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*जब सुल्तान फिरोज शाह तुगलक आया गोरखपुर तो राजा ने दिया दो हाथी का तोहफा*

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*इतिहास का पन्ना* गोरखपुर। गोरखपुर-परिक्षेत्र का इतिहास खण्ड प्रथम में डा. दानपाल सिंह पेज नं. 36 व 37 पर लिखते हैं कि तुगलवंश के सुल्तान *फिरोजशाह तुगलक* बंगाल के सूबेदार शम्सुद्दीन इलियास शाह की बगावत दबाने के लिए एक बड़ी सेना लेकर (सन् 1353 ई.) सरयू के रास्ते से बंगाल गये। *फरिश्ता* के अनुसार इस यात्रा क्रम में सुल्तान फिरोजशाह तुगलक गोरखपुर आया। जहां स्थानीय राजाओं व जमींदारों ने उसका स्वागत किया। फिरोजशाह इनके स्वागत से खुश हुआ। अत: उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि यहां के किसी गांव तथा उसके निवासियों अथवा पशुओं को छति न पहुंचायें। उदयसिंह नामक राजा को मुकद्म की उपाधि दी गयी तथा उसने सुल्तान को दो हाथी और दूसरे तोहफे समर्पित किए। स्थानीय शासकों ने इलियास शाह के ऊपर आक्रमण में फिरोजशाह का साथ दिया। *बरनी* के अनुसार गोरखपुर का शासक ने अपने वर्षों का बकाया अपना  राजस्व अवध की सरकार में जमा किया। सतासी राज्य के एक बाबू चवरिया के गुरू प्रसाद सिंह श्रीनेत को वह अपने साथ बंगाल की लड़ाई पर भी ले गया।

*गोरखपुर - जानिए हजरत शाह मारूफ का इतिहास*

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गोरखपुर। सूफी वहीदुल हसन की किताब 'मसायख-ए-गोरखपुर' के पेज नं. 33, 34 व 35 पर हजरत सैयद शाह मारूफ अलैहिर्रहमां का जिक्र है। वह लिखते हैं कि इस शहर के मशहूर रईसों में रईस बुजुर्ग और शेखे तरीकत हजरत सैयद शाह मारूफ अलैहिर्रहमां भी गुजरे हैं। आपका हसब व नसब 28 वास्ते से हजरत जाफर तय्यार रजियल्लाहु अन्हु से जा मिलता है। आपके वालिद मोहतरम हजरत सैयद शाह अब्दुर्रहमान अलैहिर्रहमां बादशाह मुअज्जम शाह के शासनकाल में गोरखपुर तशरीफ लाए और यहीं बस गये। आज तक आपकी औलादों का सिलसिला जारी व सारी है। हजरत सैयद शाह मारूफ का सिलसिले में हजरत सैयद शाह बायजीद अलैहिर्रहमां, हजरत ख्वाजा सैयद महमूद अलैहिर्रहमां, हजरत शाह सैयद रहीमुल्लाह, हजरत सैयद शाह फतह अली, सैयद मौलवी फजले अजीम, हजरत शाह सैयद मो. मसाहिब वगैरह जय्यद बुजुर्ग और अल्लाह वाले सज्जादानशीन और मसायख-ए-तरीकत हुए हैं। हजरत सैयद शाह मारूफ को जुमाला सलासिल में इजाजत व खिलाफत थीं। मुहल्ले का नाम भी आपके ही की जात से मशहूर व मंसूब है। इसे मुहल्ला शाह मारूफ ही कह कर गोरखपुर के लोग पुकारते हैं। आपके बेशुमार मुरीद थे। आवाम को आपके दौर में इस्लाहे...

