*Exclusive : गोरखपुर - पुराने जमाने में बाशिंदों व बुजुर्गों के मजारात के हालात*
गोरखपुर। *'तारीख मुअज्जमाबाद*' 28 पन्नों की किताब है। किताब पर लेखक का नाम नहीं छपा है। यह किताब लखनऊ से छपी है। यह मई सन् 1874 ई. की छपी हुई है। यह किताब फारसी में है। इस किताब में सिर्फ सन् 1804 ई. तक के वाकयात दर्ज है। इसका अनुवाद उर्दू में मरहूम डा. अहमर लारी ने किया है। यह एक अहम किताब है। इस किताब से मुस्लिम दौरे हुकूमत के बारे में चंद नई बातें मालूम होती हैं। हजरत सैयद सालार मसूद गाजी अलैहिर्रहमां के गोरखपुर से ताल्लुक पर गालिबन सबसे पहले इसी किताब में रोशनी डाली गयी है और शहर गोरखपुर और आस-पास के इलाकों में बिखरे हुए शहीदों के मजारात को उन्हीं की हुकूमत से मंसूब (जोड़ा) किया गया है। *तारीख मुअज्जमाबाद* में लिखा है कि गोरखपुर में झीलें और नाले इतनी कसरत से हैं कि बरसात के दिनों में सैलाब की तुगयानी की वजह से एक मकाम (स्थान) से दूसरे मकाम तक कश्ती पर सवार होकर जाना पड़ता है। यह शहर दो तरफ से दरिया से और दो तरफ जंगल से घिरा हुआ है। जंगली दरख्तों और बागों की कसरत है। खैर। मुसलमानों में सबसे पहले हजरत सैयद सालार मसूद गाजी अलैहिर्रहमां इस मुल्क (यानी गोरखपुर और आसपास) के हुक्मरां हुए। उन्होंने इस मुल्क को फतह करके बनारस और जौनपुर तक सुल्तान महमूद गजनवी के नाम का खुतबा पढ़वाया और उनका सिक्का चलवाया। जब सन् 1030 ई. में महमूद गजनवी का गजनी में इंतकाल हो गया तो हिन्दुस्तान में बागावत हो गयी और कुछ लोग हजरत सैयद सालार से गुस्ताखी से पेश आने लगे और जब इसी साल उनके वालिद सैयद शाह मारूफ (सैयद साहू सालार) का इंतकाल हो गया, तो बगावत में और इजाफा हो गया। बहराइच में जंग हुई और सैयद सालार मसूद गाजी सन् 1033-34 ई. में शहीद हुए। उनके साथी व मुरीद जो यहां से बनारस तक फैले हुए थे। अपने-अपने मकाम पर एक-एक कर शहीद कर दिए गए और मुसलमानों से इस दयार (क्षेत्र) की हुकूमत चली गयी। किताब में सल्तनत व मुगलकाल के हुक्मरानों का जिक्र सन् और वाकया के साथ कसरत से है और अवध के नवाबों तक का भी जिक्र है।
किताब में लिखा है कि गोरखपुर के बाशिंदो में हिन्दुओं की तादाद ज्यादा है और मुसलमान कम हैं। यहां अकसर गांवों में राजपूतों और ब्राहमणों की जमींदारी है। इन कौमों के मुकाबले में दूसरी कौमें और मुसलमान चौथाई से कम हैं। चूंकि यह इलाका पहाड़ों के दामन में स्थित है इसलिए नामवर लोगों ने यहां ठहरना कम पसंद किया। यहां बहुत आलिम व दरवेश हुए हैं लेकिन ऐसा कोई आलिम नहीं हुए जिसका किताब में जिक्र किया जाए और कोई ऐसा बुजुर्ग नहीं गुजरा जिसके मजार की जियारत के लिए दूसरे जिले के लोग यहां आते हों। मगर इस शहर व आस-पास में चंद शहीदों की मजार बहुत मशहूर हैं, हालांकि उनकी शहादत का जिक्र किसी किताब में नहीं मिलता लेकिन