*गोरखपुर की इस ऐतिहासिक इमारत पर 47 साल तक तवायफों का कब्जा था*
*क्या आपको पता है यहां दीवानखाना था, रसालघर भी था*
गोरखपुर। ऐतिहासिक बसंत सराय ने बदनामी के 47 साल देखें। बात उस समय की है जब बिगडे़ रईसजादों ने इसे तवायफों की बस्ती बना दिया। पायल की झंकार, घुघंरूओं के मीठे बोल और संगीत के सुरों का जादू हर सिम्त छाने लगा। राग-रंग के माहौल ने अंगड़ाई ली, तो महफिलें सजनें लगी। शैदाईयों का हुजूम बढ़ने लगा। रात जवां होते ही अपने आगोश में तबलें की थाप और घुंघरूओं की आवाज को जकड़ने लगी। रियाज खैराबादी के अखबार 'फितना-इतरे-फितना' में बसंतपुर सराय की कुछ खास तवायफों का जिक्र है। इस समाचार पत्र का प्रकाशन सन् 1882 ई. में हुआ था। इसके साथ ही रियाज खैराबादी का एक और अखबार 'रियाजुल अखबार' गोरखुपर से सन् 1881 ई. में प्रकाशित हुआ। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बसंतपुर सराय के मालिक मीर इमदाद अली थे। वह संगीत के कद्र दान थे। इनके समय में कुछ लखनऊ के घराने के प्रतिनिधियों का परिवार गोरखपुर में आया। मीर इमदाद अली ने इन परिवारों को पूरा संरक्षण दिया। ये परिवार बसंतपुर सराय में रहने लगे। इन परिवारों में तीन सगे भाई हशमत अली, आगा अली, खुर्शीद अली ओर इनके चचेरे भाई मुंतजिम अली खां संगीत में पारंगत थे। सन् 1901 ई. में यहां बसाई गई तवायफों ने सन् 1947 ई. तक कब्जा जमाये रखा, फिर तवायफें खदेड़ दी गई। कुछ एक बची, बाद में वो भी चलीं गयीं।
*वो सजा देकर दूर जा बैठा*
*किससे पुछूं मेरी खता क्या है*
शायर का यह कलाम बसंतपुर सराय पर खूब वाजे बैठता है। बसंत सराय के हालात बेहद खस्ताहाल है। जगह-जगह दीवारों में दरारें आ गयी है। मुगलकाल के शासन काल के अलावा इसकी कभी मरम्मत नहीं हुई। एस0एम0नुरूद्दीन लिखते है कि 'महबूबुत्तवारीख' के लेखक सैयद अहमद अली शाह के अनुसार 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बसंतपुर मुहल्ले के मालिकों में राम प्रसाद, जीवन दास और गुरू बख्श नामों की चर्चा की है। बसंतपुर स्टेट के नाम से दो एकड़ सत्तर डिस्मिल जमीन राजा बसंत सिंह सतासी के अराजी में दर्ज है। मुगलों के दौर में बसंतपुर के जिस टुकड़ें को सौदागार मुहल्ला कहा जाता था और उसी नाम से आज भी मशहूर है उसी मुहल्ले में मौलवी जहीरूद्दीन का मकान है जो अतीत में *दीवानखाना के नाम से मशहूर था। दीवानखाना के पश्चिम तरफ इमारत *डोमखाना प्रथम जेल गोरखुपर है। जिसे मोती जेल के नाम से नाम जाना जाता है। यह राजा बसंत का महल था। जिसे अंग्रेजों ने तोप से उड़ाकर जेल में बदल दिया। बसंतपुर के दक्षिणी हिस्से में प्राचीन कुआं है और वहीं *रसालघर के नाम से एक मकान मौजूद है। वहीं रसालघर का मकबरा भी स्थित है।