ताजियादारी के दिलचस्प

गोरखपुर। हजरत इमाम हुसैन और हजरत इमाम हसन की शहादत की याद को ताजा करने के लिए ताजिए का जूलुस निकालते हैं। ताजिया इमाम हुसैन का (इराक) स्थित रौजे का काल्पनिक चित्रण या प्रस्तुति है। लोग अपनी आस्था और हैसियत के हिसाब से ताजिया बनाते हैं और उसे कर्बला नामक स्थान पर ले जाते है। उर्दू में ताजिये के मायने शबीह (शक्ल) है। इमाम हुसैन की तुरबत जरी इमारत रौजा की शक्ल जैसे, सोने, चाॅंदी, लकड़ी, बाॅस, कपड़े, कागज वगैरह से बनाते हैं। ये शबीह (शक्ल) गम शोक और अलामत हरम के तौर पर जुलूस की शक्ल में लेकर निकलते हैं। कभी घरों इमामबाड़ों या कुशादा मखसूस चबूतरों पर रखते हैं जिन्हें इमाम साहब का चैक कहा जाता है। हैदराबाद के दक्खिन में ताजिया, ताबूत, मातम और सीनाजनी को कहते हैं। ताजिया अपनी बनावट व साख्त के लिहाज से शनअत का अच्छा नमूना है और ताजिया बनाने वाले इसकी शक्ल व सूरत में इलाकई खुसूशियत व कारीगरी के नमूने पेश करते है। अब समय के साथ बदलाव को कुबूल कर थर्माकोल के कैनवस पर बेहतरीन अंदाज से विश्वप्रसिद्ध मस्जिदों, इमामबाडों और मकबरों का आकार उभारा जा रहा है। ताजिये साल-साल दो साल तक बनते है। इनके नाम भी एक अलग-अलग हैं। गोरखपुर के गेहुंआ की ताजिया हिंदूस्तान में अनोखी ताजिया है। शहर की सोने-चांदी, लकड़ी, तांबा, शीशे, काठ, लाइन की ताजिया काफी मशहूर है। जिसकी शेाहरत दूर-दूर तक है। एक बार जो देखता है देखता ही रह जाता। हिन्दूस्तान में हिन्दू मुस्लिम मिलकर ताजिया बनाते है। जो कौमी एकता की मिसाल है। ताजियादारी के बारे में मोहम्मद आजम ने बताया कि ताजियादारी की शुरूआत बादशाह तैमूर ने की। तैमूर प्रत्येक वर्ष शोहदाए कर्बला को खेराजे अकीदत पेश करने कर्बला जाता था मुहर्रम के पवित्र दिनों को वह वहीं बिताता था। सन् 1698-99 में किसी वजह से कर्बला नहीं जा पाया। उसने इमाम हुसैन के रौजा की शक्ल में ताजिया बनवाया और अपने राजमहल में सुरक्षित रख इमाम हुसैन को खेराजे अकीदत पेश की। उसकी देखी देखा उस मुल्क के खास व आम सभी ने उस प्रकिया को अपनाते हुए ताजिया का निमार्ण करना शुरू कर दिया। मुगल शासनकाल में मोहर्रम के मौके पर ताजिादारी आम हो जाती है। जब भारत में हुमायूं शेरशाह से हार गया तो शेरशाह सूरी ने उसे मुल्क से निकाल दिया। हुमायूं ईरान के शाह तहमस पास मदद के लिए गया। शाह ने उसका जोरदार स्वागत करता है। दस हजार अश्वरोही सेना दी। हुमायंू दोबारा हिन्दूस्तान आया और शेरशाह को परास्त किया। हुमायूं ने ईरान की ताजियादारी, अजादारी प्रथा को भारत में शुरू किया। हुमायूं छोटे-छोटे टुकड़ों में जमीन गांव, शहर वालों को इमाम हुसैन के फातिहा नियाज ताजियादारी के लिए दान दिया। जिस पर ताजिया रखी जाती थीं। जिस को हम आज इमाम चैक के नाम से जानते है। असल में यह हुमायंू का दिया हुआ स्थान है जो इमाम हुसैन के नियाज फातिहा व ताजियादारी के लिए प्रदान किया गया था। इमाम हुसैन की शान में लिखी एक कविता में इन स्थानों जिक्र मिलता है। अकबर के शासनकाल में भी ताजियादारी आम थी। अकबर का सेनापति बैरम अहले बैत का प्रेमी था। उसने इस्लामी झण्डा जिसे अलम कहा जाता है दान दिया। औरंगजेब के शासन काल में अजादारी, ताजियादारी होती रही। उनकी खुद की बेटी जैबुननिशा जिक्रे इमाम हुसैन की मजलिस में शामिल होती थी। मुहम्मद शाह के समय अजादारी चरम सीमा पर पहुंच गयी थी। हर शहर , कस्बे में जुलूस, अलम और ताजिया क जुलूस निकाले जाने लगे। दिल्ली के शहंशाहों ने दिल्ली मंे इमामबाड़ा बनाया जिसको मजलिस खाना कहते है। भारत के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर जब बीमार हुए तो उन्होंने कसम खाई कि उनकी सेहत सुधर जाती है तो वह शुद्ध सोने से हजरत अब्बास के नाम का अलम बनवायेंगे। सेहत में सुधार के बाद सोने का अलम बनवाया।

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