गोरखपुर में आज भी आबाद हैं पिंडारी
गोरखपुर शहर में एक बहादुर कबीला पिंडारी आज भी आबाद है। जिसके बारे में कम लोग जानते हैं। पिंडारियों को अंग्रेजों से गोरखपुर (सिकरीगंज) व बस्ती (गनेशपुर) जिले में जागीरें मिलीं। गोरखपुर के मदीना मस्जिद रेती के सामने करीब 70 साल पुरानी पिंडारी बिल्डिंग आज भी मौजूद है जहां पहले इलाहाबाद बैंक था। पिंडारी सरदार के वारिसों की बिल्डिंग में ऊपर इलाहाबाद बैंक था, नीचे दुकानें। आज भी यहां पिंडारी आबाद हैं और हर क्षेत्र में तरक्की कर रहे हैं।
पिंडारियों के सरदार करीम खां की मजार गोरखपुर जिले के सिकरीगंज में उनकी बहादुरी की प्रतीक बनी हुई है, जबकि उनके वारिस पूरी दिलेरी से दुनिया के साथ कदमताल कर रहे हैं। एक समझौते के तहत अंग्रेजों ने पिंडारियों के सरदार करीम खां को सन् 1820 ई. में सिकरीगंज में जागीर देकर बसाया था। सिकरीगंज कस्बे से सटे इमलीडीह खुर्द के ‘हाता नवाब’ से सरदार करीम खां ने अपनी नई जिंदगी शुरू की। इंतकाल के बाद वे यहीं दफनाए गए। शब-ए-बारात को सभी पिंडारी उनकी मजार पर फातिहा पढ़ने आते हैं। सरदार करीम खां की वंश बेल सिकरीगंज से आगे बढ़कर बस्ती और बाराबंकी तक फैल गई है। एक बार फिर बतातें चलें कि सरदार करीम खां को सिकरीगंज में बढ़यापार स्टेट का कुछ हिस्सा और 16 हजार रुपये वार्षिक पेंशन देकर बसाया गया था। करीम खां के भतीजे नामदार को अंग्रेजों ने भोपाल में बसाया।
"विकीपीडिया के मुताबिक पिंडारी अलग-अलग जातियों का एक समूह था, जिनके सरदारों में चीतू, करीम और वसील मुहम्मद प्रमुख थे। पिंडारी दक्षिण भारत के युद्ध प्रिय पठान सवार थे। वे बड़े कर्मठ, साहसी तथा वफादार थे। टट्टू उनकी सवारी थी। तलवार और भाले उनके अस्त्र थे। वे दलों में विभक्त थे और प्रत्येक दल में साधारणत: दो से तीन हजार तक सवार होते थे। योग्यतम व्यक्ति दल का सरदार चुना जाता था। उसकी आज्ञा सर्वमान्य होती थी। मराठों की अस्थायी सेना में उनका महत्वपूर्ण स्थान था। पिंडारी सरदार नसरू ने मुगलों के विरुद्ध शिवाजी की सहायता की। पुनापा ने उनके उत्तराधिकारियों का साथ दिया। गाजीउद्दीन ने बाजीराव प्रथम को उसके उत्तरी अभियानों में सहयोग दिया। चिंगोदी तथा हूल के नेतृत्व में पंद्रह हजार पिंडारियों ने पानीपत के युद्ध में भाग लिया। अंत में वे मालवा में बस गए और सिंधिया शाही तथा होल्कर शाही पिंडारी कहलाए। बाद में चीतू, करीम खां, दोस्त मुहम्मद और वसील मुहम्मद सिंधिया की पिंडारी सेना के प्रसिद्ध सरदार हुए तथा कादिर खां, तुक्कू खां, साहिब खां और शेख दुल्ला होल्कर की सेना में रहे। पिंडारी सवारों की कुल संख्या लगभग 50,000 थीं। पिंडारियों पर सलमान खान 'वीर' फिल्म बना चुके हैं। जो फ्लाप साबित हुई।" खैर।
"गोरखपुर परिक्षेत्र का इतिहास के लेखक डा. दानपाल सिंह पेज 72 से 73
