गोरखपुर : जब मुगलिया सल्तनत का सूरज हुआ उदय, योग्य सेनानायक काजी खलीलुर्रहमान के जरिए


***नौ किलोमीटर लंबी है शाही सुरंग
25 सितंबर 2018 (सैयद फरहान अहमद)
-इतिहास के पन्ने
-मुगलों की गोरखपुर परिक्षेत्र में दिलचस्पी

-गोरखपुर परिक्षेत्र का इतिहास के लेखक डा. दानपाल सिंह ने लिखा है कि बादशाह अकबर ने अपने समय में गोरखपुर (उस समय मगहर भी इसमें शामिल था) की शासन व्यवस्था को नियमित कर दिया था। सन् 1605 ई. में अकबर की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र नुरूद्दीन मोहम्मद जहांगीर बादशाह गाजी के नाम से मुगल साम्राज्य का शासक बना। बादशाह जहांगीर के शासन काल में (1605-1627 ई.) गोरखपुर शहर की प्रशासनिक व्यवस्था अफजल खां को दे दी गयी जो बिहार का शासक था। अफजल खां ने यहां पर अपना निवास स्थान बनाया। विद्रोह को दबाने के लिए अफजल खां का पटना वापस जाना पड़ा। सन् 1612 ई. में अफजल खां की मृत्यु के पश्चात् गोरखपुर की सैनिक छावनी कमजोर हो गयी। सतासी के राजा मुगलों से अपनी हार को भुला नहीं पाये थे। सतासी राजाओं ने बांसी के राजा से मिलकर गोरखपुर के मुगल साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। सतासी राजा रूद्र सिंह को फतह मिली। मुगल बादशाह औरंगजेब आलमगीर अलैहिर्रहमां को सत्ता सन् 1658 ई. में मिली। साम्राज्य विस्तार के क्रम में उन्होंने पूर्वी उत्तरी क्षेत्र में भी अपनी स्थिति मजबूत करने का प्रयास किया। गोरखपुर को अपने साम्राज्य का हिस्सा बनाने के लिए उन्होंने एक योग्य सेनानायक काजी खलीलुर्रहमान को गोरखपुर का चकलेदार नियुक्त किया तथा उनके नेतृत्व में एक विशाल सेना को गोरखपुर की तरफ भेजा जो अयोध्या होते हुए गोरखपुर की तरफ आगे बढ़ी। बादशाह जहांगीर के समय में श्रीनेत राजवंश की दो प्रमुख शाखाएं सतासी एवं बांसी की सम्मिलित सेना ने तत्कालीन मुगलों के साम्राज्य गोरखपुर परिक्षेत्र पर आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार कर लिया था। इसके पश्चात् आगमी लगभग सत्तर-पचहत्तर वर्षों तक इस परिक्षेत्र पर सतासी एवं बांसी के राजाओं का अधिकार रहा। इस समय बांसी राज्य की राजधानी मगहर में अवस्थापित थी। अयोध्या से गोरखपुर पर आक्रमण के क्रम में मुगल सेना ने पहला आक्रमण बांसी राज्य की राजधानी मगहर पर किया। बांसी के राज्य श्रीनेतों के राज्य की एक प्रमुख शाखा थी। जहां पर इस राजवंश के राजा राम सिंह का शासन था।  