*गोरखपुर शहर में हैं तीन हजरत बल*
फाइल फोटो तीन साल पुरानी है दीवान बाजार व छोटेकाजीपुर की
गोरखपुर। जम्मू-कश्मीर स्थित हजरत बल दरगाह में रखे मूए मुबारक (पैगम्बर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के पवित्र बाल) की जियारत (दर्शन) की तमन्ना है लेकिन जा नहीं पा रहे है। ऐसे अकीदतमंदों को निराश होने की जरूरत नहीं है। गोरखपुर के तीन हजरत बल में रखे मुए मुबारक (पैगम्बर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के पवित्र बाल) की जियारत कर अकीदतमंद फैजयाब हो सकते है। ना मिस्र, तुर्की के म्यूजियम में जाने की जरूरत और ना ही सोशल साइट्स पर।
शहर में तीन हजरत बल है। जिसमें पांच मूए मुबारक सैकड़ों सालों से रखे हुये है। यह हजरत बल शहर के दीवान बाजार, छोटे काजीपुर, बड़े काजीपुर में मौजूद है। इसकी जियारत (दर्शन) साल में एक बार अकीदतमंदों को करायी जाती है। बारह रबीउल अव्वल शरीफ यानी पैगम्बर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के यौमे पैदाइश की तारीख के मौके पर जियारत की जा सकती है। जियारत के बाद इस पूरे साल सुरक्षा में रख दिया जाता है।
मुहल्ला दीवान बाजार में ख्वाजा सैयद अख्तर अली मरहूम के परिवार में जो मूए मुबारक है उसकी जियारत रबीउल अव्वल शरीफ के पहले रविवार को दोपहर की नमाज के बाद करायी जाती है। यहां पर दो मूए मुबारक रखे हुये है। दीवान बाजार में ख्वाजा सैयद अख्तर अली मरहूम के परिवार में मूए मुबारक को उनके दादा सैयद सज्जाद अली मुगल शासन काल में कश्मीर से लाए थे। वह इत्र के कारोबारी थे। सैयद सज्जाद अली के बाद उनके पुत्र ख्वाजा सैयद इमदाद अली फिर ख्वाजा सैयद फसाहत अली और इनके पुत्र सैयद अख्तर अली इसकी देखभाल करते रहे। नस्ल दर नस्ल उनके पुत्र मूए मुबारक की जियारत रबीउल अव्वल शरीफ के प्रथम रविवार को कराते रहे। सैयद अख्तर के इंतकाल के बाद जियारत उनके भांजे कलीम कराते थे। अब यह काम सैयद अख्तर केे पुत्र ख्वाजा सैयद नासिर अली के जिम्मे है। एक खास कमरे में लकड़ी की बक्शे के अंदर एक दूसरा बक्शा है। जिसके अंदर चांदी की छोटी संदूकची है। जिसमें तह बा तह गिलाफ में लिपटी शीशी के अंदर मूए मुबारक है। दरूद व सलाम पढ़ते हुए अकीदतमंदों के सामने कुछ देर के लिए मूए मुबारक की जियारत करायी जाती है।
मुहल्ला बडे़ काजीपुर में डा. सकलैन के घर पास शाह मुहम्मद अबरारूल हक के परिवार में मौजूद मूए मुबारक की जियारत और उसका गुस्ल 12 रबीउल अव्वल शरीफ को बाद नमाज-ए-जोहर मिलाद शरीफ के पश्चात् कराया जाता है। यहां पर पैगम्बर साहब का एक मूए मुबारक है। गुस्ल व मूए मुबारक की जियारत शाह मुहम्मद अबरारूल हक कराते थे। जिनका इंतकाल हो चुका है। उनके परदादा मख्दमू हजरत मोहम्मद मुकीम शाह रहमतुल्लाह अलैह आज से करीब तीन सौ साल पहले बल्ख या बुखारा से हिन्दुस्तान आये। वहां पर एक बुजुर्ग ने उन्हें एक प्याला और शीशी में मुबारक देकर कहा कि यह आपकी अमानत है। उन्होंने दरयाफ्त कि आपकी तारीफ। बुजुर्ग ने कहा खिज्र। फिर गायब हो गये। शाह साहब यह निशानी लेकर हिन्दुस्तान आ गये। तभी से यह मूए मुबारक इनके खानदान में चला आ रहा है। इनके परिवार की छह पुश्तें मूए मुबारक की जियारत करा रही है। शाह साहब के पुत्र शाह गुलाम अहमद और उनके पुत्र अब्दुल