औरतों की आसान नमाज़


 इस्लाम धर्म की जानकारी

🌟बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम🌟


नमाज़ दीने इस्लाम का अहम (जरूरी) रुक्न है, कलमा पढ़ने के बाद हर बालिग मर्द और औरत पर रोजाना दिन रात में पांच नमाज़ें फ़र्ज़ हैं। यह छोटी सी किताब औरतों के लिए लिखी गयी है कि उनको नमाज़ पढ़ना आ जाए। अल्लाह तआला इस्लामी बहनों के लिए फायदामंद बना दे।


हमें और पूरी कायनात को अल्लाह तआला ने पैदा किया है। जिन्दगी गुज़ारने के लिए हमें जितनी चीज़ों की ज़रूरत है, वे सब उसी ने प्रदान की है। ज़िन्दगी और मौत उसी के हाथ में है। वही पालनहार है। रोज़ी-रोटी उसी के दिए मिलती है। दुआओं को सुनने वाला, मुसीबत में मदद करने वाला वही है। उसके अलावा कोई हमें नफ़ा या नुक्सान पहुंचाने की ताक़त नहीं रखता।


दुनिया में जो कुछ है उसका हक़ीकी मालिक अल्लाह तआला ही है। हाकिम भी वही है, दुनिया का यह कारखाना उसी के चलाये चल रहा है। उसका कोई शरीक नहीं, न जात में, न सिफ़ात में और न इख़्तियारात में मरने के बाद हमारी ज़िन्दगी का हिसाब भी वही लेगा और अमल के मुताबिक़ बदला देगा।


हम इन्सानों की रहनुमाई और हिदायत के लिए अल्लाह तआला ने अपने रसूल और पैग़म्बर भेजे। इन पैग़म्बरों ने अल्लाह तआला की मर्जी के मुताबिक़ ज़िन्दगी गुज़ारने का ढंग लोगों को बताया सबसे आखिर में अल्लाह तआला ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपना आखिरी रसूल बनाकर भेजा और उनके ज़रिए हमारी पूरी रहनुमाई और हिदायत का सामान किया।


वास्तव में यही हिदायत है जिसे इस्लाम कहते हैं। इस्लाम के मायने ही हैं अपने को अल्लाह तआला के हवाले करना और उसका कहा मानना । इस्लाम की तालीम है कि बन्दगी सिर्फ़ अल्लाह तआला की जाए।


अल्लाह तआला ही को अपना माबूद बनाया जाए, उसी की पूजा और इबादत की जाए, किसी और के आगे अपना सिर न झुकाया जाय और पूरी ज़िन्दगी ख़ुदा की गुलामी और ताबेदारी में गुजारी जाय।


इन बातों को हमेशा ज़हन में याद रखने, अल्लाह तआला की बन्दगी का हक़ अदा करने, उसके एहसानों का शुक्र अदा करने, अल्लाह तआला के सामने बन्दा और गुलाम होने के इज़हार और अल्लाह तआला की बड़ाई और हुकमरानी का इक़रार करने के लिए इस्लाम ने जो इबादती निज़ाम पेश किया है उसमें एक अहम इबादत नमाज़ है।


नमाज़ की अहमियत और ज़रूरत का ज़िक्र कुरआन और हदीस में बेशुमार जगहों पर हुआ है। दिन में पांच बार नमाज़ पढ़नी हर मुसलमान मर्द और औरत पर फ़र्ज़ है। किसी मुसलमान के लिए नमाज़ का छोड़ना सख्त गुनाह की बात है।


वुज़ू का बयान


नमाज़ के लिए कुछ शर्तें हैं, जिनको पूरा किए बगैर नमाज़ नहीं हो सकती। उनमें वुज़ू भी एक अहम शर्त है।


वुज़ू में चार चीजें फ़र्ज़ हैं


1. पूरा चेहरा धोना यानी मुंह धोना (पेशानी के बालों से ठुड्डी के नीचे तक और एक कान की लौ से दूसरे कान की लौ तक)।


2. दोनों हाथ को कुहनियों समेत धोना।


3. चौथाई सर का मसह करना।


4. दोनों पांव टखनों समेत धोना।


वुज़ू की सुन्नतें

1. नीयत करना। 2. तस्मिया (बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम) पढ़ कर शुरू करना। 3. मिस्वाक करना।

4. दाहिने हाथ से तीन कुल्लियां करना। 5. दाहिने हाथ से तीन बार नाक में पानी चढ़ाना और बाएं हाथ से नाक साफ़ करना। 6. हाथ पांव की उंगलियों का खिलाल करना। 7. एक बार पूरे सर का मसह करना। 8. दोनों कानों का मसह करना। 9. हर उज़्व को तीन बार धोना। 10. तरतीब से वुजू करना। 11. धोते वक्त हाथ से मलना। 12. लगातार करना, यानी धोने में इतनी देर ना करना कि जो उज़्व (अंग) पहले धोया जा चुका है, वह सूख जाए।


वुज़ू के मुस्तहब

दाएं जानिब से शुरू करना। गर्दन पर मसह करना। नमाज़ के वक्त से पहले वुज़ू करना। किब्ले की तरफ रुख करके बैठना। पाक और ऊंची जगह पर बैठकर वुज़ू करना। दूसरे की मदद के बगैर ख़ुद से वुज़ू करना वगैरह।


वुज़ू के मकरूह

वुज़ू करते वक्त दुनिया की बात करना। ज्यादा पानी बहाना। नापाक जगह पर वुज़ू करना। सीधे हाथ से नाक साफ़ करना। सुन्नत के खिलाफ वुज़ू करना। हर उज़्व को तीन बार से ज्यादा धोना वगैरह।


वुज़ू करने का सही तरीका


वुज़ू करने का तरीक़ा यह है कि पहले तस्मिया (बिस्मिल्लाह) पढ़ें। फिर मिस्वाक करें। अगर मिस्वाक न हो तो उंगली से दांत मसलें फिर दोनों हाथों को गट्टों तक तीन बार धोएं पहले दाहिने हाथ पर पानी डालें फिर बाएं हाथ पर। दोनों हाथों को एक साथ न धोएं फिर दाहिने हाथ से तीन बार कुल्ली करें फिर बाएं हाथ की छोटी उंगली से नाक साफ़ करें और तीन बार नाक में पानी चढ़ाएं फिर पूरा चेहरा धोएं यानी पेशानी पर बाल उगने की जगह से ढोड़ी के नीचे तक और एक कान की लौ से दूसरे कान की लौ तक हर हिस्से पर तीन बार पानी बहाएं। इसके बाद दोनों हाथ कुहनियों समेत तीन बार धोएं उंगलियों की तरफ़ से कुहनियों के ऊपर तक पानी डालें कुहनियों की तरफ से न डालें फिर एक बार दोनों हाथ से पूरे सर का मसह करें फिर कानों का और गर्दन का एक-एक बार मसह करें फिर दोनों पांव टखनों समेत तीन बार धोएं।


किन चीजों से वुज़ू टूट जाता है


पाखाना या पेशाब करना, पाखाना पेशाब के रास्ते से किसी और चीज़ का निकलना, पाखाने के रास्ते से हवा का निकल जाना, बदन के किसी मुकाम से खून या पीप निकलकर ऐसी जगह बहना कि जिसका वुजू या गुस्ल में धोना फ़र्ज़ है। मुंह भर उल्टी आना। इस तरह सो जाना कि जिस्म के जोड़े ढीले पड़ जाएं, बेहोश होना, जुनून होना, गशी होना।


नोट : याद रखिए अगर नाखुन में आटा लग कर सूख गया हो तो पहले उसको छुड़ा लीजिए, अगर नाखून पर नेल पॉलिश का रंग लगा हुआ हो तो उसको भी साफ कर लीजिए क्योंकि उसके नीचे पानी नहीं पहुंचेगा तो न वुज़ू होगा न नमाज़ होगी।


गुस्ल (नहाने) का बयान


गुस्ल कहते हैं नहाने को मगर शरीअत में नहाने का एक तरीक़ा है और वह यह है कि पहले इस्तिंजा करें फिर उसके बाद जो नजासत (गंदगी) बदन पर लगी हो उसे धो डालें फिर वुज़ू करें उसके बाद सारे बदन पर तीन बार पानी बहाएं।


गुस्ल में तीन चीजें फ़र्ज़ हैं


1. कुल्ली करना।

2. नाक में सख्त हड्डी तक पानी चढ़ाना।

3. तमाम जाहिर बदन पर सर से पांव तक पानी बहाना।


गुस्ल की सुन्नतें

1. गुस्ल की नियत (इरादा) करना। 2. दोनों हाथ गट्टों तक तीन बार धोना। 3. इस्तिंजा की जगह धोना। 4. बदन पर जहां कहीं नजासत हो उसे दूर करना।5. नमाज़ जैसा वुज़ू करना। 6. बदन पर तेल की तरह पानी चुपड़ना। 7. दाहिने कंधे फिर बाएं कंधे फिर सर पर और तमाम बदन पर तीन बार पानी बहाना तमाम बदन पर हाथ फेरना और मलना।  8. नहाने में किबला रुख़ न होना और कपड़ा पहन कर नहाना हो तो कोई हर्ज नहीं। 9. ऐसी जगह नहाना कि कोई न देखे। 10. नहाते वक्त किसी किस्म का कलाम न करना।‌ 11. कोई दुआ न पढ़ना।

12. औरतों को बैठकर नहाना। 13. नहाने के बाद फौरन कपड़ा पहन लेना।


गुस्ल का तरीका


गुस्ल करने का तरीक़ा यह है कि पाक साफ पानी लें सबसे पहले गुस्ल की नीयत करके दोनों हाथ गट्टों तक तीन बार धोएं फिर इस्तिंजा की जगह धोएं उसके बाद बदन पर अगर कहीं नाजसते हकीकीया यानी पेशाब या पाखाना वगैरह हो तो उसे दूर करें फिर नमाज़ जैसा वुज़ू करें मगर पांव न धोएं हां अगर चौकी या पत्थर वगैरह ऊंची चीज़ पर नहाएं तो पांव भी धो लें। इसके बाद बदन पर तेल की तरह पानी चुपड़ें फिर तीन बार दाहिने कंधे पर पानी बहाएं और फिर तीन बार बायें कंधे पर फिर सर पर और तमाम बदन पर पानी बहाएं तमाम बदन पर हाथ फेरें और मलें फिर नहाने के बाद फ़ौरन बाद कपड़ा पहन लें। याद रखिए गुस्ल में कुल्ली करना, नाक में पानी डालना और सारे बदन पर पानी बहाना फ़र्ज़ है, इनके बगैर गुस्ल नहीं हो सकता।


इन सूरतों में गुस्ल करना फ़र्ज़ है


मनी का अपनी जगह से शहवत के साथ जुदा होकर उज़्व से निकलना, इहतिलाम (स्वप्नदोष), हशफा यानी सरे जकर का औरत के आगे या पीछे या मर्द के पीछे दाखिल होना दोनों पर गुस्ल पर फ़र्ज़ करता है। हैज से फारिग होना। निफास का खत्म होना।


इन वक्तों पर गुस्ल करना सुन्नत है


जुमा, ईद, बकराईद, अरफा के दिन और इहराम बांधते वक्त नहाना सुन्नत है।


तयम्मुम का बयान


वुज़ू और गुस्ल के लिए जब पानी न मिल सके या पानी नुकसान करे तो तयम्मुम करना जाइज है।


तयम्मुम में तीन चीजें फ़र्ज़ हैं

1. नीयत करना।

2. पूरे मुंह पर हाथ फेरना।

3. दोनों हाथ का कुहनियों समेत मसह करना।


तयम्मुम की नीयत

ज़ुबान से तयम्मुम की नीयत अदा करते वक्त यह कहें कि नीयत की मैंने तयम्मुम की अल्लाह तआला का तकर्रुब हासिल करने के लिए।