इन्होंने मुगलों से युद्ध का निर्णय लिया। यद्ध में बांसी की पराजय हुई तथा उनकी राजधानी मगहर पर मुगलों का अधिकार हो गया। राजा राम सिंह को पश्चिम की ओर हटना पड़ा, जहां उन्होंने नयी राजधानी बनायीं जो वर्तमान में भी बांसी के रूप में विद्यमान है। इसके बाद काजी खलीलुर्रहमान ने गोरखपुर के सतासी राज पर आक्रमण किया। इस समय सतासी का राजा गज सिंह था। युद्ध हुआ जिसमें मुगल सेना ने फतह पायीं। गोरखपुर पर अधिकार कर लेने के पश्चात् काजी खलीलुर्रहमान ने गोरखपुर में अपनी सत्ता मजबूत करने का प्रयत्न शुरू किया। उन्होंने गोरखपुर से अयोध्या तक एक सड़क बनवायी तथा गोरखपुर के लिए कुछ व्यवस्था कर, राजस्व वसूलने में सफलता प्राप्त की। सन् 1690 ई. में काजी खलीलुर्रहमान की मृत्यु के पश्चात् खानजहां बहादुर जफर जंग कोकलतास जो इलाहाबाद का सूबेदार था, के पुत्र हिम्मत खां को गोरखपुर का फौजदार तथा अवध का सूबेदार नियुक्त किया गया। तभी से गोरखपुर के फौजदार व अवध के सूबेदार का पद संयुक्त हो गया।
मुख्तसर तारीख गोरखपुर में डा. अहमर लारी ने लिखा है कि मुगल शहंशाह औरंगजेब ने सन् 1680 ई. के करीब काजी खलीलुर्रहमान का गोरखपुर का चकलेदार (हाकिम जिला) मुकर्रर किया। वह फौरन ही राजाओं को अपने अंडर रखने के लिए अयोध्या से एक बड़ी मुगलिया फौज के साथ रवाना हुए। उन्होंने बांसी के राजा को मगहर से बाहर निकाला और वहां फौजी चौकी कायम कर दी। उसके बाद सतासी के राजा रूद्र सिंह का निकाल बाहर किया और बसंत सिंह के किले मरम्मती तामीर करायी। जब वो पाबंदी के साथ मालगुजारी वसूल करने में कामयाब हो गये तो उन्होंने बस्ती में दरिया-ए-राप्ती के दाहिने किनारें पर खलीलाबाद आबाद किया और गोरखपुर से अयोध्या तक सड़क बनवायी। उस वक्त से गोरखपुर पर मुगलों की गिरफ्त कमजोर नहीं हुई। गोरखपुर के फौजदार के ओहदे को सूबा अवध के सूबेदार के ओहदे से अलग कर दिया गया। चुनांचे चिनकिलीच खां सन् 1707 ई. से सन् 1711 ई. में इस्तीफा देने के वक्त तक उन दोनों ओहदों पर फाइज रहें। वह अपनी किताब में एक जगह लिखते हैं कि मुअज़्ज़म शाह से कब्ल बादशाह औरंगजेब के दौरे हुकूमत में परगना मगहर के रहने वाले काजी खलीलुर्रहमान जो इस इलाके के मशहूर आदमियों में गिने जाते थे। एक अर्से तक इस जिले के चकलेदार रहे। यहां की बड़ी मस्जिद और किला में मौजूद गढ़ी उन्ही की बनवायी हुई है और मगहर के करीब खलीलाबाद उन्होंने आबाद किया। गोरखपुर की शाही जामा मस्जिद इन्हीं की देखरेख में बनीं। मुगल बादशाह मुअज़्ज़म शाह का जब गोरखपुर आगमन हुआ तो उन्होंने बसंतपुर सराय में बसंतपुर शाही मस्जिद की तामीर करवायी। हालांकि मस्जिद छोटी है लेकिन इसके दरो दीवार पर मुगलिया स्थापत्य कला की नक्काशी रची बसी हुई है। उस जमाने में दरिया-ए-राप्ती व्यापार का प्रमुख जरिया थी। व्यापारियों का ठहराव अक्सर बसंतपुर सराय में होता था, इसलिए मुगल बादशाह के हुक्म से मस्जिद की तामीर हुई। यह मस्जिद करीब तीन सौ साल से ज्यादा की हो चुकी है। मुअज़्ज़म शाह के नाम पर करीब सौ साल तक गोरखपुर का नाम मुअज़्ज़माबाद रहा। अंग्रेजों ने सन् 1801ई. में नाम तब्दील किया।
--शाही सुरंग
