं तारीख को कयामत भी आयेगी

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मोहर्रम अरबी साल का पहला महीना है और आखिरी व बारहवां महीना जिलहिज्ज है। यूं तो जिस भी महीने का चांद नमूदार होता है वह कोई अहम चीज की याद जरूर अपने दामन मंे छुपाये होता है ।तो जैसे ही चांद निकलत है उसकी याद ताजा हो जाती है या तो खुशी से झूम उठता है या फिर गमगीन हो जाता है। जैसे अभी जिलहिज्जा का महीना गुजरा उसने हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम व इस्माईल अलैहिस्सलाम की याद ताजा किया और लोगों ने सुन्नते इब्राहीमी अदा किया। लेकिन मोहर्रम का महीना सिर्फ किसी एक चीज को याद नहीं दिलाता है और न ही इसके दामन में कोई एक वाक्या छुपा हुआ है बल्कि जितने भी अहम वाक्ये और यादें है अक्सर का तअल्लुक इसी महीने से है। शहरे हराम वैसे तो वह महीने जिनको शहरे हराम कहा जाता है वह चार है रजब, जिकादा, जिलहिज्ज, मोहर्रम लेकिन जब मुत्लक शहरे हराम बोला जाता है तो मोहर्रम का ही महीना समझा जाता है। यू ंतो पूरा मोहर्रम बा बरकत हुरमत का हामिल और फजिलत वाला है। लेकिन उसमे खासतौर से दसवीं तारीख जिसे आशूरा कहा जाता हैं । वह बहुत ही फजीलत का हामिल है। साहिबे नुजहतुल मजालिस तहरीर फरमाते है कि आसमान व जमीन, कलम को अल्लाह तआला...

मेले के लिए दूर-दूर से आते है व्यापारी

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गोरखपुर। शाही इमामबाड़ा सिर्फ अपने इतिहास को लेकर ही खास नहीं है बल्कि देश का ऐसा इमामबाड़ा है जहां शिक्षा की अलख भी जगाई जाती है। दूर दराज से आए हुए मेहनतकशों के लिए इमामबाड़ा व्ययवासायिक पनाहगाह भी बना हुआ है। हर साल इमामबाड़ा स्टेट परिसर में मोहर्रम के अवसर पर लगने वाला मेला हर खासो आम को अपनी ओर खींचता है। मेले में स्आॅल लगाने के लिए दूर-दराज के व्यवसायी काफी पहले से ही अपना स्ािान सुरक्षित कराने की होड़ में रहते हैं तो स्थानीय लोग भी इस मेले के इंतजार में रहते है। हो भी क्यों न हरआम और खास की जरूरत को जो यह मेला पूरी करता है। सोमवार को शाही इमामबाड़े में अकीदतमंदों की भारी भीड़ उमड़ी। लोग रौशन अली शाह और सोेने-चांदी की ताजियों का दर्शन करने के साथ ही मेले में सामान की खरीदारी करते दिखें। महिलाओं व बच्चों कीसंख्या मेले में अधिक दिखी। देर शाम इमामबाड़ा पूरी तरह रौशनी में नहा उठा। देर रात तक यहां दुकानदार सारा माल बेचकर ही जाते है। दसवीं मोहर्रम के कई दिन बाद तक मेला चलता रहता है। मेले में क्राकरी की सबसे बड़ी दुकान लगाने वाले कहते है कि वह तेरह सालों से लगातार इस मेले में आते हैं ...