तयम्मुम करने का तरीका


तयम्मुम करने का तरीक़ा यह है कि अव्वल दिल में नीयत करें फिर दोनों हाथ की उंगलियां कुशादा करके पाक जमीन या मिट्टी पर मारें और ज्यादा गर्द लग जाए तो झाड़ लें फिर उससे सारे मुंह का मसह करें फिर दोबारा दोनों हाथ जमीन पर मारकर दाहिने हाथ को बाएं हाथ से और बाएं हाथ को दाहिने हाथ से कुहनियों समेत मलें। तयम्मुम का यही तरीका वुज़ू और गुस्ल दोनों के लिए है। जिन चीजों से वुज़ू टूट जाता है या गुस्ल वाजिब होता है उनसे तयम्मुम भी टूट जाता है। अलावा इनके पानी पर कुदरत हो जाने से भी तयम्मुम टूट जाता है।


नोट : अगर अंगूठी पहनी हों तो उसके नीचे हाथ फेरना फ़र्ज़ है और औरत अगर चूड़ी या जेवर पहने हो तो उसे हटा कर हर हिस्से पर हाथ फेरना फ़र्ज़ है।


इन चीजों से तयम्मुम जाइज है

पाक मिट्टी, पत्थर, रेत, मुल्तानी मिट्टी, गेरु, कच्ची या पक्की ईंट, मिट्टी और ईंट पत्थर या चूना की दीवारों से तयम्मुम करना जाइज है।


इन चीजों से तयम्मुम करना जाइज नहीं

सोना, चांदी, तांबा, पीतल, लोहा, लकड़ी, एल्युमिनियम, जस्ता, कपड़ा, राख और हर किस्म के गल्ला से तयम्मुम करना जाइज नहीं। यानी जो चीजें आग में पिघल जाती हैं या जलकर राख हो जाती हैं उन चीजों से तयम्मुम करना जाइज नहीं।


इस्तिंजा का बयान


बैतुलखला (लैट्रिन) में दाखिल होने से पहले दुआ पढ़ लें फिर बायां पांव दाखिल करें। पेशाब के बाद इस्तिंजा  करने का तरीक़ा यह है कि पाक मिट्टी, कंकर या फटे पुराने कपड़े से पेशाब सुखाए फिर पानी से धो डाले और पाखाना के बाद इस्तिंजा करने का तरीका यह है कि पाक मिट्टी, कंकर या पत्थर के तीन, पांच या सात टुकड़ों से पाखाना की जगह साफ कर लें फिर पानी से धो डालें। इस्तिंजा का ढेला और पानी बाएं हाथ से इस्तेमाल करना चाहिए। किसी किस्म का खाना, हड्डी, गोबर, लीद, कोयला और जानवर का चारा, इन चीजों से इस्तिंजा करना मना है‌। बैतुलखला से निकलते वक्त दाहिना पैर बाहर निकालें फिर दुआ पढ़ें।


इन जगहों पर पेशाब पाखाना करना मना है


कुएं या हौज या चश्मा (तालाब) के किनारे, पानी में अगरचे बहता हुआ हो, घाट पर, फलदार पेड़ के नीचे, ऐसे खेत में कि जिसमें खेती मौजूद हो, साया में जहां लोग उठते बैठते हों, मस्जिद या ईदगाह के पहलू में, कब्रिस्तान या रास्ते में, जिस जगह जानवर बंधे हों और जहां वुज़ू या गुस्ल किया जाता हो इन सब जगहों में पाखाना पेशाब करना मना है। पाखाना या पेशाब करते वक्त किब्ला की तरफ मुंह या पीठ करना मना है। हिंदुस्तान में उत्तर या दक्खिन ओर मुंह करना चाहिए।


नजासत का बयान


नजासते हकीकीया की दो किस्में हैं।

1. नजासते ग़लीज़ा

2. नजासते खफ़ीफ़ा


नजासते ग़लीज़ा यह चीजें हैं


इंसान के बदन से ऐसी चीज निकले कि उससे वुज़ू या गुस्ल वाजिब हो जाता हो तो वह नजासते ग़लीज़ा है जैसे - पाखाना, पेशाब, बहता खून, पीप, मुंह भर उल्टी, दुखती आंख का पानी वगैरा। दूध पीता लड़का हो या लड़की उनका पेशाब भी नजासते ग़लीज़ा है। हराम चौपायों जैसे - कुत्ता, सुअर, बिल्ली, चूहा, गधा, हाथी वगैरा का पाखाना पेशाब और घोड़े की लीद और हर हलाल चौपाये का पाखाना जैसे - गाय, भैंस का गोबर बकरी और ऊंट की मेंगनी, मुर्गी और बतख की बीट, हाथी के सूंड की रतूबत और शेर कुत्ता वगैरा दरिंदे चौपायों का लुआब यह सब नजासते ग़लीज़ा है।


नजासते ग़लीज़ा बदन या कपड़े पर लग जाए तो शरीअत का हुक्म


अगर नजासते ग़लीज़ा एक दिरहम से ज्यादा लग जाए तो उसका पाक करना फ़र्ज़ है कि बग़ैर पाक किए नमाज़ पढ़ ली तो नमाज़ होगी ही नहीं, और अगर नजासते ग़लीज़ा एक दिरहम के बराबर लग जाए तो उसका पाक करना वाजिब है कि बगैर पाक किए पढ़ ली तो नमाज़ मकरूह तहरीमी हुई यानी ऐसी नमाज़ का दोबारा पढ़ना वाजिब है और अगर नजासते ग़लीज़ा एक दिरहम से कम लगी हो तो उसका पाक करना सुन्नत है कि बगैर पाक किए नमाज़ पढ़ ली तो हो गई मगर ख़िलाफ़े सुन्नत हुई ऐसी नमाज का दोबारा पढ़ना बेहतर है। (बहारे शरीअत)


नजासते खफ़ीफ़ा यह चीजें हैं


जिन जानवरों का गोश्त हलाल है जैसे - भैंस, बकरी, भेड़ वगैरा इनका पेशाब नीज घोड़े का पेशाब और जिस परिंद का गोश्त हराम हो जैसे - कौआ, चील, बाज, शिकरा, बहरी वगैरा का बीट यह सब नजासते खफ़ीफ़ा है।


अगर नजासते खफ़ीफ़ा बदन या कपड़े पर लग जाए तो शरीअत का हुक्म


नजासते खफ़ीफ़ा कपड़े या बदन के जिस हिस्से में लगी है अगर उसकी चौथाई से कम है मसलन दामन में लगी है तो दामन की चौथाई से कम है या आस्तीन में लगी है तो उसकी चौथाई से कम में लगी है या हाथ में हाथ की चौथाई से कम लगी है तो माफ़ है और अगर पूरी चौथाई में लगी हो तो बग़ैर धोए नमाज़ न होगी।


ऐसे करें कपड़ा पाक


अगर नजासत दलदार है जैसे पाखाना और गोबर वगैरह तो उसके धोने में कोई गिनती मुकर्रर नहीं है बल्कि उसको दूर करना जरूरी है अगर एक बार धोने से दूर हो जाए तो एक ही मर्तबा धोने से पाक हो जाएगा और अगर चार पांच मर्तबा धोने से दूर हो तो चार पांच मर्तबा धोना पड़ेगा। हां अगर तीन बार से कम में नजासत दूर हो जाए तो तीन बार पूरा लेना बेहतर है और अगर नजासत पतली हो जैसे पेशाब वगैरा तो तीन मर्तबा धोना और तीनों मर्तबा ताकत के साथ निचोड़ने से कपड़ा पाक हो जाएगा।


हैज़, निफ़ास और जनाबत का बयान


सवाल : हैज़ और निफ़ास किसे कहते हैं?

जवाब : बालिगा औरत के आगे के मक़ाम से जो खून आदी तौर पर निकलता है और बीमारी या बच्चा पैदा होने के सबब से न हो तो उसे हैज़ कहते हैं, उसकी मुद्दत कम से कम तीन (3) दिन और ज़्यादा से ज़्यादा दस (10) दिन है, इससे कम या ज्यादा हो तो बीमारी यानी इस्तिहाज़ा है, और बच्चा पैदा होने के बाद जो खून आता है उसे निफ़ास कहते हैं, निफ़ास में कमी की जानिब कोई मुद्दत मुकर्रर नहीं और ज्यादा से ज्यादा उसका ज़माना चालीस (40) दिन है चालीस दिन के बाद जो खून आए वह इस्तिहाज़ा है।


सवाल : हैज़ व निफ़ास का क्या हुक्म है?

जवाब : हैज़ व निफ़ास की हालत में रोज़ा रखना और नमाज़ पढ़ना हराम है उन दिनों में नमाज़ें माफ़ हैं उनकी कज़ा भी नहीं मगर रोज़ों की कज़ा और दिनों में रखना फ़र्ज़ है और हैज़ व निफ़ास वाली औरत को कुरआन शरीफ़ पढ़ना हराम है। ख़्वाह देख कर पढ़े या जुबानी और उसका छूना अगरचे उसकी जिल्द या हाशिया को हाथ या उंगली की नोक या बदन का कोई हिस्सा लगे सब हराम हैं। हां जुज़दान में कुरआन मजीद हो तो उस जुज़दान के छूने में हर्ज़ नहीं।


सवाल : जिसे इहतिलाम (स्वप्नदोष) हुआ और ऐसे मर्द व औरत के जिन पर गुस्ल फ़र्ज़ है उनके लिए क्या हुक्म है?

जवाब: ऐसे लोगों को गुस्ल किए बगैर नमाज़ पढ़ना, कुरआन शरीफ़ देखकर या जुबानी पढ़ना उसका छूना और मस्जिद में जाना सब हराम है।


सवाल : ऐसे मर्द व औरत कि जिन पर गुस्ल फ़र्ज़ है वो कुरआन की तालीम दे सकते हैं या नहीं?

जवाब : ऐसे लोग एक एक कलिमह सांस तोड़-तोड़ कर पढ़ा सकते हैं और हिज्जे कराने में कोई हर्ज़ नहीं।


सवाल : बे वज़ू कुरआन शरीफ़ छूना और पढ़ना जाइज़ है या नहीं?

जवाब : बे वुज़ू क़ुरआन शरीफ़ छूना हराम है, बे छुए जुबानी या देखकर पढ़े तो कोई हर्ज़ नहीं।


सवाल : बे वुज़ू ज़ू पारये अम्म या किसी दूसरे पारा का छूना कैसा है?

जवाब : बे वुज़ू वजू पारये अम्म या किसी दूसरे पारह का छूना भी हराम है।


नमाज़ के वक्तों का बयान


दिन व रात में कुल पांच नमाज़ें फ़र्ज़ हैं। फ़ज्र, जुहर, अस्र, मग़रिब और इशा।


फ़ज़्र का वक़्त : उजाला होने से फ़ज़्र का वक़्त शुरू होता है और सूरज निकलने से पहले तक रहता है लेकिन खूब उजाला होने पर पढ़ना मुसतहब है।


ज़ुहर का वक़्त : ज़ुहर का वक़्त सूरज ढलने के बाद शुरू होता है और ठीक दोपहर के वक़्त किसी चीज़ का जितना साया होता है उसके अलावा उसी चीज़ का दोगुना साया हो जाए तो ज़ुहर का वक़्त खत्म हो जाता है। मगर छोटे दिनों में अव्वले वक़्त और बड़े दिनों में आख़िरे वक़्त पढ़ना मुस्तहब है।


अस्र का वक़्त : ज़ुहर का वक़्त खत्म हो जाने से अस्र का वक़्त शुरू हो जाता है और सूरज डूबने से पहले तक रहता है, मगर अस्र में ताखीर हमेशा मुस्तहब है लेकिन न इतनी ताखीर कि सूरज की टिकिया में ज़र्दी आ जाए।


मग़रिब का वक़्त : मग़रिब का वक़्त सूरज डूबने के बाद से शुरू हो जाता है, और उत्तर दक्खिन फैली हुई सफेदी के गायब होने से पहले तक रहता है। मगर अव्वल वक़्त पढ़ना मुसतहब और ताखीर मकरूह ।


इशा का वक़्त : इशा का वक़्त उत्तर दक्खिन फैली हुई सफेदी के ग़ायब होने से शुरू होता है और सुबह उजाला होने से पहले तक रहता है लेकिन तिहाई रात तक ताखीर मुस्तहब और आधी रात तक मुबाह और आधी रात के बाद मकरूह है।


मकरूह वक्तों का बयान 


रात और दिन में कुछ वक़्त ऐसे भी हैं जिनमें नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं। सूरज निकलने के वक़्त, सूरज डूबने के वक़्त और दोपहर के वक़्त किसी क़िस्म की कोई नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं। हां अगर उस दिन अस्र की नमाज़ नहीं पढ़ी है तो सूरज डूबने के वक़्त पढ़ लें मगर इतनी देर करना सख़्त गुनाह है।


सूरज निकलने का वक्त : जब सूरज का किनारा ज़ाहिर हो उस वक़्त से लेकर तक़रीबन 20 (बीस) मिनट तक नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं।


सूरज डूबने के वक़्त : जब सूरज पर नज़र ठहरने लगे उस वक़्त से लेकर डूबने तक नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं है और यह वक़्त भी तक़रीबन बीस (20) मिनट है।


दोपहर का वक़्त : ठीक दोपहर के वक़्त तक़रीबन चालीस (40) व पचास (50) मिनट तक नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं।


मकरूह वक्तों में क़ुरआन शरीफ़ पढ़ना कैसा : मकरूह वक्तों में क़ुरआन शरीफ़ न पढ़ें तो बेहतर है और पढ़ें तो कोई हर्ज नहीं।


तादादे रकात और नमाज़ की नीयत का बयान


सवाल : फज्र की नमाज़ में कितनी रकात होती है?