*Exclusive - गोरखपर - पहाड़पुर की मस्जिद में है 135 साल से दो अज़ीम बुजुर्ग हजरत सैयद अब्दुल्लाह शाह व हजरत सैयद अब्दुर्रज़्ज़ाक की मजार*

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गोरखपुर। इमामुत तरीकत हजरत ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंद अलैहिर्रहमां के सिलसिले को फरोग देने वाले और दीने इस्लाम की तबलीग करने वाले आरिफ बिल्लाह हजरत सैयद अब्दुल्लाह शाह अलैहिर्रहमां ने मुहल्ला काजीपुर खुर्द को अपना मरकज बनाया। आप जिला छपरा बिहार के रहने वाले थे। इस मुहल्ले में शरीफुन नस्ल रईस और घोड़ों के एक ताजिर बगर्जें तिजारत  आबाद थे। तिजारत का मरकज यही मुहल्ला था। ताजिर साहब की तीन साहबजादियां थीं। एक का निकाह मोहसिनुल मुल्क हैदराबाद दक्कन के साथ हुआ। दूसरी लड़की हजरत सैयद अब्दुल्लाह शाह के निकाह में आयीं और तीसरी किसी आली खानदान में ब्याहीं गयी। शेखे तरीकत हजरत अब्दुल्लाह शाह का आना जाना और गोरखपुर में बस जाना शादी के ही सबब से हुआ। जवानी के आलम में रुझान तनवीरे बातिन की तरफ था ही कि एक अल्लाह वाले जिनका नाम हजरत शाह इबादुल्लाह था आपको मिल गए। जल्दी ही तस्फी-ए-कल्ब व तजकी-ए-नफ्स में कामयाबी हासिल कर ली। साहिबे इस्तेदाद होने की वजह से फजले इलाही हुआ और पीरो मुर्शीद से खिलाफत मिली। मसनद रुसदो हिदायत पर जलवा अफरोज हुए। सैकड़ों को हिदायत मिली और बहुत से लोगों ने सिराते मुस्तकीम पा...

*गोरखपुर के रहमतनगर की दरगाह हजरत मोहम्मद अली बहादुर शाह अलैहिर्रहमां 110 साल पुरानी है*

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मसायख-ए-गोरखपुर के लेखक सूफी वहीदुल हसन ने पेज 68, 69 व 70 पर लिखा है कि मसायख-ए-इजाम और सुफिया किराम की जिंदगियों को अगर करीब से देखा जाये तो यह बात वाजे होकर सामने आती है कि इन बुजुर्गों ने दीने मुस्तफा सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम को फरोग देने में अपना माल व मताअ राहे हक में लुटा दिया। दुनिया को हेच समझा और अगर जरुरत पड़ी तो वतन को भी खैराबाद कहा। चुनांचे हकीकत से आशना, इल्मे लदुन्नी से आरास्तां शेखे तरीकत हजरत मोहम्मद अली बहादुर शाह अलैहिर्रहमां अपने पीरो मुर्शिद हजरत शेख सैयद जमाल शाह  (जमालुल्लाह) अलैहिर्रहमां के हुक्म से अपना आबाई वतन रामपुर छोड़कर गोरखपुर तशरीफ लाये और मुहल्ला रहमतनगर में कयाम पजीद हुए। मुहल्ला रहमतनगर की किस्मत जाग उठी और यहां अल्लाहु की सदा बुलंद होने लगी। आज भी मदरसा बहादुरिया का बोर्ड बताना चाहता है कि वह कौन सी अजीम हस्ती थी जिसने अंधेरे से अंजान इंसान को उजाले में कर दिया। आपकी सिलसिला चिश्तिया निजामिया था। आपकी जात से मंसूब होकर यह सिलसिला चिश्तिया निजामिया बहादुरिया हो गया। आज तक बहादुरिया शाख फल फूल रही है। मुरीदों की तादाद का कोई शुमार नहीं था। बहु...