जिन्दा थे और आज भी जिन्दा हुसैन है: अख्तर

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गोरखपुर। मदरसा दारूल उलूम हुसैनिया दीवान बाजार के मुफ्ती मौलान अख्तर हुसैन ने मस्जिद गाजी रौजा में जिक्रे शोहदाए करबला के समापन अवसर पर कहा कि करबला की दोपहर के बाद रिक्कत अंगेज दास्तां सुनन से पहले एक लरजां खेज और दर्दनाक मंजर निगाहों के सामने लाइए। सुबह से दोपहर तक खानदाने नुबुवत के तमाम चश्मों चिराग व जुमला आवान व असंार एक करके शहीद हो गये। नजर के सामने लाशों के अंबार है,उनमें जिगर के टुकड़े भी है और आंख के तारे भी भाई और बहन के लाडले भी हैं, और बाप की निशानियां भी, इन बेगोरों कफन जनाजांे पर कौन आसूं बहाये। तन्हा एक हुसैन और दोनों जगह की उम्मीदों का हुजूम। उन्होंने आगे कहा कि नाना जाना की शरीअत के मुहाफिज हजरत इमाम हुसैन सर से कफन बांध कर जंग में जाने के लिए निकल पड़ते है। अपने नाना जाना पैगम्बर साहब का अमामए मुबारक सर पर बांधा। सैयदुश्शुहदा हजरत अमीर हमजा रजियल्लाहु अन्हु की ढाल पुश्त पर रखी। शेरे खुदा हजरत सैयदुना अली की तलवार जुलफिकार गले मंे हमाइल की और हजरत जाफर तय्यार का नेजा हाथ में लिया। ओर अपने बिरादरे अकबर इमाम हसन का पटका कमर में बांधा। इस तरह शहीदों के आका, जन्नत के नौ...

कुरआन और अहले बैत का दामन थाम लो गुमराह नहीं होगे

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गोरखपुर। मस्जिद गाजी रौजा मंे जिके्र शोहदाए करबला मजलिस में मदरसा दारूल उलूम हुसैनिया दीवान बाजार के मुफ्ती अख्तर हुसैन ने कहा कि नबीए करीम ने एक अहम खुत्बा हज्जतुल विदा मंे अर्फा के दिन हजारों साहाबा (पैगम्बर साहब के साथी) के सामने बयान फरमाया था जिसे सुनने तिर्मिजी हदीस की मशहूर किताब में रिवायत किया गया है कि पैगम्बर साहब ऊंट कसवा पर खुत्बा पढ़ रहे थे। आपको फरमाते सुना ऐ लोगों मैंने तुममें वह चीज छोड़ी है कि जब तक तुम उनको थामे रहोगे, गुमराह न होगे। अल्लाह की किताब और मेरी इतरत यानी अहले बैत (पैगम्बर के घर वाले)। इस हदीस पाक में भी सरकारे दो आलम ने खुद इरशाद फरमाया कि अगर तुम हिदायत चाहते हो और गुमराही और जलालत से अपने आपकों दूर रखना चाहते हो तो अहले बैत का दामन थाम लो, कभी गुमराह नहीं होगें। मस्जिद के पेश इमाम हाफीज रेयाज अहमद ने मजलिस की शुरूआत कुरआन पाक की तिलावत से की तत्पश्चात् नात शरीफ हाफीज रहमत अली ने पेश की। हाफीज रेयाज ने बताया कि एक हदीस मे है कि पैगम्बर साहब ने इरशाद फरमाया कि जो शख्स अहले बैत से बुग्ज रखता है वह मुनाफिक है। और इरशाद फरमाया कोई बन्दा-ए-मोमिने कामिल नह...

इमाम हुसैन ने जिंदा कर दिया इस्लाम को: मफ्ती अख्तर

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गोरखपुर तेरी कुर्बानी ने जिन्दा कर दिया इस्लाम को। वह रहेगा ता अबद तेरी बदौलत ऐ हुसैन! मिल्लते इस्लाम को मिलता है एक दर्से ह्या! कैसे भूलें हम तेरा यौमे शहादत ऐ हुसैन! हाल मेरा कुछ भी हो, मेरा अकीदा है यही! बख्शवाएगी मुझे तेरी मोहब्बत ऐ हुसैन। मुखबिरे सादिक गैब दा नबी ने अपने नवासे इमाम हुसैन की पैदाइश के साथ ही आपकी शहादते उजमा के बारे मंे खबर दे दी थी। हजरत अली, हजरत फातिमा, हजरत हसन और खुद इमाम हुसैन भी जानते थे कि एक दिन करबला के मकाम पर शहीद किया जाऊंगा। लेकिन किसी ने भी और खुद इमाम हुसैन ने भी कभी किसी किस्म का शिकवा जुबान पर नहीं लाया। बल्कि निहायत खन्दा पेशानी के साथ अपनी शहादत की खबर सुनते रहे। उक्त बातें मदरसा दारूल उलूम के मुफ्ती मौलाना अख्तर हुसैन ने मस्जिद गाजी रौजा में जिक्रे शौहदाए करबला की मजलिस के दौरान कही। उन्होंने कहा कि हदीस शरीफ में आया है कि हजरत उम्मे फजल बिन्ते हारिस पत्नी हजरत अब्बास फरमाती है कि मैंने एक रोज पैगम्बर साहब की खिदमत में हाजिर होकर हजरत इमाम हुसैन को आपकी गोद में दिया फिर मैं क्या देखती हूं कि पैगम्बर साहब की आंखों से लगातार आंसू बह रहे है। मैंन...