जवाब : कुल चार (4) रकात, पहले दो (2) रकात सुन्नत फिर दो (2) रकात फ़र्ज़।


सवाल : फ़ज्र की नमाज़ की नीयत कैसे करें?


जवाब: दो (2) रकात सुन्नत की नीयत : नीयत की मैंने दो रकात नमाज़ सुन्नत फ़ज्र की अल्लाह तआला के लिए सुन्नत रसूलुल्लाह की मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ, 'अल्लाहु अकबर'।


दो (2) रकात फ़र्ज़ की नीयत :

नीयत की मैंने दो रकात नमाज़ फ़र्ज़ फ़ज्र की अल्लाह तआला के लिए मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ, 'अल्लाहु अकबर'।


सवाल : ज़ुहर के वक़्त कुल कितनी रकात नमाज़ पढ़ी जाती है?

जवाब : कुल बारह (12) रकात,

पहले चार (4) रकात सुन्नत, फिर चार (4 ) रकात फ़र्ज़, फिर दो(2) रकात सुन्नत, फिर दो(2) रकात नफ़ल।


सवाल : ज़ुहर की नमाज़ की नीयत कैसे की जाती है?


जवाब : ज़ुहर की चार (4) सुन्नत की नीयत : नीयत की मैंने चार(4) रकात नमाज़ सुन्नत ज़ुहर की अल्लाह तआला के लिए सुन्नत रसूलुल्लाह की मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


ज़ुहर की चार (4) रकात फ़र्ज़ की नीयत : नीयत की मैंने चार (4) रकात नमाज़ फ़र्ज़ ज़ुहर की अल्लाह तआला के लिए मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


ज़ुहर की दो (2) रकात सुन्नत की नीयत : नीयत की मैंने (2) दो रकात नमाज़ सुन्नत ज़ुहर की अल्लाह तआला के लिए सुन्नत रसूलुल्लाह की मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


ज़ुहर की दो (2) रकात नफ्ल की नीयत : नीयत की मैंने दो (2) रकात नमाज़ नफ़ल अल्लाह तआला के लिए मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


सवाल : अस्र के वक्त कितनी रकात नमाज़ पढ़ी जाती है?

जवाब : आठ (8) रकात, पहले चार (4) रकात सुन्नत, फिर चार(4) रकात फ़र्ज़।


सवाल : नमाज़-ए-अस्र की नीयत कैसे की जाती है?


जवाब: अस्र की चार (4) रकात सुन्नत की नीयत : नीयत की मैंने चार (4) रकात नमाज़ सुन्नत असर की अल्लाह तआला के लिए सुन्नत रसूलुल्लाह की मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


अस्र की चार (4) रकात फ़र्ज़ की नीयत : नीयत की मैंने चार रकात नमाज़ फ़र्ज़ अस्र की अल्लाह तआला के लिए मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


सवाल : मग़रिब के वक्त कुल कितनी रकात नमाज़ पढ़ी जाती है?


जवाब : सात (7) रकात पढ़ी जाती है, पहले तीन (3) रकात फ़र्ज़, फिर दो(2) रकात सुन्नत, फिर दो (2) रकात नफ़ल।


सवाल : मग़रिब की नमाज़ की नीयत कैसे करें?


जवाब: तीन (3) रकात फ़र्ज़ की नीयत किस तरह की जाएगी : नीयत की मैंने तीन (3) रकात नमाज़ फ़र्ज़ मग़रिब की अल्लाह तआला के लिए मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ़ 'अल्लाहु अकबर' और दो रकात सुन्नत की नीयत कैसे करें : नीयत की मैंने दो (2) रकात नमाज़ सुन्नत मग़रिब की अल्लाह तआला के लिए सुन्नत रसूलुल्लाह की मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ़ 'अल्लाहु अकबर'।

फिर दो रकात नफ़ल की नीयत कैसे करें : नीयत की मैंने दो रकात नमाज़ नफ़ल अल्लाह तआला के लिए मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


सवाल : इशा के वक्त कुल कितनी रकात नमाज़ पढ़ी जाती है?


जवाब : सत्तरह (17) रकात पढ़ी जाती है, पहले चार(4) रकात सुन्नत, फिर चार (4) रकात फ़र्ज़, फिर दो (2) रकात सुन्नत, फिर दो (2) रकात नफ़ल, इसके बाद तीन (3) रकात वित्र वाजिब, फिर दो (2) रकात नफ़ल।


सवाल : इशा की नमाज की नियत कैसे की जाती है?

जवाब : चार (4) रकात सुन्नत की नीयत : नीयत की मैंने चार (4) रकात नमाज़ सुन्नत इशा की अल्लाह तआला के लिए सुन्नत रसूलुल्लाह की मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


चार (4) रकात फ़र्ज़ की नीयत: नीयत की मैंने चार (4) रकात नमाज़ फ़र्ज़ इशा की अल्लाह तआला के लिए मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


दो (2) रकात सुन्नत की नीयत : नीयत की मैंने दो (2) रकात नमाज़ सुन्नत इशा की अल्लाह तआला के लिए सुन्नत रसूलुल्लाह की मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


दो‌ (2) रकात नफ़ल की नीयत : नीयत की मैंने दो (2) रकात नमाज़ नफ़ल अल्लाह तआला के लिए मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


तीन (3) रकात वित्र की नीयत :

नीयत की मैंने तीन रकात नमाज़ वाजिब वित्र की अल्लाह तआला के लिए मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


दो (2) रकात नफ़ल की नीयत : नीयत की मैंने दो (2) रकात नमाज़ नफ़ल अल्लाह तआला के लिए मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


सवाल : अगर नीयत के अल्फाज़ भूल कर कुछ के कुछ जुबान से निकल गए तो नमाज़ होगी या नहीं?


जवाब : नीयत दिल के पक्के इरादा को कहते हैं यानी नीयत में जुबान का एतबार नहीं तो अगर दिल में मसलन जुहर का इरादा किया और जुबान से लफ़्ज़े अस्र निकल गया तो जुहर की नमाज़ हो जाएगी।


सवाल : कज़ा नमाज़ की नीयत किस तरह करनी चाहिए?

जवाब : जिस रोज़ और जिस वक्त की नमाज़ कज़ा हो उस रोज़ और उस वक्त की नीयत कज़ा में ज़रूरी है मसलन अगर जुमा के रोज फ़ज्र की नमाज़ कज़ा हो गई तो इस तरह नीयत करें कि नीयत की मैंने दो (2) रकात नमाज़े कज़ा जुमा के फ़ज्र फ़र्ज़ की अल्लाह तआला के लिए मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


सवाल : अगर कई साल की नमाज़ें क़ज़ा हों तो नियत कैसे करें?

जवाब : ऐसी सूरत में जो नमाज़ मसलन ज़ुहर की क़ज़ा पढ़नी है तो इस तरह नीयत करें

“नीयत की मैंने चार रकात नमाज़ क़ज़ा जो मेरे ज़िम्मा बाक़ी हैं उनमें से पहले ज़ुहर फ़र्ज़ की अल्लाह तआला के लिए मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'। इसी पर दूसरी क़ज़ा नमाज़ों की नीयतों को क़ियास करना चाहिए।


सवाल : पांच (5) वक़्त की नमाज़ों में कुल कितनी रकात क़ज़ा पढ़ी जाएगी?

जवाब : बीस (20) रकात : दो (2) रकात फ़ज्र, चार (4) रकात ज़ुहर, चार (4) रकात अस्र, तीन (3) रकात मग़रिब, चार (4) रकात इशा‌ और तीन (3) रकात वित्र। खुलासा ये है,

फ़र्ज़ और वित्र की क़ज़ा है। सुन्नत नमाज़ों की क़ज़ा नहीं।


सवाल : पांचों वक़्त की अदा नमाज़ों में कुछ कमी हो सकती है या नहीं?


जवाब : फ़ज्र की नमाज़ में कमी नहीं हो सकती, अलबत्ता अगर ज़ुहर में सिर्फ़ चार रकात सुन्नत, चार रकात फ़र्ज़ और दो रकात सुन्नत यानी कुल दस (10) रकात पढ़े और असर में सिर्फ़ चार रकात फ़र्ज़ अदा करे, और मग़रिब में तीन रकात फ़र्ज़ और दो रकात सुन्नत यानी कुल पांच रकात पढ़े, और इशा में सिर्फ़ चार रकात फ़र्ज़ दो रकात सुन्नत फिर तीन रकात वित्र यानी कुल नौ (9) रकात अदा करे तो ये भी जाइज़ है कोई हर्ज नहीं।


औरतों के लिए फ़र्ज़ नमाज़ अदा करने का तरीका


वुजू बनाकर काबा शरीफ़ की तरफ मुंह करके खड़ी हो जाइए और नमाज़ की नीयत करके दोनों हाथ कांधों तक उठाइए मगर हाथ आंचल से बाहर न निकालिए, हथेलियां काबा शरीफ़ की तरफ कर लीजिए। अब आहिस्ता से तकबीरे तहरीमा "अल्लाहु अकबर" कहती हुई दोनों हाथ सीने पर बांध लीजिए, छाती के नीचे। दायें हाथ की हथेली को बायें हाथ की पुश्त पर रखिए। नज़र सज्दे की जगह पर रखिए और "सना" पढ़िए :


"सुब्हा न क अल्लाहुम्मा व बिहम्दि क व तबा र कसमु क व तआला जद्दु क व लाइलाह गैरुक". (ऐ अल्लाह मैं तेरी पाकी बयान करती हूं और तेरी तारीफ़ करती हूं और बरकत वाला है तेरा नाम और तेरी शान बड़ी है और तेरे सिवा कोई इबादत के लायक नहीं है।)


फिर पढ़िए :


"तअव्वुज़" यानी "अऊजु बिल्लाहि मिनश्शैतानिर्रजीम" (मैं अल्लाह की पनाह मांगती हूं शैतान मरदूद से)।


फिर "तस्मिया" पढ़ें :


"बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम" (अल्लाह के नाम से शुरू करती हूं जो बड़ा मेहरबान और बेहद रहम वाला है)।


कुरआन पढ़ना : अब अल्हम्दु यानी सूर: फातिहा पूरी पढ़िए। और आहिस्ता से आमीन कहिए उसके बाद कोई सूरत या तीन आयतें पढ़िए या एक आयत जो कि छोटी तीन आयतों के बराबर हो।


रुकू : अब "अल्लाहु अकबर" कह कर रुकू कीजिए यानी झुक जाइए। रुकू में ज्यादा न झुकें बल्कि थोड़ा झुकें यानी सिर्फ इस कदर कि हाथ घुटनों तक पहुंच जाए, पीठ सीधी न करें और घुटनों पर जोर न दें बल्कि महज हाथ रख दें और हाथों की उंगलियां मिली हुई रखें और पांव कुछ झुका रखें मर्दों की तरह खूब सीधा न कर दें। रुकू में नज़र अपने क़दमों पर रखिए और कम से कम तीन बार "तस्बीह" पढ़िए :