पर लिखते हैं कि पेशवा बाजीराव प्रथम के काल में पिंडारी अवैतनिक रूप से मराठों की ओर से लड़ते थे। पानीपत के युद्ध के बाद ये लोग मालवा में बस गये थे और सिन्धिया, होल्कर व निजाम की तरफ से युद्ध करते थे। पिण्डारी हिन्दू तथा मुसलमान दोनों होते थे। ये गुप्त रूप से कार्य करते थे।19वीं शताब्दी के आरंभ में इनके तीन प्रमुख नेता थे, चीतू, वसील मुहम्मद एवं करीम खां। लार्ड हेस्टिंग्ज ने इनके दमन का निश्चय किया। इस उद्देश्य से उसने 113000 की सेना तथा 300 तोपें एकत्रित की। उसने सेना की दो कमान बनायीं तथा उत्तरी सेना की कमान स्वयं ली और दक्षिणी सेना पर टॉमस हिसलोप को तैनात किया। सन् 1817 ई. तक पिंडारी चम्बल नदी के किनारे तक खदेड़ दिए गए। जनवरी 1818 ई. तक उनके संगठित दल छिन्न भिन्न कर दिए गये। वासिल मुहम्मद ने सिंधिया के यहां शरण ली जिसे अंग्रेजों को सौंप दिया गया। उसकी जेल में मृत्यु हो गयी। चीतू जंगल में भागा था जहां उसे शेर ने मार दिया। करीम खां ने मैल्कम के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था, जिसे हेस्टिंग्ज ने बढ़यापार राज्य का कुछ भाग मालगुजारी के बकाये में जब्त कर दे दिया। उसने अपनी राजधानी कुआनों के किनारे सिकरीगंज में बनायीं। एक अन्य पिंडारी नेता कादिर बख्श को बस्ती में गनेशपुर का इलाका दिया गया। पिण्डारियों के वंशजों ने नवाब की उपाधि धारण की किंतु यह अंग्रेजों द्वारा स्वीकृत नहीं की गयी।"
एक पोर्टल पर मैंने लिखा पाया कि सन् 1817 ई. के पिंडारी उन्मूलन के लिए हेस्टिंग्स की गवर्नरी में अंग्रेजों के भीषण अभियान में हजारों पिंडारी मारे गये और कई पिंडारी सरदार अवध और गोरखपुर के इलाकों में निर्वासित किए गये लेकिन सिंधिया ने बड़ी चतुराई से अपने ही सबसे ताकतवर पिंडारी सरदार अमीर खां, करीम खां और नामदार खान का समर्पण करवाया और अंग्रेजी शर्तनामे का पालन भी किया। अमीर खां से मिलीं सूचनाओं को अंग्रेंजों से शेयर कर अंग्रेजों का विश्वास हासिल किया सिंधिया नरेश की इसी कूटनीति का परिणाम था कि सिर्फ अमीर खां पिंडारी को अंग्रेजों ने बख्शा और टोंक का नवाब बना दिया। करीम खां को गोरखपुर के सिकरीगंज में जागीर दी गयी। वसील मुहम्मद को उन लोगों ने गाजीपुर कारागार में बंद कर दिया जहां उनकी मौत हो गयी। चीतू खां का असली नाम कादिर बख्श था। सन् 1816 ई. से सन् 1818 ई. तक लखनऊ में वे लार्ड हेस्टिंग्स की सेना से लड़े। सन् 1820 ई. में उन्हें भी समझौते के तहत बस्ती जिले से सात किलोमीटर दूर गनेशपुर में ससम्मान बसाया गया। कादिर बख्श के पुत्र खादिम हुसैन को दो बेटे खान बहादुर नवाब गुलाम हुसैन और नवाब गुलाम मुहम्मद हुये। 4 जून 1928 को यूके में खान बहादुर गुलाम हुसैन को सम्मानित किया गया। इसके अलावा 12 मई 1937 को ब्रिटिश महारानी ने भी उनका सम्मान किया।एमएसआई के प्रिंसिपल जफ़र अहमद खां पिंडारी हैं। तिवारीपुर थाना क्षेत्र के सूफीहाता में काफी संख्या में पिंडारी आबाद हैं।
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