* *बसंतपुर का जो हिस्सा तकिया के नाम से मशहूर है। यहां हजरत सूफी मौलाना हाजी सैयद चराग अली शाह का मजार मौजूद है। इसके अलावा फकीर अब्दुल गफूर शाह की मजार भी बसंतपुर के नरकटिया में स्थित है। राजा बसंत सिंह सतासी के बसंतपुर स्टेट के नाम से जो अराजी दर्ज है उस स्थान पर लोग खेती का काम करते थे। यही मामू-भांजा की भी मजार हैं।* प्राचीन बसंतपुर मुहल्ले की पहचान है बसंत सराय दूर तक फैली हुई किले समान सराय की इमारत पर मुगलकालीन वास्तुकला की छाप है। सराय का विशाल मुख्य द्वारा पूरब की तरफ है। विशाल मेहराबनुमा द्वार के दाएं और बाएं एक पंक्ति में बड़े-बड़े ताक बने हुए है। ताकों के बगल में दोनों तरफ से मीनारों का सिलसिला है। इसके बाद है सराय की चौतरफ विशाल दीवारें। सराय के चारों कोनो पर षटकोणीय आकार के विशाल खंभे है। मुख्य द्वार में प्रवेश करने पर द्वार के मेहराब के दाएं और बाएं तरफ की एक कोठरी में हजरत बाबा सैयद नसीर शाह नाम के बुजुर्ग की मजार है। उत्तर जानिब का कमरा बाबा के खादिम की आरामगाह है।
सराय के अंदर प्रवेश करने पर द्वार के उत्तर और दक्षिण तरफ ऊपर छत पर जाने के लिए सीढ़ियां हैं। द्वार के ठीक सामने ऐतिहासिक मुगलिया शाही मस्जिद मौजूद है। सराय के चौतरफा 68 कमरे बने हुए है। सराय में स्थित प्रत्येक कमरे में एक खास तरह के लंबे आकार के छिद्र बने हुए है जो सराय की चौतरफा दीवारों में बाहर से स्पष्ट दिखाई देते है।
बसंतपुर सराय गोरखपुर के मध्यकालीन इतिहास का जीवंत दस्तावेज है। सतासी के राजा बसंत सिंह ने सन् 1610 में यहां बसंतपुर मुहल्ला बसाया था। जिसे बसंतपुर सराय का नाम दिया गया। हालांकि बसंतपुर सराय और बसंतपुर मुहल्ले के बसाएं जाने के समय को लेकर एक मत नहीं है लेकिन इस तथ्य से पर कोई विवाद नहीं है कि इसे सतासी के राजा बसंत सिंह ने स्थापित किया था। उस समय गोरखपुर पर उन्हीं का राज था। इतिहासकार राजबली पांडेय ने अपनी पुस्तक में कहा है कि श्रीनेता राजा बसंत सिंह ने अचिरावती राप्ती और रोहिणी नदी के संगम पर इस विशाल मजबूत दुर्ग का निमार्ण सन् 1417-1458 ई. में कराया था। बाद में मुगलों की पलटन यहां रही। 1801 ई. से ईस्ट इंडिया कम्पनी ने राप्ती नदी के जरिए तिजारत करने वालों के ठहरने के लिए इसे सराय के बतौर प्रयोग किया। तभी से इसे बसंतपुर सराय कहा जाने लगा। आजादी के बाद यह रैन बसेरा बन गयी।
गोरखपुर गजेटियर में कहा गया है कि अकबर के समय में गोरखपुर एक बड़ा कस्बा था। सन् 1610 ई. में राजा बसंत सिंह ने बसंतपुर मुहल्ला बसाया और एक बड़े किले का निमार्ण किया लेकिन जिस तारीख में इस इमारत का निर्माण हुआ उस समय सतासी के राजा रूद्र सिंह (सन् 1605-1655 ई.) का शासनकाल था। तारीख की किताबों में यही दर्ज है। लिहाजा यह तय है कि इस इमारत का निर्माण राजा बसंत सिंह ने नहीं करवाया। बसन्तपुर सराय के आस-पास के रहने वाले कुछ लोग इसे औरंगजेब के बेटे मुअज्जम शाह द्वारा बनाया बताते हैं लेकिन ऐतिहासिक तथ्य इनकी पुष्टि नहीं करते है। हालांकि गोरखुपर गजेटियर में इस इमारत का निर्माण काल सन् 1610 ई. लिखा हुआ है। वहीं सतासी