*जानिए गोरखपुर के सूफी हाता का इतिहास*

शहर गोरखपुर में एक मशहूर मुहल्ला तिवारीपुर (औलिया चक) है। इसी मुहल्ले में सूफी साहब का आहाता भी बहुत मशहूर है। इसमें बहुत से मकानात नजर आते हैं और आबादी भी अब घनी हो गई है। एक जमाना था कि यह अाहाता *हजरत सूफी मोहम्मद महमूद खां अलैहिर्रहमां* की जात बाबरकात से आपकी इबादत व रियाजत से मुनव्वर था। आप अपने जमाने के मशहूर व मारूफ सूफी थे और इसी निस्बत से इस क्षेत्र को सूफी साहब का आहाता भी कहा जाता है। सूफी साहब का आबाई वतन नजीबाबाद बिजनौर था। आपके वालिद का नाम लतीफुल्लाह खां था। गोरखपुर आने का सबब रेलवे की नौकरी थी फिर यहीं आबाद हो गए। सूफी साहब हजरत शाह मोहम्मद हुसैन अलैहिर्रहमां से मुरीद हुए। आपके पीरो मुर्शीद मुरादाबाद के रहने वाले थे। काफी मुजाहिदा और रियाजत के बाद आपको अपने पीरो मुर्शीद से इजाजत व खिलाफत मिली। आपका सिलसिला चिश्तिया साबिरीया था। आपकी शादी मेंहदी अली खां की बेटी से हुई। आपके ससुर एक अच्छे शायर थे। सूफी साहब साहिबे हाल बुजुर्ग थे। आप अच्छे वक्ता सच्चे आशिके रसूल थे। बकसरत दरूद शरीफ व सलाम पढ़ने वालों में थे। सिमां के शौकीन थे। मिलाद पढ़ने का बड़ा शौक था। आपकी शोहरत का स...

*गोरखपुर - 105 साल पुरानी है खरादी टोला (तुर्कमानपुर) की दरगाह हजरत हाजी सैयद जमाल शाह अलैहिर्रहमां व मस्जिद*

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गोरखपुर। मसायख-ए-गोरखपुर के लेखक सूफी वहीदुल हसन अपनी किताब के पेद 64 व 65 पर लिखते हैं कि मुहल्ला खरादी टोला (तुर्कमानपुर) में एक आबिद, मुत्तकी, खूबसूरत, तरीकत और मारफत के रहनुमा हजरत हाजी सैयद जमाल शाह अलैहिर्रहमां हुए हैं। अपने जमाने के कामिल बुजुर्ग थे। अच्छे जाकिर थे। आपका सिलसिला कादरिया नक्शबंदिया था। इसके अलावा दूसरे और सिलसिलों में भी इजाजत व खिलाफत थी। इस शहर के साहिबे इल्म व अमल आपकी सोहबत में रहा करते थे। शहर के बहुत लोग मुरीद थे। आलिमे दीन होने के साथ साथ इल्म, मारफत व हकीकत के भी माहिर थे। मिलाद शरीफ की महफिल के बहुत शौकीन थे। शब बेदार थे। हजरत हाजी सैयद जमाल शाह का विसाल 21 शव्वाल 1335 हिजरी को हुआ। मजारे अकदस मुहल्ला खरादीटोला में आप ही की बनवायीं हुई मस्जिद के बगल में है। इस मजार से फैज जारी है। मजार के फाटक पर हजरत आरिफ साहब का कताअ व तारीख विसाल लिखा हुआ है।  हर साल आपका उर्स मनाया जाता है। जो 21 शव्वाल को होता है। उर्स की तकरीबात की तफसील कुछ यूं है - सुबह को बाद नमाज फज्र कुरआन ख्वानी और बाद फातिहा और तकसीमे तबर्रुक। दोपहर को चने की दाल और तंदूरी रोटियां आवाम...