"सुब्हान रब्बियल अज़ीम" (पाकी बयान करता हूं मैं अपने परवरदिगार की)।


फिर "तस्मीअ"  'समि अल्लाहु लिमन हमिदह' (अल्लाह ने उसकी बात सुन ली जिसने अल्लाह की तारीफ़ की)


कहती हुई खड़ी हो जाइए और "तहमीद" पढ़िए


'रब्बना लकल हम्दु' (ऐ हमारे पालने वाले! सब तारीफें तेरे ही लिए हैं)


अब इसके बाद "तकबीर" 'अल्लाहु अकबर' कहती हुई सज्दे में जाइए और कम से कम तीन बार "तस्बीह" पढ़िए :


'सुब्हान रब्बियल अअ़ला' (मैं अपने परवरदिगार की पाकी बयान करती हूं जो बहुत बुजुर्गी वाला है)


सज्दा : औरतें सिमट कर सज्दा करें यानी बाजू करवटों से मिला दें। और पेट रान से और रान पिंडलियों से पिंडलियां जमीन से। सज्दे में जाते वक्त पहले घुटना, फिर दोनों हाथ ज़मीन पर रखिए और उंगलियों को खूब मिला लीजिए। सज्दे में अपनी नज़र नाक पर रखिए फिर "अल्लाहु अकबर" कहती हुई उठ कर बायें कूल्हे पर बैठ जाइए और दोनों पांवों को दाहिनी तरफ निकाल दीजिए, दोनों हाथ रानों पर रख लीजिए, ये एक सज्दा हुआ। औरतें कादा (बैठक) में बाएं कदम पर न बैठें बल्कि दोनों पांव दाहिनी जानिब निकाल दें और बाएं सुरीन (पुट्ठा) पर बैठें। अब फिर "अल्लाहु अकबर" कहती हुई इसी तरह दूसरा सज्दा कीजिए और "अल्लाहु अकबर" कहती हुई सीधी खड़ी हो जाइए। उठते वक्त ज़मीन पर हाथ टेक करके न उठिए, ये एक रकात नमाज़ हुई। इसी तरह दूसरी रकात भी पढ़िए। मगर 'सुब्हाकल्लाहुम्मा' और 'अऊजु बिल्लाह' न पढ़िए, 'बिस्मिल्लाहि कहकर 'अल्हम्दु' यानी सूर: फातिहा पूरी और कोई दूसरी सूर: या कुरआन पाक की कम से कम एक बड़ी या तीन छोटी आयतें पढ़िए, बाकी सब कुछ पहले रकात की तरह पढ़िए।


बैठना (जलसा) :

दूसरी रकात का आखिरी सज्दा कर लेने के बाद बैठने के बाद जो तरीका बताया गया है उसी तरीके पर बैठ जाइए, बैठने की हालत में नजर अपनी गोद में रखिए और तशहहुद (अत्तहीयात) पढ़ें। "अत्तहीयात" ये है :


'अत्तहीयातु लिल्लाही वस्सलवातु वत्तय्यिबातु अस्सलामु अलैक अय्युन्ननबीयु व रहमतुल्लाहि व बर कातुहु अस्सलामु अलैना एबादिल्ला हिस्सालिहीन अश्हदु अल्लाइलाहा इल्लाहु व अश्हदु अन्न मुहम्मदन अब्दुहु व रसूलहु' (ज़ुबान से, बदन से और माल से जो इबादत होती है सब अल्लाह के लिए है। या नबी आप पर सलाम हो, और अल्लाह की रहमत और उसकी बरकतें हों। हम पर और अल्लाह के नेक बंदों पर भी सलाम हो। मैं गवाही देता हूं कि कोई माबूद नहीं सिवाय अल्लाह के और मैं गवाही देता हूं कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बेशक अल्लाह के बंदे और रसूल हैं।)


"अत्तहीयात" पढ़ते वक्त जब 'अश्हदु अल्लाइलाह' में जब 'ला' के करीब पहुंचिए तो दाहिने हाथ की बीच की उंगली और अंगूठे का हल्का बनाइए यानी उंगली और अंगूठे का किनारा मिला लीजिए और छंगुलिया और उसके पास वाली को हथेली से मिला लीजिए और लफ़्ज़े 'ला' पर पर कलिमा की उंगली उठाइए मगर उसको हिलाइए नहीं। और कलिमा 'इल्ला' पर पर गिरा दीजिए और सब उंगलियां फौरन सीधी कर लें अब अगर दो से ज्यादा रकात पढ़नी है तो उठकर खड़ी हो जाइए और इसी तरह पढ़िए मगर फ़र्ज़ों की उन रकातों में अल्हम्दु के साथ सूरत मिलाना जरूरी नहीं अब पिछला कादा (बैठक) जिसके बाद नमाज़ ख़त्म करेंगी उसमें तशहहुद यानी 'अत्तहीयात' के बाद दुरुद शरीफ़ पढ़ें :


'अल्लाहुम्मा सल्लि अला सय्यिदना मुहम्मदिंव व आला आलि सय्यिदिना मुहम्मदिन कमा सल्लैत अला सय्यिदना इब्राहीम व आला आलि सय्यिदना इब्राहीमा इन्न क हमीदुम्मजीद।

अल्लाहुम्मा बारिक अला सय्यिदना मुहम्मदिंव व आला आलि सय्यिदिना मुहम्मदिन कमा बारक त अला सय्यिदना इब्राहीम व आला आलि सय्यिदना इब्राहीमा इन्न क हमीदुम्मजीद।


(ऐ अल्लाह! रहमत नाज़िल कर  सैयदना हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर और सैयदना हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि की औलाद पर, जैसे रहमत नाज़िल की तूने सैयदना हज़रत इब्राहीम और सैयदना हज़रत इब्राहीम की औलाद पर।' बेशक तू तारीफ़ के लायक और बेहद बुजुर्गी वाला है।


ऐ अल्लाह! बरकत नाज़िल कर  सैयदना हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर और सैयदना हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि की औलाद पर, जिस तरह बरकत नाज़िल की तूने सैयदना हज़रत इब्राहीम और सैयदना हज़रत इब्राहीम की औलाद पर।' बेशक तू तारीफ़ के लायक और बेहद बुजुर्गी वाला है।)


दुरूद शरीफ़ के बाद ये दुआ पढ़िए :


'अल्लाहुम्मा इन्नी जलमतु नफ्सी जुलमन कसीरव्व ला युग्फिरुज्जुनूब इल्ला अन्त फगफिरली मगफिरतम मिन अन्दिक वअर्हमनी इन्नक अन्तल गफूरुर्रहीम' (ऐ अल्लाह! बेशक मैंने अपनी जान पर बड़ा ज़ुल्म किया और तू ही गुनाहों को बख्शता (माफ़ करता) है तू बख्श दे मेरे लिए अपने पास से माफ़ी और रहम कर मेरे ऊपर। बेशक तू ही बहुत बख्शने वाला बड़ा मेहरबान है।)


या कोई दूसरी दुआए मासूरा पढ़ें। इसके बाद दाहिने कंधे की तरफ मुंह करके "अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि" (आप पर सलाम हो और अल्लाह की रहमत) कहें फिर बाएं तरफ। अब नमाज़ पूरी हो गई‌।

सलाम करते वक्त ये ख्याल कर लीजिए कि मैं फरिश्तों को सलाम कर रही हूं। अब हाथ उठा जो भी दुआ चाहें मांगिए। दुआ मांग कर दोनों हाथ मुंह पर फेर लीजिए।


नोट : ये दो रकात वाली नमाज़ की तरकीब थी, अगर तीन या चार रकात वाली नमाज़ है तो खाली 'अत्तहीयात' पढ़कर फौरन (तुरंत) खड़ी हो जाइए। दुरूद न पढ़िए बाकी रकात इसी तरह पूरी कर लीजिए।


याद रखिए फ़र्ज़ नमाज़ की तीसरी और चौथी रकात में 'अलहम्दु' के बाद सूरत नहीं पढ़ी जाती है, खाली 'अलहम्दु' पढ़कर रुकू और सज्दा कर लीजिए‌ और आखिरी रकात के बाद बैठकर फिर 'अत्तहीयात' पढ़िए और उसके बाद दुरूद शरीफ़ और दुआ पढ़कर सलाम फेरिए और हाथ उठाकर दुआ मांगिए।


नोट : औरतें भी खड़ी होकर नमाज़ पढ़ें। फ़र्ज़ और वाजिब जितनी नमाज़ें बगैर उज्र बैठकर पढ़ चुकी हैं उनकी कज़ा करें और तौबा करें। औरत मर्द की इमामत हरगिज़ नहीं कर सकती और सिर्फ औरतें जमात करें यह मकरूह तहरीमी और नाजायज़ है। औरतों पर जुमा और ईदैन की नमाज वाजिब नहीं।


फ़र्ज़ नमाज़ के बाद की दुआ:


'अल्लाहुम्म अन्तस्सलामु व मिनकस्सलामु व इलैक यरजिउस्सलामु हय्यिना रब्बना बिस्सलामि व अदखिलना दारस सलाम तबारक त रब्बना व तआ लै त या ज़ल जलालि वल इकराम' (इलाही तू सलामती वाला है और जो सलामती है तुझ ही से है और तेरी तरफ सलामती रुजुअ़ होती है ए खुदा हमको सलामती और अमन के साथ ज़िंदा रख और दाखिल कर हमको जन्नत में बरकत वाला है तू ए हमारे रब और तेरा मर्तबा बुलंद है।)


नमाज़ की शर्तों का बयान


नमाज़ की छह शर्तें हैं। जिनके बगैर नमाज़ सिरे से होती ही नहीं।


1. तहारत यानी नमाज़ी के बदन, कपड़े और उस जगह का पाक होना कि जिस पर नमाज़ पढ़े।


2. सतरे औरत यानी मर्द को नाफ से घुटनों तक छुपाना और औरत को सिवाए चेहरा, हथेली और कदम के पूरा बदन छुपाना। औरत अगर इतना बारीक दुपट्टा ओढ़ कर नमाज़ पढ़े कि जिस से बाल की स्याही चमके तो नमाज़ न होगी जब तक उस पर कोई ऐसी चीज़ न ओढ़े कि जिससे बाल का रंग छुप जाए।


3. इस्तिक्बाले क़िब्ला यानी नमाज़ में क़िब्ला की तरफ़ मुंह करना। अगर क़िब्ला की सम्त में शुब्हा हो तो किसी से दरयाफ़्त करले मगर कोई दूसरा मौजूद न हो तो गौरो फिक्र के बाद जिधर दिल जमे उसी तरफ मुंह करके नमाज़ पढ़ लें। फिर अगर बादे नमाज मालूम हुआ कि क़िब्ला दूसरी सम्त था तो कोई हर्ज नहीं नमाज़ हो गई।


4. वक्त यानी लिहाजा वक्त से पहले नमाज़ पढ़ी तो न हुई जिसका बयान तफसील के साथ पहले गुजर चुका है।


5. नीयत यानी दिल के पक्के इरादा के साथ नमाज़ पढ़ना जरूरी है और ज़ुबान से नीयत के अल्फाज़ कह लेना मुस्तहब है इसमें अरबी की कुछ तख़सीस नहीं उर्दू वगैरा में भी हो सकती है। और यूं कहे नीयत की मैंने, नीयत करती हूं न कहे।


6. तकबीरे तहरीमा यानी नमाज़ के शुरू में 'अल्लाहु अकबर' कहना शर्त है।


शरीअत के नज़र से फ़र्ज़, वाजिब, सुन्नत और हराम का बयान


सवाल : फ़र्ज़ और वाजिब किसे कहते हैं?

जवाब : फ़र्ज़ वह काम है कि उसको जानबूझकर छोड़ना सख्त गुनाह और जिस इबादत के अंदर वह हो बगैर उसके वह इबादत दुरुस्त न हो।‌ और वाजिब वह काम है कि उसको जानबूझकर छोड़ना गुनाह और नमाज़ में कस्दन छोड़ने से नमाज़ का दोबारा पढ़ना जरूरी और भूल कर छूट जाए तो सज्दये सह्व लाज़िम।


सवाल : सुन्नते मुअक्कदा और सुन्नते गैर मुअक्कदा किसे कहते हैं?