के राजा बसंत सिंह (सन् 1417-1458 ई.) का शासन काल निर्माण से पहले खत्म हो चुका था। इतिहास की किताबें इसकी पुष्टि करती है। लिहाजा इस नतीजे पर पहुंचने में मतभेद है कि यह किला राजा सतासी बसंत सिंह ने सन् 1610 ई. में बनवाया क्योंकि उनका शासन काल तो इस निर्माण से पहले ही समाप्त हो गया था। पुरातत्व विभाग के मुताबिक यह इमारत 405 वर्ष पुरानी है। इस लिहाज से यह इमारत चूंकि राजा बसंत सिंह के शासनकाल से भिन्न वर्ष में बनी इसलिए इसे राजा बसंत सिंह द्वारा निर्माण कराया जाना तथ्य विहीन है। हो सकता है राजा बसंत का मोती महल वह इमारत हो जिसका जिक्र इतिहासकारों ने अपनी किताबों में किया है। जिसे गोरखपुर की प्रथम जेल कहा जाता है। चूंकि मुगल शासनकाल में सरायों का निमार्ण होता रहा है। बसंतपुर सराय का अवलोकन करने पर यह बात स्पष्ट रूप से नजर आयेगी कि सराय के जर्रे-जर्रे पर मुगल वास्तु कला की छाप है। आगे चलिए उस समय जो हिन्दू राजा कोई भी निमार्ण कार्य करते थे उसमे हर दरोदिवार पर देवी-देवताओं के चित्र या मूर्तियां जरूर बनी रहती थी। इतिहासकारों में भी इस किले के निमार्ण में मतभेद है। खैर । लोगों का तर्क यह भी है कि मुअज्जम शाह 17 वीं ईसवीं के अंत में गोरखपुर आया था और तब तक बसंतपुर मुहल्ला और बसंतपुर किला अस्तित्व में था। यह जिक्र भी जरूर मिलता है कि औरंगजेब द्वारा सन् 1680 ई. में नियुक्त किए गए चकलेदार काजी खलीलुर्रहमान अयोध्या से एक बड़ी फौज लेकर गोरखपुर आये थे और गोरखपुर से राजा सतासी को बेदखलकर यहां फौजी चौकी बनवायीं। उसने बसंतपुर के किले की मरम्मत भी करायीं। बहादुर शाह मुअज्जम शाह के यहां आने के बाद ही गोरखपुर का नाम कुछ समय के लिए मुअज्जमाबाद रखा गया और सभी सरकारी रिकार्डों में यह नाम दर्ज हुआ। सन् 1801 ई. में अवध के तत्कालीन नवाब सआदत अली खान ने इस क्षेत्र को ईस्ट इंडिया कम्पनी के हवाले कर दिया। इसके बाद सिविल स्टेशन कप्तानगंज में बना लेकिन गर्मियों के दिनों में अंग्रेज अफसर इसी बसंतपुर सराय में रहने के लिए आ जाते थे। बसंतपुर करीब तीन एकड़ में है और इसमें 68 कोठिरयां है। करीब
सन् 1970 से 1975 ई. के बीच सराय में शहर के गरीब आकर बसे। अाज भी बसंतपुर से यही सदा निकलती है।
*भूल जाना मुझे आसान नहीं है इतना। जब मुझे भुलना चाहोगे तो याद आऊंगी*
*गोरखपुर के बारे में रियाज खैराबादी*
*हुई है मेरी जवानी फिदा-ए-गोरखपुर*
*लहद से आएगी आवाज हाए गोरखपुर*
*अवध की शाम बनारस की सुबह सदके हो*
*कि एक जहां से जुदा है अदा-ए-गोरखपुर*
*और*
*जवानी जिनमें खोई है वह गलियां याद आती हैं*
*बड़ी हसरत से लब पर जिक्रे गोरखपुर आता है*
*और*
*पुकारती है यही दिलफरेबियां इसकी*
*कि आके हो जिसे जाना न आए गोरखपुर*
*हम अपने खूने तमन्ना से सींच आए हैं*
*हसीं लगाएं मंगाकर हिनाए गोरखपुर*
Behad malumati mazmoon ماشاءاللہ
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