*गोरखपुर शहर में हैं तीन हजरत बल*

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फाइल फोटो तीन साल पुरानी है दीवान बाजार व छोटेकाजीपुर की गोरखपुर। जम्मू-कश्मीर स्थित हजरत बल दरगाह में रखे मूए मुबारक (पैगम्बर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम  के पवित्र बाल) की जियारत (दर्शन) की तमन्ना है लेकिन जा नहीं पा रहे है। ऐसे अकीदतमंदों को निराश होने की जरूरत नहीं है। गोरखपुर के तीन हजरत बल में रखे मुए मुबारक (पैगम्बर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के पवित्र बाल) की जियारत कर अकीदतमंद फैजयाब हो सकते है। ना मिस्र, तुर्की के म्यूजियम में जाने की जरूरत और ना ही सोशल साइट्स पर। शहर में तीन हजरत बल है। जिसमें पांच मूए मुबारक सैकड़ों सालों से रखे हुये है। यह हजरत बल शहर के दीवान बाजार, छोटे काजीपुर, बड़े काजीपुर में मौजूद है। इसकी जियारत (दर्शन) साल में एक बार अकीदतमंदों को करायी जाती है। बारह रबीउल अव्वल शरीफ यानी पैगम्बर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के यौमे पैदाइश की तारीख के मौके पर जियारत की जा सकती है। जियारत के बाद इस पूरे साल सुरक्षा में रख दिया जाता है। मुहल्ला दीवान बाजार में ख्वाजा सैयद अख्तर अली मरहूम के परिवार म...

Exclusive : *गोरखपुर में है 105 साल पुराना हाजी कादिर बख्श शाह का शानदार मकबरा*

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गोरखपुर। शहर के बनकटीचक मुहल्ले में 105 साल पुराना शानदार मकबरा है। जो उम्दा कारीगीरी का नमूना है। इस पर बने बेल बूटे लाजवाब है। इसे शानदार तरीके से बनाया गया है। इसका गुंबद दूर से ही इस मकबरे की खासियत बयां कर देता है। मकबरे की शोहरत की वजह से इससे जुड़ी मस्जिद को मकबरे वाली मस्जिद के नाम से जानी जाती है। यह एक बुजुर्ग हजरत हाजी कादिर बख्श शाह अलैहिर्रहमां का मकबरा है। जो गोरखपुर के बहुत बड़े बुजुर्ग गुजरे हैं। जिनका फैज आज भी जारी है। *मसायख-ए-गोरखपुर* के लेखक सूफी वहीदुल हसन पेज 44 व 45 पर लिखते है कि मुहल्ला बनकटीचक में खानदाने नक्शबंदिया मुजद्दीदिया के एक मशहूर व मारूफ शेखे तरीकत हजरत हाजी कादिर बख्श शाह हुए हैं। आप हजरत बख्शुल्लाह अलैहिर्रहमां के मुरीद थे। आपके पीरो मुर्शीद मौजा नागपुर जिला फैजाबाद के रहने वाले थे। हजरत हाजी बख्श के बेशुमार मुरीद थे। तकवा और इबादत में आप अपनी मिसाल थे। खानदाने नक्शबंदिया को इतना फरोग दिया कि आपके मुरीदीन का सिलसिला पूरे बंगाल में फैल गया। यह सिलसिला ढ़ाका व कुमलिया में अब भी जारी व सारी है। आपके खलीफा में महिसपुर साहब जिला कोमिल्लिया बांगलादेश ...