जवाब : सुन्नते मुअक्कदा वह काम है कि जिस का छोड़ना बुरा और करना सवाब है और इत्तिफाकन छोड़ने पर इताब और छोड़ने की आदत कर लेने पर मुस्तहिक्के अज़ाब। और सुन्नते गैर मुअक्कदा वह काम है कि उसका करना सवाब और न करना अगरचे आदतन हो इताब नहीं नहीं मगर शरअन ना पसंद हो।


सवाल : मुस्तहब व मुबाह किसे कहते हैं?

जवाब : मुस्तहब वह काम है जिसका करना सवाब और न करने पर कुछ गुनाह नहीं। और मुबाह वह काम है कि जिसका करना और न करना बराबर हो।


सवाल : हराम और मकरूह तहरीमी किसे कहते हैं?

जवाब: हराम वह काम है कि जिसका एक बार भी जानबूझकर करना सख़्त गुनाह है और उससे बचना फ़र्ज़ और सवाब है। मकरुह तहरीमी वह काम है कि जिसे करने से इबादत नाकिस हो जाती है और करने वाला गुनाहगार होता है अगरचे उसका गुनाह हराम से कम है।


सवाल : मकरुह तंजीही और ख़िलाफ़े औला किसे कहते हैं?

जवाब : मकरुह तंजीही वह काम है कि जिसका करना शरीअत को पसंद न हो और उससे बचना बेहतर और सवाब हो। और ख़िलाफ़े औला वह काम है कि जिसका न करना बेहतर है और करने में कोई हर्ज और ऐताब नहीं।


नमाज़ के फ़र्ज़ (फराइज़) का बयान


नमाज़ में छह चीजें फ़र्ज़ हैं।

1. कियाम : इसका मतलब यह है कि खड़े हो कर नमाज़ अदा करना जरूरी है तो अगर किसी ने बग़ैर उज्र बैठकर नमाज़ पढ़ी तो न हुई। ख्वाह औरत हो या मर्द। हां नफ़ल नमाज़ बैठकर पढ़ना जाइज है।


2. किराअत : किराअत फ़र्ज़ है। इसका मतलब यह है कि फ़र्ज़ की दो रकातों में और वित्र, सुन्नत व नफ़ल की हर रकातों में कुरआन शरीफ़ पढ़ना जरूरी है तो अगर किसी ने इनमें कुरआन न पढ़ा तो नमाज़ न होगी। कुरआन शरीफ़ आहिस्ता पढ़ने का अदना (कम) दर्जा यह है कि खुद सुने अगर इस क़दर आहिस्ता पढ़ा कि खुद न सुना तो नमाज़ न होगी।


3. रुकू : रुकू का अदना दर्जा यह है कि हाथ घुटने तक पहुंच जाए। औरतें रुकू में ज्यादा न झुकें बल्कि थोड़ा झुकें यानी सिर्फ इस कदर कि हाथ घुटनों तक पहुंच जाए, पीठ सीधी न करें और घुटनों पर जोर न दें बल्कि महज़ हाथ रख दें और हाथों की उंगलियां मिली हुई रखें और पांव कुछ झुका रखें मर्दों की तरह खूब सीधा न कर दें।


4. दोनों सज्दा - पेशानी ज़मीन पर जमाना सज्दा की हकीक़त है। औरतें सिमट कर सज्दा करें यानी बाजू करवटों से मिला दें। और पेट रान से और रान पिंडलियों से पिंडलियां ज़मीन से।


5. कादए अख़ीरा - नमाज़ की रकातें पूरी करने के बाद अत्तहीयातु व रसूलुह तक पढ़ने की मिकदार तक बैठना फ़र्ज़ है। औरत कादा में बाएं क़दम पर न बैठें बल्कि दोनों पांव दाहिनी जानिब निकाल दें और बाएं सुरीन (पुट्ठा) पर बैठें।


6. खुरूजबिसुन्निही (अपने इरादे से नमाज़ खत्म करना) - कादए अख़ीरा के बाद कसदन मनाफीये नमाज़ कोई काम करने को खुरूजबिसुन्निही कहते हैं। लेकिन सलाम के अलावा कोई दूसरा मनाफी कसदन पाया गया तो नमाज़ का दोबारा पढ़ना वाजिब है‌।


नोट : अगर इनमें से कोई चीजें भी जानकर या भूल कर रह जाए तो सजदये सह्व करने से भी नमाज़ न होगी बल्कि दोबारा पढ़ना जरूरी होगा।


नमाज़ के वाजिबात का बयान


नमाज़ में यह चीजें वाजिब हैं

1. तकबीरे तहरीमा में लफ़्ज़े 'अल्लाहु अकबर' होना।

2. सूर: फातिहा यानी 'अल्हम्दु' पढ़ना।

3. फ़र्ज़ की दो रकातों में और सुन्नत, नफ़ल और वित्र की हर रकात में 'अल्हम्दु' के साथ सूरत या तीन छोटी आयत मिलाना।

4. फ़र्ज़ नमाज़ में दो पहली रकात में किरात करना।

5. 'अल्हम्दु' का सूरत से पहले होना।

6. हर रकात में सूरत से एक ही बार 'अल्हम्दु' पढ़ना, 'अल्हम्दु' व सूरत के दरम्यान किसी अजनबी का फासिल न होना।

7. किरात के बाद मुत्तसिलन (फ़ौरन) रुकू करना, दोनों सज्दों के दरम्यान कोई रुक्न फासिल न होना, तादील अरकान, कौमा यानी रुकू से सीधा खड़ा होना, जलसा यानी दोनों सज्दों के दरम्यान सीधा बैठना, कायदे ऊला में तशहहुद के बाद कुछ न पढ़ना, हर कादा में पूरा तशह्हुद पढ़ना, लफ्जे अस्सलाम दो बार कहना

8. वित्र में दुआए कुनूत पढ़ना। तकबीरे कुनूत।

9. हर वाजिब और फ़र्ज़ का उसकी जगह पर होना। रुकू का हर रकात में एक ही बार होना और  सुजूद का दो ही बार होना। दूसरी से पहले कादा न करना और चार रकात वाली में तीसरी बार कादा न होना, आयते सज्दा पढ़ी तो सज्दये तिलावत करना और सहव हो तो सज्दये सहव करना।

10. दो फ़र्ज़ या दो वाजिब या वाजिब फ़र्ज़ के दरम्यान तीन तस्बीह की मिकदार वक्फा न होना।


नमाज़ की सुन्नतों का बयान


नमाज़ की सुन्नतें यह हैं। तकबीरे तहरीमा के लिए हाथ उठाना और हाथों की उंगलियां अपने हाल पर छोड़ना तकबीर के वक्त सर न झुकाना और हथेलियों और उंगलियों के पेट का क़िब्ला रुख होना। तकबीर से पहले औरतों को सिर्फ मोढ़ों (कंधों) तक हाथ उठाना इसी तरह तकबीर कुनूत में भी करना। तकबीर के बाद फौरन हाथ बांध लेना, सना, तअव्वुज, तस्मिया पढ़ना और आमीन कहना और इन सबका आहिस्ता होना। रुकू में तीन बार 'सुब्हान रब्बियल अज़ीम' कहना औरतों का घुटनों पर हाथ रखना और उंगलियां कुशादा (खुली) न रखना। रुकू के लिए 'अल्लाहु अकबर' कहना। रुकू से उठने पर हाथ लटका हुआ छोड़ देना, रुकू से उठने पर 'समिअल्लाहु लिमन हमिदह' व 'रब्बना लकल हम्द' कहना। सज्दे के लिए और सज्दे से उठने के लिए 'अल्लाहु अकबर' कहना, सज्दा में कम से कम तीन बार 'सुब्हान रब्बियल अअ़ला' कहना, औरतों का बाजू करवटों से पेट रानों से रान पिंडलियों से और पिंडलियां जमीन से मिला देना। दोनों सज्दों में के दरम्यान तशहहुद की तरह बैठना और हाथों को रानों पर रखना, सज्दों में हाथों की उंगलियों का क़िब्ला रुख होना। औरतों का दोनों पांव दाहिनी तरफ निकाल कर बायें सुरीन (कूल्हे) पर बैठना, दाहिना हाथ दाहिनी रान पर और बायां हाथ बाईं रान पर रखना और उंगलियों को अपनी हालत पर छोड़ना, शहादत पर इशारा करना, कादए अख़ीरा में तशहहुद के बाद दुरूद शरीफ़ और दुआए मासूरा पढ़ना।


किराअत का बयान


नमाज़ में अगर सूरए फातिहा पढ़ने के बाद सूरत मिलाना भूल जाए और रुकू में याद आए तो खड़ी हो जाएं और सूरत मिलाएं फिर रुकू करें और आखिर में सजदए सहव करें।


नमाज़ फासिद करने वाली चीजों का बयान


नमाज़ फासिद करने वाली चीज़ें यह हैं कलाम करने से ख्वाह अमदन (जानबूझकर) हो या ग़लती या भूल कर। अपनी खुशी से बात करे या किसी के मजबूर करने पर बहर सूरत नमाज़ जाती रहेगी। ज़ुबान से किसी को सलाम करे या जानकर या भूलकर नमाज़ फासिद हो जाएगी। इसी तरह ज़ुबान से सलाम का जवाब देना भी नमाज़ को फासिद कर देता है। किसी की छींक के जवाब में 'यरहमुकल्लाह' कहा या खुशी की खबर सुनकर जवाब में 'अलहम्दुलिल्लाह' कहा या ताज्जुब में डालने वाली खबर सुनकर जवाब में 'सुब्हानल्लाह' कहा या बुरी खबर सुनकर जवाब में 'इन्ना लिल्लाही व इन्ना इलैहि राजिऊन' कहा तो इन तमाम मशक्लों में नमाज़ जाती रहेगी। 'अल्लाहु अकबर' की अलिफ को खींचकर 'आललाहु अकबर' या आकबर या अकबार कहना नमाज़ को फासिद कर देता है। इसी तरह 'अल्लाहु अकबर' की 'र' को 'द' पढ़ने से नमाज फासिद हो जाती है। आह, ओफ, उफ़, तुफ दर्द या मुसीबत की वजह से कहे या आवाज़ के साथ रोज और हुरुफ (अक्षर) पैदा हुए तो इन सब सूरतों में नमाज़ जाती रहेगी। लेकिन अगर मरीज की जुबान से बेइख्तियार आह या ओह निकले तो नमाज़ फासिद न हुई। इसी तरह छींक, खांसी, जमाही, और डेकार में जितने हुरुफ मजबूरन निकलतें हैं माफ हैं। दांतों के अंदर खाने की कोई चीज़ रह गई थी उसको निगल गया अगर चने से कम है तो नमाज़ मकरूह हुई और चने के बराबर है तो फासिद हो गई।  औरत नमाज़ पढ़ रही थी बच्चे ने उसकी छाती चूसी अगर दूध निकल आया तो नमाज़ जाती रही। नमाज़ी के आगे से गुजरना नमाज़ को फासिद नहीं करता ख्वाह गुजरने वाला मर्द हो या औरत मगर गुजरने वाला सख्त गुनाहगार होगा।


नमाज़ के मकरूहात का बयान


कपड़े, बदन के साथ खेलना, कपड़ा समेटना, उंगलियां चटकाना, आसमान की तरफ निगाह उठाना, जिस कपड़े पर जानदार की तस्वीर हो उसे पहनकर नमाज़ पढ़ना, तस्वीर का नमाज़ी के सर पर यानी छत में होना या लटका होना, इधर उधर मुंह फेर कर देखना, उलटा कुरआन शरीफ़ पढ़ना यह तमाम बातें मकरूह हैं।


वित्र की नमाज़ का बयान


नमाज़े वित्र भी उसी तरह पढ़ी जाती है जिस तरह और नमाज़ पढ़ी जाती है लेकिन वित्र की तीसरी रकात में 'अल्हम्दु' और सूरत पढ़ने के बाद मोंढे तक हाथ ले जाएं और 'अल्लाहु अकबर' कहती हुई हाथ वापस लाएं और सीना पर छाती के नीचे रखकर बांध लें। फिर दुआए कुनूत पढ़ें फिर उसके बाद और नमाज़ों के रुकू और सज्दा वगैरा करके सलाम फेर दें।