हक थे। जो आखिरी मुगलिया शहंशाह बहादुर शाह जफर के अतालिक बनाये गये। उनके पुत्र हकीम शाह मुहम्मद मिन्हाजुल हक के पास मूए मुबारक आया। हकीम साहब मरहूम के बेटे शाह मुहम्मद अबरारूल हक मूए मुबारक की जियारत कराते थे। बारह रबीउल अव्वल की अल सुबह कोई परहेजगार शख्स एक कोरे घड़ें में दरिया-ए-राप्ती का पानी बीच धारे में जाकर लाता है। यह काम गुजश्ता कई बरसों से मुहल्ले की मस्जिद के इमाम कर रहे हैं। उसी पानी व गुलाब को प्याले में रखकर गुस्ल दिया जाता है। दोपहर की नमाज के बाद मिलाद होती है। उसके बाद या नबी सलाम अलैका, या रसूल सलाम अलैका के बीच जियारत करायी जाती है। यहां पर रखा मौजूद मूए मुबारक का खास कमरें में रखा गया है। जिसका दरवाजा बारह रबीउल अव्वल शरीफ को खोला जाता है। गुस्ल का पानी बतौर तबरूक दिया जाता है। यहां पर दूर-दूर से लोग जियारत करने आते है। यहां पर सिर्फ पुरूषों को जियारत करायी जाती है। पानी में जब भी हाथ डाला जाता हैं। मूए मुबारक पानी की तह में चला जाता है।
मुहल्ला छोटे काजीपुर में एलआईयू आफिस के निकट मौलवी अब्दुल हन्नान के परिवार में रखे मूए मुबारक की जियारत भी बारह रबीउल अव्वल शरीफ को बाद नमाज जोहर करायी जाती है। यहां दो मूए मुबारक मौजूद है। यहां पर महिलाओं व पुरूषों दोनों को जियारत करायी जाती है। इस जगह पर मुम्बई, दिल्ली, आगरा सहित देश के हर कोने से लोग दर्शन करने के लिए आते है। यहां पर लोगों की मुरादें पूरी होती है। छोटे काजीपुर में मरहूम मौलवी अब्दुल हन्नान के परिवार में उनके पुत्र सैयद अतीकुर्रहमान बारह रबीउल अव्वल को मूए मुबारक की जियारत कराते रहे हैं। वहां भी एक खास कमरे में नीलम की छोटी डिबिया में मूए मुबारक रखा हुआ है। सैयद महबूब हसन ने बताया था कि उनके पुर्खें मदीना शरीफ में गद्दीनशीन थे। वहां से हिजरत करते समय वहां के लोगों ने आपको मूए मुबारक सौंप दिया। उसी को लेकर आप हिन्दुस्तान के मुजफ्फरपुर (बिहार) में आकर बस गये। सन् 1932 या 36 में मुजफ्फरपुर में जबरदस्त भूकम्प आया। आपके खानदान के लोग मूए मुबारक लेकर गोरखपुर आ गये फिर कुछ दिन बक्शीपुर में रहने के छह माह बाद छोटे काजीपुर में रहने लगे। सैयद महबूब हसन व सैयद मंजर हसन ने बताया था कि मूए मुबारक का कमरा साल में जियारत वाले दिन ही खुलता है। यहां पर महिला, पुरुष सभी जियारत से फैजयाब होते है। असर की अजान तक जियारत करायी जाती है। यह पैगम्बर हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम का मोज़ज़ा (चमत्कार) है कि इस्लामी तारीख की 1440 हिजरी में मूए मुबारक मौजूद है। ताकयामत तक महफूज रहेंगे। अल्लाह ने पैगम्बरों के जिस्म को जमीन के ऊपर हराम कर दिया है। मूए मुबारक की जियारत करना हर मुसलमान के लिए बाइसे सवाब है। खुशनसीब हैं शहर के मुसलमान की उनके शहर में पैगम्बर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के मूए मुबारक मौजूद है। चौथा मूए मुबारक दरगाह मुबारक खां शहीद नार्मल की मस्जिद में है। यह जानकारी मुझे मोहम्मद राशिद जमाल ने दी है। उन्होंने बताया कि जब महमूद अहमद उर्फ जुम्मन की कमेटी थी तब मारहरा शरीफ के सज्जादानशीन हजरत सैयद हसनैन मियां ने मूए मुबारक दरगाह पर भेजवाया था।
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