*जब गोरखपुर में अफगानों ने खदेड़ा मुगलिया सेना को*

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*गोरखपुर के इतिहास का पन्ना* गोरखपुर। सन् 1567 ई. में उजबेगों का पीछा करने के दौरान टोडरमल तथा फिदाई खां के नेतृत्व में मुगल सेना गोरखपुर तक आ पहुंचीं। धुरियापार के राजा ने आत्मसमर्पण किया। मझौली के राजा भीममल्ल ने भी मुगलों की आधीनता स्वीकार कर ली। मुगल सेना राप्ती नदी के सहारे गोरखपुर पहुंची। सतासी राज्य पर सुजान सिंह का शासन था। जिनकी राजधानी गोरखपुर में थी। मुगल सेना से सुजान सिंह लड़े और हार गए। सुजान सिंह को गोरखपुर छोड़ना पड़ा उन्होंने अपनी राजधानी भौवापार बना ली। मुगलों ने गोरखपुर में छावनी कायम की। पूरे जिले पर मुगलों का कब्जा हुआ। *राजा टोडरमल ने बाबा गोरखनाथ की समाधि स्थल एवं फिदाई खां ने एक मस्जिद बनवायी*। जौनपुर के विद्रोही उजबेग खान जमन की पराजय तथा मौत के बाद अकबर ने जौनपुर की जागीर मुनीम खां को प्रदान कर दी। मुनीम खां ने पायन्दा महमूद बंगश को गोरखपुर में अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया। इसी बीच में स्थानीय क्षत्रिय राजवंशों ने एक बार पुन: अफगानों की सहायता से मुगल सत्ता को उखाड़ फेंका (यानी गोरखपुर में अफगानी सेना आयी)। गोरखपुर में अफगानहाता गालिबन उन्हीं अफगान सेना के...

*गोरखपुर का तीन मेहराबों वाला हाकिम खाना व खलीलाबाद का किला एक जैसे हैं*

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गोरखपुर। एस0एम0नूरूद्दीन लिखते हैं ऐतिहासिक इमारत के मेहराब के अगल बगल दो छोटे मेहराब हैं जिसमें जंगले लगे हुए हैं। इसके पट अंदर कोठरी में खुलते है। प्रवेश द्वार के दाएं एवं बाएं इन कोठरियों में जाने के लिए लकड़ी के दरवाजे लगे हुए हैं। मुख्य द्वार अर्थात बड़े मेहराब और उसके दाएं एवं बाएं स्थित कोठरियों से होकर षटकोणीय खंभे है जो तीन खंडों में है और लगभग 40 फीट ऊंचें हैं। मुख्य द्वार के ऊपर की इमारत *हाकिम खाना* कही जाती है। इस इमारत में तीन मेहराब है। मध्य का मेहराब बड़ा और उसके दाएं एवं बाएं के मेहराब छोटे हैं, ये तीनों मेहराब जंगले के रुप में है। इसके ऊपर दीवार पर है शीर्ष बुर्ज। इसी तरह दोनों खंभों पर भी बुर्ज बने हुए हैं। हाकिम खाना के ठीक ऊपर पत्थर की तख्ती लगी हुई है जिस पर इस इमारत का निर्माण काल सन् 1841 ई. के साथ ही ई0ए0 रीड साहब तत्कालीन डीएम का नाम भी अंकित है। यह नक्शा है उस ऐतिहासिक इमारत का जिसे लोग रीड साहब धर्मशाला के नाम से  जानते है। धर्मशाला रीड साहब दूर से किले की तरह नजर आता है। पश्चिम तरफ है धर्मशाला का मुख्य द्वार। हाकिम खाना में जाने के लिए धर्मशाले के प...

*Exclusive : गोरखपुर - पुराने जमाने में बाशिंदों व बुजुर्गों के मजारात के हालात*

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गोरखपुर। *'तारीख मुअज्जमाबाद*' 28 पन्नों की किताब है। किताब पर लेखक का नाम नहीं छपा है। यह किताब लखनऊ से छपी है। यह मई सन् 1874 ई. की छपी हुई है। यह किताब फारसी में है। इस किताब में सिर्फ सन् 1804 ई. तक के वाकयात दर्ज है। इसका अनुवाद उर्दू में मरहूम डा. अहमर लारी ने किया है। यह एक अहम किताब है। इस किताब से मुस्लिम दौरे हुकूमत के बारे में चंद नई बातें मालूम होती हैं। हजरत सैयद सालार मसूद गाजी अलैहिर्रहमां के गोरखपुर से ताल्लुक पर गालिबन सबसे पहले इसी किताब में रोशनी डाली गयी है और शहर गोरखपुर और आस-पास के इलाकों में बिखरे हुए शहीदों के मजारात को उन्हीं की हुकूमत से मंसूब (जोड़ा) किया गया है। *तारीख मुअज्जमाबाद* में लिखा है कि गोरखपुर में झीलें और नाले इतनी कसरत से हैं कि बरसात के दिनों में सैलाब की तुगयानी की वजह से एक मकाम (स्थान) से दूसरे मकाम तक कश्ती पर सवार होकर जाना पड़ता है। यह शहर दो तरफ से दरिया से और दो तरफ जंगल से घिरा हुआ है। जंगली दरख्तों और बागों की कसरत है। खैर। मुसलमानों में सबसे पहले हजरत सैयद सालार मसूद गाजी अलैहिर्रहमां इस मुल्क (यानी गोरखपुर और आसपास) के हु...