दुआए कुनूत - 'अल्लाहुम्मा इन्ना नस्तइनु क व नस्तगफिरु क व नुमिनु बि क व नतवक्कलु अलैक व नुसनी अलैकल खैर ल नश्कुरुक वला नक्फुरुक व नख्लउ व नतरुकु मैंयफजुरु क अल्ला हुम्म ईया का नअ्बुदु व ल क नुसल्ली व नस्जुदु व इलैक नसआ व नहफिदु व नरजू रहमत क व नख्शा अज़ाब क इन्न अज़ाब क बिल कुफ्फारि मुलहिक'

(ऐ अल्लाह! हम तुझ से मदद चाहते हैं, और तुझ से माफी मांगते हैं और तुझ पर ईमान लाते हैं और तुझ पर भरोसा रखते हैं और तेरी बहुत अच्छी तारीफ़ करते और तेरा शुक्र अदा करते हैं और तेरी नाशुक्री नहीं करते हैं और हम अलग कर कर देते हैं और छोड़ देते हैं उस शख्स को जो तेरी नाफरमानी करे। ऐ अल्लाह! हम तेरी ही इबादत करते हैं और तेरे ही लिए नमाज़ पढ़ते और सज्दा करते हैं और तेरी ही तरफ दौड़ते और लपकते हैं और तेरी रहमत की उम्मीद रखते हैं और तेरे अज़ाब से डरते हैं। बेशक तेरा अज़ाब काफिरों को मिलने वाला है।)


जिस औरत को दुआए कुनूत याद न हो वह यह दुआ पढ़े - 'अल्लाहुम्म रब्बना आतिना फिद्दुनियां हस नतौं वफिल आखिरति हस नतौं वकिना अज़ाबन्नार'


नोट : अगर दुआए कुनूत कसदन (जानबूझकर) कर न पढ़े तो नमाज़े वित्र फिर से पढ़ें और अगर भूल कर न पढ़े तो आखिर में सज्दा सहव करे।


अगर दुआए कुनूत पढ़ना भूल जाए और रुकू में याद आए तो न कियाम की तरफ लौटे और न रुकू में पढ़े बल्कि आखिर में सज्दा सहव करे।


सुन्नत और नफ़ल नमाज़ का बयान


नमाज़े सुन्नते मुअक्कदा : 2 रकात फ़ज्र के फ़र्ज़ से पहले, 4 रकात ज़ुहर के फ़र्ज़ से पहले और 2 रकात ज़ुहर के फ़र्ज़ के बाद, 2 रकात मग़रिब के फ़र्ज़ के बाद, 2 रकात इशा के फ़र्ज़ के बाद की नमाज़ सुन्नते मुअक्कदा हैं। इन सुन्नतों को 'सुन्नतुलहुदा' भी कहा जाता है।


नमाज़े सुन्नते गैर मुअक्कदा : 4 रकात अस्र के फ़र्ज़ से पहले, 4 रकात इशा के फ़र्ज़ के पहले, मगरिब की नमाज के बाद 6 रकात सलातुल अव्वाबीन, 2 रकात तहीयतुल वुजू, 2 रकात तहीयतुल मस्जिद (केवल मर्दों के लिए), 2 रकात नमाज़े इशराक, कम से कम 2 रकात नमाज़े चाश्त और ज्यादा से ज्यादा 12 रकात, कम से कम दो रकात नमाज़े तहज्जुद और ज्यादा से ज्यादा 8 रकात,  सलातुत्तसबीह, नमाज़े इस्तिखारा, नमाज़े हाजत वगैरा इन सुन्नतों को 'सुननुज्जवाइद' और कभी मुस्तहब भी कहते हैं।


तहीयतुल वुज़ू : मुस्लिम शरीफ़ में है कि नबी-ए-पाक हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया जो शख्स वुज़ू करे और अच्छा वुज़ू करे और जाहिर व बातिन से मुतवज्जेह होकर 2 रकात (नमाज़ तहीयतुल वुज़ू) पढ़े उसके लिए जन्नत वाजिब हो जाती है।


नमाज़े तहज्जुद : तहज्जुद की नमाज़ का वक्त इशा की नमाज़ के बाद सो कर उठे उस वक्त से तुलुये सुबह सादिक तक है। तहज्जुद की नमाज़ कम से कम 2 रकात है और नबी-ए-पाक हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से 8 तक साबित है। हदीस शरीफ़ में इस नमाज़ की बड़ी फज़ीलत आई है।


तरावीह की नमाज़ का बयान


रमजानुल मुबारक में तरावीह की नमाज़ मर्द और औरत सबके लिए सुन्नते मुअक्कदा है। उसका छोड़ना जाइज नहीं। तरावीह की 20 रकातें हैं। तरावीह की 20 रकातें दस सलाम से पढ़ी जाएं यानी हर दो रकात पर सलाम फेरें और हर तरावीह यानी 4 रकात पर इतनी देर बैठना मुस्तहब है कि जितनी देर में चार रकात पढ़ी हैं। तरावीह नमाज़ की नीयत इस तरह की जाती है - नीयत की मैंने 2 रकात नमाज़ तरावीह सुन्नत रसूलुल्लाह की अल्लाह तआला के लिए मुंह मेरा काबा शरीफ़ की तरफ 'अल्लाहु अकबर'।


कजा नमाज़ का बयान


किसी इबादत को उसके वक्ते मुकर्रह पर करने को अदा कहते हैं और वक्त गुजर जाने के बाद अमल करने को कजा कहते हैं। फ़र्ज़ नमाज़ों की कजा फ़र्ज़ है। वित्र की कज़ा वाजिब है। छह या उससे ज्यादा छूटी हुई नमाज़े पढ़ने के लिए कोई वक्त मुकर्रर नहीं है हां जल्द से जल्द पढ़ना चाहिए। देर नहीं करनी चाहिए। सूरज निकलने, सूरज डूबने और जवाल के वक्त कज़ा नमाज़ पढ़ना जाइज नहीं।


सज्दये सहव का बयान


सहव के माने हैं भूलने के। कभी नमाज़ में भूल से कोई खास खराबी पैदा हो जाती है उस खराबी को दूर करने के लिए कादाए अख़ीरा में दो सज्दे किए जाते हैं इनको सज्दये सहव कहते हैं।


सज्दये सहव करने का तरीका : सज्दये सहव का तरीका यह है कि आखिरी कादा (बैठक) में अत्तहीयातु व रसूलुहू तक पढ़ने के बाद सिर्फ़ दाहिनी तरफ सलाम फेर कर दो सज्दे करें फिर तशहहुद वगैरा पढ़कर सलाम फेर दें।


नोट : जो बातें कि नमाज़ में वाजिब हैं उनमें से किसी एक के भूल कर छूट जाने से सज्दये सहव वाजिब होता है। जैसे फ़र्ज़ की पहली या दूसरी रकात में अल्हम्दु या सूरत पढ़ना भूल गया या सुन्नत और नफ़ल की किसी रकात में अल्हम्दु या सूरत पढ़ना भूल गया या अल्हम्दु से पहले सूरत पढ़ दी तो इन सूरतों में सज्दये सहव करना वाजिब होता है। फ़र्ज़ छूट जाने से नमाज़ फासिद हो जाती है। किसी वाजिब को कसदन (जानबूझकर) छोड़ दिया तो सज्दये सहव से उस नुकसान की तलाफी नहीं होगी बल्कि नमाज़ को दोबारा पढ़ना वाजिब होगा। इसी तरह अगर भूलकर किसी वाजिब को छोड़ दिया और सज्दये सहव न किया जब भी नमाज का दोबारा पढ़ना वाजिब है। एक नमाज़ में कई वाजिब छूटने की सूरत में भी सहव के वही दो सज्दे काफी हैं।


बीमार की नमाज़ का बयान


अगर खड़े होकर नमाज़ नहीं पढ़ सकती कि मर्ज बढ़ जाएगा या देर में अच्छी होगी या चक्कर आता है या खड़े होकर पढ़ने से पेशाब का कतरा आएगा या बहुत शदीद दर्द नाकाबिले बर्दाश्त हो जाएगा तो इन सब सूरतों में बैठकर नमाज़ पढ़ें। अगर खादिम (नौकर) या लाठी या दीवार वगैरा पर टेक लगाकर खड़ी हो सकती हैं तो फ़र्ज़ है कि खड़ी होकर पढ़ें। अगर कुछ देर भी खड़ी हो सकती हैं अगरचे इतना हो कि खड़ी होकर 'अल्लाहु अकबर' कहले तो फ़र्ज़ है कि खड़ी होकर उतना कहे फिर बैठे वरना नमाज़ न होगी। बीमार के सबब अगर रुकू व सज्दा नहीं कर सकती हैं तो रुकू व सज्दा इशारा से करें मगर रुकू के इशारा से सज्दा के इशारा में सर को ज्यादा झुकाएं। अगर बैठ कर भी नमाज़ नहीं पढ़ सकतीं तो लेट कर नमाज़ पढ़ें इस तरह कि चित लेट कर क़िब्ला की तरफ़ पांव करें मगर पांव न फैलाएं बल्कि घुटना खड़ी रखें और सर के नीचे तकिया वगैरा रख कर जरा ऊंचा कर लें और रुकू सज्दा झुका कर इशारा से करें यह सूरत अफ़ज़ल है। और यह भी जाइज है कि दाहिने या बाएं करवट लेटकर मुंह क़िब्ला की तरफ़ करें।


मुसाफिर की नमाज़ का बयान


शरीअत में मुसाफिर वह शख्स है जो तीन रोज की राह जाने के इरादे से बस्ती (अपने रहने के स्थान) से बाहर हुआ। खुश्की में तीन रोज की मिकदार तकरीबन 92 किलो मीटर है। अगर कोई शख्स कार, ट्रेन या हवाई जहाज वगैरा से तीन दिन की राह थोड़े वक्त में तय कर ले तो मुसाफिर हो जाएगा ख्वाह कितनी ही जल्दी तय करे।


नोट : मुसाफिर पर वाजिब है कि कस्र करे यानी जुहर, अस्र और इशा की चार रकात वाली फ़र्ज़ नमाज़ को दो रकात पढ़े कि उसके हक़ में दो ही रकात पूरी नमाज़ है। अगर जानबूझकर चार पढ़ी और दोनों कादा (बैठक) किया तो फ़र्ज़ अदा हो गया और आखरी दो रकात नफ़ल हो गईं मगर गुनाहगार व मुस्तकि्केनार हुआ तौबा करे और दो रकात पर कादा न किया तो फ़र्ज़ अदा न हुआ। सुन्नतों में कस्र नहीं। अगर मौक़ा हो तो पूरा पढ़े वरना माफ है। मुसाफिर जब बस्ती की आबादी से बाहर हो जाए तो उस वक्त से नमाज में कस्र शुरू करे। मुसाफिर जब तक किसी जगह पंद्रह (15) दिन या इससे ज्यादा ठहरने की नीयत न करे या अपनी बस्ती में न पहुंच जाए कस्र करता रहे।


सज्दए तिलावत का बयान


कुरआन में चौदह मुक़ामात (जगह) ऐसे हैं कि जिन के पढ़ने या सुनने से सज्दा करना वाजिब होता है उसे सज्दए तिलावत कहते हैं। सज्दए तिलावत का मसनून तरीका यह है कि खड़ी होकर 'अल्लाहु अकबर' कहती हुई सज्दा में जाएं और कम से कम तीन बार 'सुब्हान रब्बियल अअ़ला' कहें फिर 'अल्लाहु अकबर'कहती हुई खड़ी हो जाएं बस।


कुर्बानी का बयान


सवाल : क़ुर्बानी करना किस पर वाजिब है?

जवाब : क़ुर्बानी करना हर मालिके निसाब पर वाजिब है।


सवाल : क़ुर्बानी का मालिके निसाब कौन है?