काठ का ताजिया

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मिर्जापुर स्थित काठ से बना ताजिया शहर के पुराने एवं मशहूर ताजियों में से एक है। ताजिये में बारीक नक्काशी की गई है। देखने से ही पता चलता हैं कि यह ताजिया कितना नायाब व पुराना है। नौवीं मोहर्रम को ताजिया जियारत के लिए रखा जाता है। दसवीं मोहर्रम के दिन ताजिया की जगह तुरबत दफन किया जाता है।

शीशे से बना ताजिया

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अलीनगर चैराहे पर करीब साठ सालों से ताजमहल जैसा शीशे का ताजियां आकर्षण का केंद्र है। नौवीं एवं दसवीं मोहर्रम के लिए यहां लोगों का मजमा लगा रहता है। इसे पीतल और शीशे के टुकड़ों को जोड़कर बनाया जाता है। मुहर्रम बीतने के बाद ताजिया को फौल्ड कर रख दिया जाता है।

तांबे से बना ताजिया

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अस्करगंज स्थित सब्ज इमाम चैक पर जो ताजिया रखा जाता है। वह करीब साठ सालों पुराना है। कई लोगों ने मिलकर इसको बनाया था। सबसे पहले जब ताजिया वजूद में आया, तब वह तांबे का था, वक्त क साथ उसमें बदलाव होता गया। बाद में रांगा और एल्यूमिनियम का हो गया है। हालंाकि उसके ढांचे में किसी तरह का बदलाव नहीं किया गया है।

लकड़ी का ताजिया

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गोरखपुर। मियां साहब इमामबाड़ा जहां सोने चांदी ताजिया के लिए प्रसिद्ध है वहीं एक ताजिया ऐसा भी है जो सूफीसंत रोशन अली शाह ने बनवाया था। वह ताजिया आज भी लोगों के आस्था का अहम केंद्र बना हुआ है।

ताजियादारी के दिलचस्प

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गोरखपुर। हजरत इमाम हुसैन और हजरत इमाम हसन की शहादत की याद को ताजा करने के लिए ताजिए का जूलुस निकालते हैं। ताजिया इमाम हुसैन का (इराक) स्थित रौजे का काल्पनिक चित्रण या प्रस्तुति है। लोग अपनी आस्था और हैसियत के हिसाब से ताजिया बनाते हैं और उसे कर्बला नामक स्थान पर ले जाते है। उर्दू में ताजिये के मायने शबीह (शक्ल) है। इमाम हुसैन की तुरबत जरी इमारत रौजा की शक्ल जैसे, सोने, चाॅंदी, लकड़ी, बाॅस, कपड़े, कागज वगैरह से बनाते हैं। ये शबीह (शक्ल) गम शोक और अलामत हरम के तौर पर जुलूस की शक्ल में लेकर निकलते हैं। कभी घरों इमामबाड़ों या कुशादा मखसूस चबूतरों पर रखते हैं जिन्हें इमाम साहब का चैक कहा जाता है। हैदराबाद के दक्खिन में ताजिया, ताबूत, मातम और सीनाजनी को कहते हैं। ताजिया अपनी बनावट व साख्त के लिहाज से शनअत का अच्छा नमूना है और ताजिया बनाने वाले इसकी शक्ल व सूरत में इलाकई खुसूशियत व कारीगरी के नमूने पेश करते है। अब समय के साथ बदलाव को कुबूल कर थर्माकोल के कैनवस पर बेहतरीन अंदाज से विश्वप्रसिद्ध मस्जिदों, इमामबाडों और मकबरों का आकार उभारा जा रहा है। ताजिये साल-साल दो साल तक बनते है। इनके नाम ...