*गोरखपुर की इस ऐतिहासिक इमारत पर 47 साल तक तवायफों का कब्जा था*

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*क्या आपको पता है यहां दीवानखाना था, रसालघर भी था* गोरखपुर। ऐतिहासिक बसंत सराय ने बदनामी के 47 साल देखें। बात उस समय की है जब बिगडे़ रईसजादों ने इसे तवायफों की बस्ती बना दिया। पायल की झंकार, घुघंरूओं के मीठे बोल और संगीत के सुरों का जादू हर सिम्त छाने लगा। राग-रंग के माहौल ने अंगड़ाई ली, तो महफिलें सजनें लगी। शैदाईयों का हुजूम बढ़ने लगा। रात जवां होते ही अपने आगोश में तबलें की थाप और घुंघरूओं की आवाज को जकड़ने लगी। रियाज खैराबादी के अखबार 'फितना-इतरे-फितना' में बसंतपुर  सराय की कुछ खास तवायफों का जिक्र है। इस समाचार पत्र का प्रकाशन सन् 1882 ई. में हुआ था। इसके साथ ही रियाज खैराबादी का एक और अखबार 'रियाजुल अखबार' गोरखुपर से सन् 1881 ई. में प्रकाशित हुआ। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बसंतपुर सराय के मालिक मीर इमदाद अली थे। वह संगीत के कद्र दान थे। इनके समय में कुछ लखनऊ के घराने के प्रतिनिधियों का परिवार गोरखपुर में आया। मीर इमदाद अली ने इन परिवारों को पूरा संरक्षण दिया। ये परिवार बसंतपुर सराय में रहने लगे। इन परिवारों में तीन सगे भाई हशमत अली, आगा अली, खुर्शीद अली ओर...

*गोरखपुर में डोमिनगढ़ सल्तनत थी जिसे राजा चंद्र सेन ने नेस्तोनाबूद किया*

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*जब शेख सनाउल्लाह आये राजा को पकड़ने* *राजा चंद्र सेन ने रामगढ़ताल के किनारे दुर्ग (किला) बनवाया था* गोरखपुर-परिक्षेत्र का इतिहास के लेखक डा. दानपाल सिंह लिखते हैं कि मध्यगुम के आरम्भ में रोहिणी व राप्ती नदी के मध्यवर्ती द्वीप स्थल पर डोमिनगढ़ की स्थापना हुई। सन् 1210 - 1226 ई. में राजा चन्द्र सेन ने डोमिनगढ़ राज्य पर विजय प्राप्त की। उस समय तक गोरखपुर शहर नहीं बसा था। डोमिनगढ़ सतासी राज्य का समीपवर्ती एक प्रमुख नगर एवं गढ़ था। राजा चन्द्रसेन ने डोमिनगढ़ पर आक्रमण किया। डोमिनगढ़ का किला बहुत मजबूत और प्राकृतिक साधनों द्वारा पूर्ण सुरक्षित था। डोमकटार पहले से संशाकित थे, उन्होंने पर्याप्त सैनिक तैयारी भी कर ली थी। किले में महीनों खाने-पीने की सामग्री रख ली गयी थी। डोमकटारों ने कई दिनों तक जमकर युद्ध किया। पराजय नजदीक देखकर डोमकटार राजा सुरक्षात्मक मुद्रा में आ गया तथा अपने बचे हुए सैनिकों के साथ किले के अंदर फाटक बंद कर बैठ गया। राजा चन्द्रसेन ने किले को ध्वस्त करने की आज्ञा दे दी। देखते ही देखते सतासी राज के सैनिकों (राजा चन्द्रसेन) ने दुर्गम किले को ध्वस्त कर दिया तथा उसमें छिप...