काजी खलीलुर्रहमान ने खलीलाबाद नगर बसाया। जिसे वर्ष 1997 में ज़िला मुख्यालय का दर्ज़ा मिला। खलीलुर्रहमान मुग़ल शासन काल में दिल्ली में रहते थे, जहां उनकी मुलाकात मुग़ल बादशाह औरंगजेब से हुई। खलीलुर्रहमान की बुद्धिमता से प्रभावित होकर औरंगजेब ने उन्हें गोरखपुर परिक्षेत्र का चकलेदार एवं क़ाज़ी नियुक्त कर दिया। खलीलुर्रहमान ने गोरखपुर और बस्ती के बीच खलीलाबाद कस्बा बसाया उन्होंने शाही किला बनवाया। किले के अंदर मस्जिद का निर्माण भी कराया गया। खलीलुर्रहमान ने अपने पुश्तैनी गांव मगहर स्थित जामा मस्जिद से शाही किले तक आने-जाने के लिए सुरंग मार्ग भी बनवाया जो नौ किलोमीटर लंबा और 15 फीट चौड़ा है। इसी रास्ते से वह अपनी टमटम पर बैठकर किले तक जाते थे और वहां फरियादियों की दिक्कतों को सुनकर इंसा़फ करते थे। किले और शाही रास्ते की सुरक्षा के लिए हर समय पहरेदारों की तैनाती रहती। गोरखपुर और बस्ती के बीच स्थित शाही किले खलीलाबाद को बारी (मुख्यालय) का दर्ज़ा हासिल था। मुग़ल शासनकाल में गोरखपुर का मुख्यालय खलीलाबाद ही था। खलीलाबाद जहां का तहां रह गया लेकिन गोरखपुर और बस्ती दोनों ही मंडल मुख्यालय बन चुके हैं। क़ाज़ी खलीलुर्रहमान की प्रसिद्धि इतनी फैली कि मगहर के एक मोहल्ले का नाम ही काजीपुर पड़ गया। क़ाज़ी खलीलुर्रहमान के वंशज आज भी अपने नाम के आगे क़ाज़ी शब्द जोड़ना नहीं भूलते हैं। क़ाज़ी का मतलब न्यायाधीश, जो उन्हें अपने ग़ौरवशाली अतीत की याद दिलाता है। उन्होंने शाही किले में एक मंदिर का निर्माण भी कराया। मुग़ल शासन काल का अंत होने के साथ ही खलीलाबाद का वैभव भी फीका पड़ने लगा। शाही किले पर क़ब्ज़ा करने के मकसद से अंग्रेजों ने आक्रमण किया लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी। इसमें कई लोग शहीद भी हुए जिन पर समूचा खलीलाबाद आज भी गर्व करता है। शाही किले के अंदर पूरब दिशा में पहले तहसील कार्यालय हुआ करता था, जो अब डाक बंगला के सामने स्थानांतरित हो चुका है। किले के पश्चिमी हिस्से में स्थापित मंदिर हिंदू समाज की आस्था का केंद्र है।
शाही किला वर्तमान समय में पुलिस कोतवाली में तब्दील हो चुका है। किले के पीछे के हिस्से में पूरब दिशा में निकास स्थान का स्वरूप बदलकर इसे कोतवाली में बदल दिया गया है। राजनीतिक उपेक्षा और प्रशासनिक लापरवाही से यह धरोहर नष्ट होने को है। मगहर से खलीलाबाद तक नौ किलोमीटर लंबे शाही मार्ग के अब अवशेष ही बचे हैं। शाही किला आज  दुर्दशा का शिकार है, इस सुरंग का हाल भी बुरा है। 50 एकड़ क्षेत्रफल में फैले भू-भाग में  क़ाज़ी खलीलुर्रहमान ने शाही किले, मस्जिद, मंदिर और पोखरे का निर्माण कराया था, जो उनकी कौमी एकता की विचारधारा को पुष्ट करता है। जाति धर्म से ऊपर उठकर क़ाज़ी खलीलुर्रहमान ने जो कार्य किए, वह इतिहास के पन्नों में उन्हें सदैव के लिए अमर कर गए हैं।

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