इस्लामी कैलेंडर यानी हिजरी वर्ष का पहला माह ‘मोहर्रम’

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1437 हिजरी शुरू गोरखपुर। मोहर्रम का चांद होते ही इस्लामी कैलेन्डर नव वर्ष प्रारम्भ होता है । इस्लामी कैलेंडर यानी हिजरी वर्ष का पहला महीन है मोहर्रम। इस माह से 1437 हिजरी शुरू हो चुकी है। इस माह को इस्लामी इतिहास की सबसे दुखद घटना के लिए भी याद किया जाता है। इसी महीने में 61 हिजरी में यजीद नाम के एक आतताई ने इमाम हुसैन और उनके 72 अनुयाइयों का कत्ल करदिया था। हिजरी सन् का आगाज इसी महीने से होता है। इस माह केा इस्लाम के चार पवित्र महीनों में शुमार किया जाता है। अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहौ अलैही वसल्लम ने इस माह को अल्लाह का महीना कहा है। साथ ही इस माह में रोजा रखने की खास अहमियत बयान की है। मुख्तलिफ हदीसों, व अमल से मुहर्रम की पवित्रता व इसकी अहमियत का पता चलता है। ऐसे ही पैगम्बर साहब ने एक बार मुहर्रम का जिक्र करते हुए इसे अल्लाह का महीना कहा। इसे जिन चार पवित्र महीनों में रखा गया है। उनमंे से दो महीने जीकादा व जिलहिज्ज । एक हदीस के अनुसार अल्लाह के रसूल ने कहा कि रमजान के अलावा सबसे उत्तम रोजे वे हैं, जो अल्लाह के महीने मुहर्रम में रखे जाते है। फजाइले आशूरह:- खुदावन्दे ...

अबू नसर फाराबी

(873 ई.- 950 ई.) अबू नसर फाराबी का पूरा नाम अबू-नसर मुहम्मद बिन जोजलग बिन तरखान फाराबी है। वह 873 ई. में तुर्किस्तान के नगर फारान में पैदा हुए। इसलिए फाराबी कहलाते हैं। फाराबी को दर्शनशास्त्र और विज्ञान से बड़ा लगाव था। एक बार उनके पिता क एक मित्र ने यूनान के महान दर्शनशास्त्री अरस्तू की कुछ पुस्तकें धरोहर के तौर पर रखवा दीं। क्योंकि फाराबी को दर्शनशास्त्र में रूचि थी इसलिए उन्होंने वह सभी पुस्तकें पढ़ डालीं। यद्यपि अरस्तू की पुस्तकों का फाराबी से पहले कई विद्वानों ने अनुवद कर दिया था। लेकिन फाराबी ने बड़ी निपुणता से अरस्तू की जटिल ओर कठिन समस्याओं का वर्णन किया ओर उन्हें सुबोध बनाया। फाराबी के प्रयत्न से ही अरस्तू के दर्शनशास्त्र को लोकप्रियता मिली। फाराबी को लिखने-पढ़ने का बड़ा शौक था और उनका जीवन अध्ययन और पुस्तक लेखन को समर्पित हो चुका था। मुस्लिम जगत के महान दर्शनशास्त्री होने के बावजूद विज्ञान में भी उनका योगदान कम नहीं है। उनकी पुस्तक ’अहसाउल उलूम’ विज्ञान पर विशिष्ट पुस्तक मानी जाती है। उन्होंने संगीत कला का भी गहरा अध्ययन किया। फाराबाी की पुस्तक ’अलमोसीकी’ संगीत कला में विशे...

आप अस्करगंज के बारकल्लाह ताले वाले से मिले हैं ?

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ताला बनाने वाले कारीगर ने लड़कियों की तालीम के लिए स्कूल खोला एक मदरसा और निकाह घर भी संचालित करते हैं सैयद फरहान अहमद गोरखपुर। क्या आप अस्करगंज के बारकल्लाह ताले वाले को जानते हैं ? यदि नहीं तो आप को इस दिलचस्प शख्सियत से जरूर मिलना चाहिये। यूं तो वह किसी तारूफ के मोहताज नहीं है। वह काफी मशहूर हैं। सिर्फ इसलिए नहीं कि हर तरह का ताला, तिजोरी, ब्रीफकेस का लॉक, गडि़यों के ताले चंद मिनट में ठीक कर देते हैं बल्कि इसलिए भी कि इस शख्स ने ज़िंदगी कि तमाम दुश्वारियों के बीच लड़के और लड़कियों कि शिक्षा के लिए दो शैक्षिक संस्थान स्थापित किया। इसके अलावा वह छोटे काजीपुर में निकाह घर संचालित करते हैं और अब जच्चा बच्चा अस्पताल स्थापित करने में जूते हैं। शहर में ताला चाबी का जब.जब जिक्र होगा। इनका नाम जरूर आयेगा। इनका कोई उस्ताद नहीं है सिर्फ देखकर ही हुनरमंद बन गये। खराब तालों को मिनटों में ठीक कर देते है। ताला व चाभी के उम्दा करीगर है। चाइनीज, अमेरिकन, जापानी, इंगलिश या भारतीय तालों पर इनकी करीगरी सिर चढ़ कर बोलती है। दुनिया का ऐसा कोई ताला व उसकी चाभी नहीं हैए जिसको इन्होंने न बनाया हो। आज अस्सी...