हिन्दुस्तान के शहीदों के हालात के पेशे नजर यह अंदाजा होता है कि 421 हिजरी सन् 1030 ई. में सुल्तान महमूद गजनवी के भांजे हजरत सैयद सालार मसूद गाजी अलैहिर्रहमां जंग के लिए हिन्दुस्तान आए तो उनके साथ उनके साथी व मुरीद मुख्तलिफ जिलों व इलाकों में फैल गए। चार पांच साल के बाद जब सुल्तान महमूज गजनवीं की वफात की खबर फैली तो राजपूतों ने चारों तरफ बगावत कर दी और हजरत सैयद सालार मसूद गाजी अलैहिर्रहमां के साथी व मुरीद जहां कहीं थे वहीं शहीद कर दिए गए। गुमान गालिब है कि ये शोहदा (शहीद) भी उसी वक्त के है। हिन्दुओं में एक बुजुर्ग बाबा गोरखनाथ गुजरे हैं। जो मशहूर हैं। जमाना कदीम में मुस्लिम सूबेदारों ने रसूलपुर आबाद किया। बादशाह औरंगजेब के जमाने में नवाब फिदाई खां की सूबेदारी में पुराना गोरखपुर में मुफ्ती मुहम्मद हुसैन को बाग व मस्जिद के लिए जमीन मिली। बादशाह आलमगीर के बेटे मुअज्जम शाह के हुक्म से उस जगह जहां कचहरी निजामत है किला तामीर किया गया और शहर का नाम मुअज्जमाबाद रखा गया। इससे कब्ल बादशाह आलमगीर के दौरे हुकूमत में परगना मगहर के रहने वाले काजी खलीलुर्रहमान जो इस इलाके के रईस आदमियों में थे एक अर्से तक इसे जिले के हाकिम रहे। जमाना कदीम में इस शहर और उसके आसपास डोम कौम की हुकूमत थी। चुनांचे उनके किलों के निशान बैतालगढ़, रामगढ़, भेड़ियागढ़ व डोमिनगढ़ व उसके पास अब तक मौजूद है। गांवों में थारु कौम के लोग यानी पहाड़ी लोग रहते थे। जो आज भी पहाड़ के दामन में आबाद हैं। यहां थारु बाजार लगाते थे। मुस्लिम हाकिमों के कयाम के वक्त थारुओं का बाजार अहिस्ता-अहिस्ता खत्म हो गया। खैर।
*गोरखपुर के जंगलों में शेर कसरत से पाये जाते थे, छावनी व रेस कोर्स भी हुआ कायम*
जब पहले अंग्रेज कलेक्टर Routledge ने गोरखपुर में अपना सदर दफ्तर कायम किया तो कहा जाता है कि उन्होंने खेमों के गिर्द हाथियों का घेरा डाल रखा था ताकी शेरों के हमले से जो आसपास के जंगलों में कसरत से पाये जाते थे, महफूज रह सकें। एक दूसरी रवायत यह भी है कि खेमों के चारों तरफ आग जलायीं जाती थी ताकी जंगली हाथी करीब न आ सकें। पहले कचहरी कप्तानगंज मुहल्ले में थी, लेकिल गर्मी के दिनों में तमाम अफसरान पुराने किले में चले जाते थे क्योंकि मोटी दीवारों की वजह से वहां ठंडक रहती थी। सन् 1810 ई. में फौजी छावनी शहर के मशरिकी हिस्से में कायम की गयी। यहां के बाशिंदों ने फौजी छावनी के कयाम की मुखालफत की। ये लोग दरख्तों के काटे जाने के मुखालिफ थे। बड़ी मुश्किल से इतनी जमीन साफ की जा सकी कि फौजें परेड कर सकें और अफसरों की रिहाईश
का इंतजाम हो सके। यहां कायम मकाम कलेक्टर Roger Martin ने रेस कोर्स की बुनियाद डाली, जो गुजरे जमाने की चीज हो चुकी है। आगे जारी है ...सैयद फरहान अहमद - 27 सितंबर 2018
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