जवाब : क़ुर्बानी का मालिके निसाब वो शख़्स है जो साढ़े बावन तोला चांदी या साढ़े सात तोला सोना या इनमें से किसी एक की क़ीमत का सामाने तिजारत या सामाने ग़ैरे तिजारत का मालिक हो, या इनमें से किसी एक की क़ीमत भर के रुपया का मालिक हो और ममलूका चीजें हाजते असलीया से ज़ाइद हों, (यानी जिन चीजों का मालिक है वो चीजें असली ज़रूरत से ज़्यादा हों।


सवाल : मालिके निसाब पर अपने नाम से जिंदगी में सिर्फ़ एक मर्तबा क़ुर्बानी करना वाजिब है या हर साल?

जवाब : अगर हर साल मालिके निसाब हैं तो हर साल अपने नाम से क़ुर्बानी वाजिब है और अगर दूसरे की तरफ़ से भी करना चाहती हैं तो उसके लिए दूसरी क़ुर्बानी का इंतज़ाम करें।


सवाल : क़ुर्बानी करने का तरीक़ा क्या है?

जवाब : औरतें कुर्बानी का जानवर जिब्ह कर सकती हैं। कुर्बानी करने का तरीक़ा ये है कि जानवर को बाएं पहलू पर इस तरह लिटाएं के मुंह उसका क़िब्ला की तरफ़ हो और अपना दायां पांव उसके पहलू पर रखकर तेज़ छुरी लेकर ये दुआ पढ़े


اني وجهت وجهى للذى فطر السموات والارض حنيفا وما انا من المشركين، ان صلاتى و نسكى ومحياى ومماتى لله رب العالمين لا شريك له وبذلك امرت وانا من المسلمين اللهم منك و لك بسم الله الله اكبر،


इन्नी वज्जह्तू वज्हिया लिल्लज़ी फ़तरस्समावाती वल अर्दा हनीफ़व वमा अना मिनल मुशरिकीन, इन्ना सलाती व नुसुकी वमह’याया व ममाती लिल्लाही रब्बिल आलमीना ला शरीका लहू व बि ज़ालिका उमिर्तू व अना मिनल मुसलिमीन, अल्लाहुम्मा मिन्का व लका बिस्मिल्लाही अल्लाहु अकबर,


पढ़ कर ज़िबह करें फिर ये दुआ पढ़ें


اللهم تقبل منى كما تقبلت من خليلك ابراهيم عليه الصلاة والسلام و حبيبك محمد صلى الله تعالى عليه وسلم،


अल्लाहुम्मा तक़ब्बल मिन्नी कमा तक़ब्बलता मिन ख़लीलिका इब्राहीमा अलैहिस्सलातु वस्सलामू व हबीबिका मुहम्मदिन सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम,

अगर दूसरे की तरफ़ से क़ुर्बानी करे तो मिन्नी के बजाय मिन कहकर उसका नाम लें।


सवाल : साहिबे निसाब अगर किसी वजह से अपने नाम क़ुर्बानी ना कर सका और क़ुर्बानी के दिन गुज़र गए तो उसके लिए क्या हुक्म है?

जवाब : एक बकरी की क़ीमत उस पर सदक़ा करना वाजिब है।


सवाल : क्या क़ुर्बानी के चमड़े को अपने काम में ला सकती हैं?

जवाब : कुर्बानी के चमड़े को बाक़ी रखते हुए अपने काम में ला सकती हैं मसलन मुसल्ले बनाए या मश्कीज़ा वग़ैरह। मगर बेहतर यह है कि सदक़ा कर दें मस्जिद या दीनी मदरसे को दे दें या किसी ग़रीब को।


सवाल : क्या मस्जिद के लिए कुर्बानी का चमड़ा देना जाइज़ है?

जवाब : हां, मस्जिद के लिए कुर्बानी का चमड़ा देना जाइज़ है और बेचकर उसकी क़ीमत देना भी जाइज़ है लेकिन अगर चमड़े को अपने खर्च में लाने की नियत से बेचा तो अब उसकी क़ीमत को मस्जिद में देना जाइज़ नहीं।


अकीका का बयान


बच्चा पैदा होने के शुक्रिया में जो जानवर जिब्ह किया है उसे अकीका कहते हैं। जिन जानवरों को कुर्बानी में जिब्ह किया जाता है उन्हीं जानवरों को अकीका में भी जिब्ह किया जा सकता है। लड़का के अकीका में दो बकरा और लड़की के अकीका में एक बकरा जिब्ह करना मुनासिब है। अकीका में बड़ा जानवर जिब्ह किया जाए तो लड़का के लिए सात हिस्से में से दो हिस्से और लड़की के लिए एक हिस्सा काफी है। अकीका के लिए बच्चे की पैदाइश का सातवां दिन बेहतर है और सातवें दिन न कर सके तो जब चाहें करें सुन्नत अदा हो जाएगी।


जकात का बयान


जकात फ़र्ज़ है। उसी फरजीयत का इंकार करने वाला काफिर और अदा न करने वाला फासिक और अदायगी में देर करने वाला गुनाहगार मरदुदुश्शहादत (गवाही न देने के बराबर) है। जकात फ़र्ज़ होने की चंद शर्तें है। मुसलमान आकिल बालिग होना, माल बकदरे निसाब का पूरे तौर पर मिलकियत में होना, निसाब का हाजते अस्लीया और किसी के बकाया से फारिग होना, माले तिजारत या सोना चांदी होना और माल पर पूरा साल गुजर जाना। सोना चांदी के निसाब (मात्रा) में सोना का निसाब साढ़े सात तोला है जिसमें चालीसवां हिस्सा यानी सवा दो माशा जकात फ़र्ज़ है। चांदी का निसाब साढ़े बावन तोला है जिस में एक तोला तीन माशा छह रत्ती जकात फ़र्ज़ है। सोना चांदी के बजाय बाजार भाव से उनकी कीमत लगा कर रूपया वगैरा देना भी  जाइज है। सोना चांदी के जेवरात पर भी जकात वाजिब होती है। तिजारती (बिजनेस) माल की कीमत लगाई जाए फिर उससे सोना चांदी का निसाब पूरा हो तो उसके हिसाब से जकात निकाली जाए। अगर सोना चांदी न हो और न माले तिजारत हो तो कम से कम इतने रूपये हों कि बाजार में साढ़े बावन तोला चांदी या साढ़े सात तोला सोना खरीदा जा सके तो उन रूपर्यों की जकात वाजिब होती है। ज़िंदगी बसर करने के लिए जिस चीज की जरूरत होती है जैसे जाडे़ और गर्मियों में पहनने के कपड़े, खानादरी के सामान, पेशावरों के औजार और सवारी के लिए साइकिल और मोटर वगैरा यह सब हाजते अस्लीया में से हैं इनमें जकात वाजिब नहीं है। निसाब का दैन से फारिग होने का मतलब यह है कि मालिके निसाब पर किसी का बाकी न हो या इतना हो कि अगर बाकी अदा कर दे तो भी निसाब बचा रहे तो इस सूरत में जकात वाजिब है और अगर बाकी इतना हो कि अदा कर दे तो निसाब न रहे तो इस सूरत में जकात वाजिब नहीं। माल का पूरा साल गुजर जाने का मतलब यह है कि हाजते अस्लीया से जिस  तारीख को पूरा निसाब बच गया उस तारीख से निसाब का साल शुरू हो गया फिर साले आइन्दा उसी तारीख को पूरा निसाब पाया गया तो जकात देना वाजिब है। अगर दरमियाने साल में निसाब की कमी हो गयी तो यह कमी कुछ असर न करेगी।


जकात का माल इन लोगों पर खर्च किया जाए


जकात फकीर यानी वह शख्स कि जिसके पास कुछ माल है लेकिन निसाब भर नहीं है। मिसकीन यानी वह शख्स कि जिसके पास खाने के लिए गल्ला और बदन छिपाने के लिए कपड़ा भी न हो। कर्जदार यानी वह शख्स कि जिसके जिम्मा कर्ज हो और उसके पास कर्ज से फाजिल कोई माल बकदरे निसाब न हो। मुसाफिर जिसके पास सफर की हालत में माल न रहा उसे जरूरत भर को जकात देना जाइज है।


इन लोगों को जकात देना जाइज नहीं


मालदार यानी वह शख्स जो मालिकी निसाब हो, बनी हाशिम यानी हजरते अली, हजरते जाफर, हजरते अकील और हजरते अब्बास व हारिस बिन अब्दुल मुत्तलिब की औलाद को देना जाइज नहीं। अपनी नस्ल और फरा यानी मां, बाप, दादा, दादी, नाना, नानी वगैरह और बेटा, बेटी, पेाता, पोती नवासा, नवासी को जकात देना जाइज नहीं, औरत अपने शौहर को और शौहर अपनी औरत को अगरचे तलाक दे दी हो जब तक की इद्दत में हो जकात नहीं दे सकता, मालदार मर्द के नाबालिग बच्चे को  जकात नहीं दे सकता और मालदार की बालिग औलाद को जबकि मालिके निसाब न हो दे सकता है। किसी दूसरे मुरतद बद मजहब और काफिर को जकात देना जाइज नहीं है। सैयद को जकात देना जाइज नहीं इसलिए कि वह भी बनी हाशिम में से है। जकात का माल मस्जिद में लगाना, मदरसा तामीर करना या उससे मय्यत को कफन देना या कुआं बनवाना जाइज नहीं यानी अगर इन चीजों में जकात का माल खर्च करेगा तो जकात अदा न होगी (बहारे शरीयत)


इन लोगों को जकात देना अफ़ज़ल है

जकात और सदकात में अफ़ज़ल यह है कि पहले अपने भाई बहनों को दे फिर उनकी औलाद को फिर चचा और फूफियों को फिर उनकी औलाद को फिर मामू और खाला को फिर उनकी औलाद को फिर दूसरे रिश्तेदारों को फिर पड़ोसियों को फिर अपने पेशा वालों को फिर अपने शहर या गांव के रहने वालों को दे। और ऐसे तालिबे इल्म को भी जकात देना अफ़ज़ल है जो इल्मेदीन हासिल कर रहा हो बशर्तें कि यह लोग मालिके निसाब हों।


रोज़ा का बयान


सवाल : रोज़ा किसे कहते है?

जवाब : सुबह सादिक से  गुरूबे आफताब (सूरज डूबने) तक नीयत के साथ खाने पीने और जिमा (संभोग) से रूकने का  नाम रोज़ा है।


सवाल : रमज़ान शरीफ़ के रोज़े किन लोगों पर फ़र्ज़ है?

जवाब : रमज़ान शरीफ़ के रोजे हर मुसलमान आकिल, बालिग मर्द और औरत पर फ़र्ज़ हैं। उनकी फरजीयत का इंकार करने वाला काफिर और बिला उज्र छोड़ने वाला सख्त गुनाहगार और फासिक मरदूदुश्शहादत है, यानी उसकी गवाही काबिले कुबूल नहीं है। और बच्चे की उम्र जब दस साल हो जाये और उसमें रोज़ा रखने की ताकत हो तो उससे रोज़ा रखवाया जाए और न रखे तो मार कर रखवायें।


सवाल : किन सूरतों में रोज़ा न रखने की इजाजत है?

जवाब : जिन सूरतों में रोज़ा न रखने की इजाजत है उनमें से बाज यह हैं कि सफ़र यानी तीन दिन की राह के इरादा से बाहर निकलना लेकिन अगर सफ़र में मशक्कत न हो तो रोज़ा रखना अफ़ज़ल है। गर्भवती और दूध पिलाने वाली औरत को अपनी जान या बच्चे की जान को हलाक होने का अंदेशा हो तो रोज़ा न रखने की इजाजत है। मर्ज यानी मरीज को मर्ज बढ़ जाने या देर में अच्छा होने या तंदुरूस्त को बीमार हो  जाने का गालिब गुमान हो तो उस दिन रोज़ा न रखना जाइज है। शैखे फानी वह बूढ़ा कि न अब रोज़ा रख सकता हे और न आइंदा उसमें इतनी ताकत आने की उम्मीद है कि रख सकेगा तो उसे रोज़ा न रखने की इजाजत है। और हैज व निफास (मासिक) की हालतों में रोज़ा रखना जाइज नहीं है।


सवाल : क्या ऊपर बयान किए हुए लोगों को बाद में रोज़ा की कजा करना फ़र्ज़ हैं?