गोरखपुर : जब मुगलिया सल्तनत का सूरज हुआ उदय, योग्य सेनानायक काजी खलीलुर्रहमान के जरिए

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***नौ किलोमीटर लंबी है शाही सुरंग 25 सितंबर 2018 (सैयद फरहान अहमद) -इतिहास के पन्ने -मुगलों की गोरखपुर परिक्षेत्र में दिलचस्पी -गोरखपुर परिक्षेत्र का इतिहास के लेखक डा. दानपाल सिंह ने लिखा है कि बादशाह अकबर ने अपने समय में गोरखपुर (उस समय मगहर भी इसमें शामिल था) की शासन व्यवस्था को नियमित कर दिया था। सन् 1605 ई. में अकबर की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र नुरूद्दीन मोहम्मद जहांगीर बादशाह गाजी के नाम से मुगल साम्राज्य का शासक बना। बादशाह जहांगीर के शासन काल में (1605-1627 ई.) गोरखपुर शहर की प्रशासनिक व्यवस्था अफजल खां को दे दी गयी जो बिहार का शासक था। अफजल खां ने यहां पर अपना निवास स्थान बनाया। विद्रोह को दबाने के लिए अफजल खां का पटना वापस जाना पड़ा। सन् 1612 ई. में अफजल खां की मृत्यु के पश्चात् गोरखपुर की सैनिक छावनी कमजोर हो गयी। सतासी के राजा मुगलों से अपनी हार को भुला नहीं पाये थे। सतासी राजाओं ने बांसी के राजा से मिलकर गोरखपुर के मुगल साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। सतासी राजा रूद्र सिंह को फतह मिली। मुगल बादशाह औरंगजेब आलमगीर अलैहिर्रहमां को सत्ता सन् 1658 ई. में मिली। साम्राज्य ...

गोरखपुर में आज भी आबाद हैं पिंडारी

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गोरखपुर शहर में एक बहादुर कबीला पिंडारी आज भी आबाद है। जिसके बारे में कम लोग जानते हैं। पिंडारियों को अंग्रेजों से गोरखपुर (सिकरीगंज) व बस्ती (गनेशपुर) जिले में जागीरें मिलीं। गोरखपुर के मदीना मस्जिद रेती के सामने करीब 70 साल पुरानी पिंडारी बिल्डिंग आज भी मौजूद है जहां पहले इलाहाबाद बैंक था। पिंडारी सरदार के वारिसों की बिल्डिंग में ऊपर इलाहाबाद बैंक था, नीचे दुकानें। आज भी यहां पिंडारी आबाद हैं और हर क्षेत्र में तरक्की कर रहे हैं। पिंडारियों के सरदार करीम खां की मजार गोरखपुर जिले के सिकरीगंज में उनकी बहादुरी की प्रतीक बनी हुई है, जबकि उनके वारिस पूरी दिलेरी से दुनिया के साथ कदमताल कर रहे हैं। एक समझौते के तहत अंग्रेजों ने पिंडारियों के सरदार करीम खां को सन् 1820 ई. में सिकरीगंज में जागीर देकर बसाया था। सिकरीगंज कस्बे से सटे इमलीडीह खुर्द के ‘हाता नवाब’ से सरदार करीम खां ने अपनी नई जिंदगी शुरू की। इंतकाल के बाद वे यहीं दफनाए गए। शब-ए-बारात को सभी पिंडारी उनकी मजार पर फातिहा पढ़ने आते हैं। सरदार करीम खां की वंश बेल सिकरीगंज से आगे बढ़कर बस्ती और बाराबंकी तक फैल गई है। एक बार फिर बतात...