ऐतिहासिक इमामबाड़ा सामाजिक एकता, अकीदत व वास्तुकला का केन्द्र

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अवध के नवाब आसफ-उद्दौला ने स्थापित किया मुगलिया नक्काशी बेजोड़ बहुत खूब है सोने चांदी के ताजिए शुरू होगी इस्लामी तारीख की 1437 हिजरी सैयद फरहान अहमद गोरखपुर। मोहर्रम का चंाद होते ही इस्लामी नये साल का आगाज होगा। इस्लामी तारीख की 1437 हिजरी शुरू हो जायेगी। इसी माह में हजरत इमाम हुसैन और उनके साथियों ने मैदाने करबला में तीन दिन के भूखे प्यासे रह कर अजीम कुर्बानियां दी। इस्लाम को बचा लिया। इसलिए तो कहा गया है इस्लाम जिंदा होता है हर करबला के बाद। मोहर्रम के मौके पर खास पेशकश। इसकी पहली कड़ी में जानिए मियां साहब इमामबाड़े का इतिहास। यह इमामबाड़ा सामाजिक एकता, अकीदत व एकता का केन्द्र है। यह गोरखपुर का मरकजी इमामबाड़ा है। भारत में सुन्नी सम्प्रदाय के सबसे बड़े इमामबाड़े के रूप में इसकी ख्याति है। 18वीं सदी के सूफीसंत सैयद रौशन अली शाह का फैज बटता है। यहां हर मजहबें के मानने वालों की दिली मुरादें पूरी होती है। इमामबाड़ा की शान पुरानी चकम दमक के साथ बरकरार है। इमामबाड़ा मुगल वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है। इसकी दरों दीवार की नक्काशी बेजोड़ है। इसके चार बुलंद दरवाजे इसकी बुलंदी बयां करते है। य...

दादरी में मरहूम एखलाक का कत्ल लोकतंत्र पर काला दाग

गोरखपुर। रसूलपुर स्थित पूर्व पार्षद नबीउल्लाह अंसारी के घर मोमिन अंसार काउंसिल की बैठक हुई। अध्यक्षता काउंसिल के जिलाध्यक्ष वसीम अंसारी ने व संचालन जिला उपाध्यक्ष इम्तेयाज अंसारी ने की। जिलाध्यक्ष ने कहा कि एखलाक का कत्ल भारत के लोकतंत्र पर काला दाग है। इस तरह की वारदातों से गंगा-जमुनी तहजीब खत्म हो जायेगी। उन्होंने मांग किया कि केंद्र व राज्य सरकार दंगाईयो पर कड़ी कार्यावाही करें और एखलाक के हत्यारों को तत्काल फांसी की सजा दी जायें। जिला उपाध्यक्ष ने कहा कि एखलाक के परिजनों को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पचास लाख रूपया आर्थिक मदद दी जाएं ताकि पीडि़त परिवार को न्याय मिल सके। पूर्व पार्षद नबीउल्लाह ने कहा कि उप्र सरकार के चलर कानून व्यवस्था पर सवाल उठाया और सरकार से अपील किया कि भविष्य मंे इस तरह की अमानवीय घटना दोबार ना होने पाएं। इस दौरान शमशाद अंसारी, मंसूर अंसारी, सेराज अंसारी, कामरेट जियाउद्दीन सदरे आलम असंारी, अरशद, एहतेशाम अंसारी, अजहर अली सहित तमाम लोग मौजूद रहे।