गोरखपुर के मोहल्लों के बारे में क्या आप जानते हैं? नहीं तो अब जान जाईए

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गोरखपुर - जानिए सन् 1860 ई. में  कौन था किस मुहल्ले का मालिक गोरखपुर। मियां साहब इमामबाड़ा के पहले सज्जादानशीन मरहूम सैयद अहमद अली शाह अपनी किताब 'महबूबुत तवारीख' में लिखते हैं कि उनके समय में नगर में 52 मुहल्ले एवं चक थे। 36 की तादाद में तालाब थे। कई बाग-बगीचे भी थे। सन् 1860-63 ई. में गोरखपुर नगर के कुछ मुहल्लों तथा उनके मालिकों के नाम इस प्रकार थे। जाफरा बाजार मुहल्ले के मालिक नवाजिश अली थे, उनके साथ एक हिस्सेदार रफीउद्दीन थे, जो इस क्षेत्र का कारोबार देखा करते थे। रफीउद्दीन चक इस्लाम के रईस थे, मगर वह जाफरा बाजार के हिस्सेदार भी थे। मुहल्ला कल्याणपुर के मालिक महाराजा सिंह थे। बिंद टोला की मालकिन अमीरन थीं। फकीरा खान मुहल्ला घोसीपुर के काबिज थे। इस तरह काजीपुर कला पर रईस असगर अली काबिज थे। मुहल्ला बुलाकीपुर के दो हिस्सेदार थे गोपी सहाय और बैजनाथ सिंह। मोहनलालपुर का मुहल्ला शिव गुलाम के पास था। सिधारीपुर में सद्दन पांडेय, दाऊदचक में मुहम्मद शरीफ और इलाहीबाग में जमीदार मजहर अली थे। यहां बतातें चलें कि सिधारीपुर का नाम सैयद आरिफपुर था, जो बाद में बिगड़कर और बदलकर सिधारीपुर प...

*गोरखपुर में जुमा की नमाज का वक्त* *Gorakhpur Mosque (Masjid)* *Sunni Hanafi Barelvi*

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*अहले सुन्नत व जमात (सुन्नी बरेलवी) मस्जिद* *हिजरी 1440 - सन् 2018 ई.* *आला हजरत जिंदाबाद* *मजद्दिदे दीनों मिल्लत आला हजरत इमाम अहमद रज़ा खां अलैहिर्रहमां का 100वां उर्स-ए-पाक मुबारक* *मुफ्ती-ए-आज़म जिंदाबाद* *हुजूर ताजुश्शरिया जिंदाबाद* *मसलके आला हजरत जिंदाबाद* 01. गाजी मस्जिद गाजी रौजा - 1:30 बजे (दोपहर) 02. मस्जिद ज़ामे नूर बहादुर शाह जफ़र कालोनी बहरामपुर - 1:30 बजे 03. अहमदी सुन्नी जामा मस्जिद सौदागर मोहल्ला बसंतपुर - 2:30 बजे 04. बहादुरिया जामा मस्जिद रहमतनगर - 1:30 बजे 05. मक्का मस्जिद मेवातीपुर दोपहर 1:20 बजे 06. बेलाल मस्जिद इमामबाड़ा अलहदादपुर - 1:00 बजे 07. नूरी जामा मस्जिद अहमदनगर चक्शा हुसैन - 12:45 बजे 08. सुब्हानिया जामा मस्जिद सूर्य विहार तकिया कवलदह - 1:15 बजे 09. सब्जपोश हाउस मस्जिद जाफराबाजार -1:30 बजे 10. गौसिया जामा मस्जिद छोटे काजीपुर - 12:40 बजे 11. दरगाह हजरत मुबारक खां शहीद मस्जिद नार्मल - 12:45 बजे 12. जामा मस्जिद मोती रसूलपुर दशहरी बाग - 12:40 बजे 13. गौसिया जामा मस्जिद मानबेला खास - 1:15 बजे 14. मियां साहब मस्जिद ...