जवाब : हां उज्र खत्म हो जाने के बाद सब लोगों को रोज़ा की कजा करना फ़र्ज़ है और शैखे फानी यानी बूढ़ा अगर जाड़े में कज़ा रख सकता है । तो रखे वरना हर रोज़ा के बदले दोनों वक्त एक मिस्कीन को पेट भर खाना खिलाए या हर रोज़ा के बदले सदका-ए-फित्र की मिकदार मिस्कीन को दे दे।


सवाल : जिन लोगों को रोज़ा न रखने की इजाजत है क्या वह किसी चीज को खुलेआम खा पी सकते है?

जवाब : नहीं। उन्हें भी खुलेआम किसी चीज को खाने पीने की इजाजत नहीं।


सवाल : रमज़ान के रोज़े की नीयत किस तरह से की जाती है।

जवाब : नीयत दिल के इरादा का नाम है मगर जुबान से कह लेना मुस्तहब है अगर रात में नीयत करें तो यूं कहे "नवैतु अन असू म गदन लिल्लाहि तआला मिन फ रजि रमज़ान"  और दिन में नीयत करें तो यूं कहे "नवैतु अन असू म हाजल यौम लिल्लाहि तआला मिन फरजिरमाजना"।


सवाल : रोज़ा इफ्तार करने के वक्त कौन सी दुआं पढ़ी जाती है?

जवाब - यह दुआ पढ़ी जाती है : "अल्लाहुम्मा लक सुम्तु व बि क आमन्तु व अलैक तवक्कलतु व अला रिजकि क अफतरतु फगफिरली मा कद्दम्तु व मा अख्खरतु"।


रोज़ा तोड़ने और न तोड़ने वाली चीजों का बयान


इन चीजों से टूट जाता है रोज़ा


खाने और पीने से रोज़ा टूट जाता है जबकि रोज़ादार होना याद हो। हुक्का, सिगार, सिगरेट वगैरा पीने और पान या तम्बाकू खाने से भी बशर्ते कि याद हो रोज़ा जाता रहता है। कुल्ली करने में बिला इरादा पानी हलक से उतर गया या नाक में पानी चढ़ाया और दिमाग तक चढ़ गया या कान में तेल टपकाया या नाक में दवा चढ़ाईं अगर रोज़ादार होना याद है तो रोज़ा टूट गया गया वरना नहीं। कसदन (जानबूझकर) कर मुंह भर कै (उल्टी) की और रोज़ादार होना याद है तो रोज़ा जाता रहा। और मुंह भर न हो तो नहीं। और अगर बिला इख्तियार कै हो और मुंह भर न हो तो रोज़ा न गया और अगर मुंह भर हो तो लौटाने की सूरत में जाता रहा वर्ना नहीं। (बहारे शरीअत)। दांतों के दरमियान कोई चीज चने के बराबर या ज्यादा थी उसे खा लिया तो रोजा टूट गया। दांतों से खून निकल कर हल्क से नीचे उतरा और खून थूक से ज्यादा या बराबर या कम था मगर इसका मजा हल्क में महसूस हुआ तो रोजा टूट जाएगा। आंसू मुंह में चला गया और आप उसे निगल गईं। उसकी नमकीन पूरे मुंह में महसूस हुई। पसीना मुंह में चला गया और उसकी नमकीन पूरे मुंह में महसूस हुई। हमबिस्तरी (संभोग) करने से रोज़ा टूट जाता है, जबकि रोज़ादार होना याद हो।


इन चीजों से रोज़ा नहीं टूटता


भूलकर खाने पीने से रोज़ा नहीं टूटता, तेल या सुर्मा लगाने और मक्खी, धुंआ या आटे का गुबार (गर्दा) हलक में जाने से रोज़ा नहीं जाता, कुल्ली की और पानी बिल्कुल उगल दिया सिर्फ कुछ तरी मुंह में बाकी रह गयी थी थूक के साथ उसे निगल गया या कान में पानी चला गया या खंखार मुंह में आया और खा गया अगरचे कितना हो रोज़ा न जाएगा। इहतिलाम (स्वप्नदोष) हुआ या गीबत (चुगली) की तो रोज़ा न गया अगरचे गीबत सख्त कबीरा (बड़ा) गुनाह है। और जनाबत (नापाकी) की हालत में सुबह की बल्कि अगरचे सारे दिन जुनुब (नापाक) रहा रोज़ा न गया। मगर इतनी देर तक जानबूझकर गुस्ल न करना कि नमाज़ कजा हो जाए गुनाह और हराम है। बस या कार का धुआं या उनसे गुबार उड़कर हलक में पहुंचा अगरचे रोज़ादार होना याद था, रोज़ा नहीं जाएगा। तेल या सुरमा लगाया तो रोज़ा न गया, अगरचे तेल या सुरमा का रंग भी दिखाई देता हो जब भी रोज़ा नहीं टूटता। दांतों से खून निकलकर हल्क तक पहुंचा मगर हल्क से नीचे न उतरा तो इन सब सूरतों में रोज़ा न गया। थूक या बलगम मुंह में आया फिर उसे निगल गए तो रोज़ा न गया। जरुरत के लिए सूई लगवाने, ड्रीप चढ़वाने, खून निकलवाने से रोज़ा नहीं टूटता है।


रोज़े के मकरूहात

झूट, गीबत, चुगली, गाली देने, बेहूदा बात करने और किसी को तकलीफ देने से रोज़ा मकरूह हो जाता है।


सदका-ए-फित्र का बयान


हर मालिके निसाब पर अपनी तरफ से और अपनी हर नाबालिग औलाद की तरफ़ से एक-एक सदका-ए-फित्र देना ईदुल फित्र के दिन वाजिब होता है।  जिन लोगों को जकात देना जाइज है उनको सदका-ए-फित्र भी देना जाइज है और जिन लोगों को जकात देना जाइज नहीं उनको सदका-ए-फित्र देना जाइज नहीं।


निकाह का बयान


निकाह के अंदर जो चीजें रुक्न (फ़र्ज़) हैं वह सिर्फ दो हैं। कम से कम दो गवाहों का मौजूद होना और इजाजत व क़ुबूल। खुतबा व छुआरे बांटना सुन्नत है। दावते वलीमा करना भी सुन्नत है।


जो शख्स नान व नफका की कुदरत रखता हो अगर उसे यकीन हो कि निकाह नहीं करेगा तो गुनाह में मुब्तिला हो जाएगा तो ऐसे शख्स को निकाह करना फ़र्ज़ है। और अगर गुनाहगार का यकीन नहीं बल्कि सिर्फ खतरा है तो निकाह करना वाजिब है। और शहवत (लालसा) का बहुत गलबा न हो तो निकाह करना सुन्नते मुअक्कदा है। और अगर इस बात का खतरा है कि निकाह करेगा तो नान व नफका न दे सकेगा या निकाह के बाद जो फराइज मुतअल्लिका हैं उन्हें पूरा न कर सकेगा तो निकाह करना मकरुह है। और इन बातों का खतरा ही नहीं बल्कि यकीन हो तो निकाह करना हराम है। (दुर्रे मुख्तार, बहारे शरीअत)


इन औरतों से निकाह करना हराम है


मां, बेटी, बहन, फूफी, खाला, भतीजी, भांजी, दूध पिलाने वाली मां, दूध शरीकी बहन, सास, मदखूला बीवी की बेटी, नसबी बेटा की बीवी, दो बहनों को इकट्ठा करना, शौहर वाली औरत, काफिरा अस्लीया और मुरतद्दा बदमजहब इन सब से निकाह हराम है। इस मसअला की मजीद तफसील बहारे शरीअत वगैरा से मालूम करें।


नोट : अगर लड़का लड़की नाबालिग हों तो उनके वली की इजाजत से निकाह होगा।


इद्दत का बयान


बेवा (विधवा) औरत अगर हामिला (गर्भवती) हो तो उसकी इद्दत बच्चा पैदा होना है और अगर हामिला न हो तो उसकी इद्दत चार (4) माह दस दिन (10) है। और तलाक वाली औरत अगर हामिला हो तो उसकी इद्दत भी बच्चा जनना है। और तलाक वाली औरत अगर आइसा यानी पचपन (55) साला या नाबालिग हो तो उसकी इद्दत तीन (3) माह है। और तलाक वाली औरत अगर हामिला, नाबालिग या पचपन साला न हो यानी हैज वाली हो तो उसकी इद्दत तीन हैज है। चाहे यह तीन हैज या तीन माह या तीन साल या उससे ज्यादा में आये।


हज का बयान


मालिके निसाब औरतों पर हज फ़र्ज़ है। जिस औरत को अल्लाह तआला ने इतने रुपया और माल दिया हो कि वह मक्का मुकर्रमा तक अपने पैसे से आ जा सके और किसी किस्म का क़र्ज़ भी इस पर न हो या हो लेकिन क़र्ज़ की अदाएगी के बाद भी इतने रुपए इसके पास हैं तो उस पर हज फ़र्ज़ हो जाता है। ऐसी औरतों को जितना जल्द हो सके हज अदा कर लेना जरूरी है। मालिके निसाब पर ज़िंदगी में एक बार हज फ़र्ज़ है। औरत तंहा हज का सफ़र नहीं कर सकती बल्कि अपने साथ अपने किसी महरम या शौहर को साथ ले जाना होगा।


खाने का बयान


खाना खाने से पहले और बाद में दोनों हाथ गट्टों तक धोएं। सिर्फ एक हाथ या सिर्फ उंगलियां न धोएं तो सुन्नत अदा न होगी। खाने से पहले हाथ धोकर पोछना मना है और खाने के बाद हाथ धोकर पोंछ लें कि खाने का असर बाकी न रहे।


'बिस्मिल्लाह' पढ़कर खाना शुरू करें अगर शुरू में 'बिस्मिल्लाह' पढ़ना भूल जाएं तो जब याद आए तो यह दुआ पढ़ें 'बिस्मिल्लाहि फी अव्वलिही व आखिरिहि'। रोटी पर कोई चीज़ न रखी जाए और हाथ रोटी से न पोंछें। नंगे सर खाना अदब के खिलाफ है। खाना दाहिने हाथ से खायें बायें हाथ से खाना शैतान का काम है। खाने के वक्त बायां पांव बिछा दें और दाहिना खड़ा रखें या सुरीन पर बैठें। दोनों खाने के वक्त अच्छी बातें करते रहें। खाने के बाद उंगलियां चाट लें और बर्तन को भी उंगलियों से पोंछ कर चाट लें। खाने की शुरुआत नमक से की जाए और खत्म भी उसी पर करें कि उससे बहुत सी बीमारियां खत्म हो जाती हैं। खाने के बाद यह दुआ पढ़ें - ' अल्हम्दु लिल्लाहिल्लजी अत अम ना व सकाना व कफाना व ज अलना मिनल मुस्लिमीन'।


पीने का बयान

पानी बिस्मिल्लाह पढ़कर दाहिने हाथ से पानी पिएं। बायें हाथ से पीना शैतान का काम है और तीन सांस में पिएं हर मर्तबा बर्तन को मुंह से हटा कर सांस लें। पहली और दूसरी मर्तबा एक-एक घूंट पिएं और तीसरी सांस में जितना चाहें पी डालें खड़े होकर पानी हरगिज़ न पिएं। जब पी चुके तो 'अल्हम्दु लिल्लाह' कहें। पीने के बाद गिलास वगैरा का बचा हुआ पानी फेंकना इसराफ व गुनाह है।


पर्दे का हुक्म व लिबास (पहनावा) का बयान


जिन रिश्तेदारों के सामने चेहरा और हाथ पैर खुला रखने की इजाजत दी गई है इनके अलावा और जितने मर्द हैं उनके सामने खुले चेहरे के साथ औरत को आने की इजाजत नहीं है। किसी जरूरत से घर से बाहर जाना हो तो इस तरह बाहर निकलना चाहिए कि चेहरा नजर न आए। कुरआन शरीफ़ व हदीस शरीफ़ में पर्दे का हुक्म साफ तौर पर आया है। औरतों पर पर्दा करना फ़र्ज़ है। औरतें बहुत बारीक और चुस्त कपड़ा हरगिज़ न पहनें कि जिससे बदन के हिस्से जाहिर हों कि औरतों को ऐसा कपड़ा पहनना हराम है।


ज़ीनत (सिंगार) का बयान


औरतें सोना चांदी की हर किस्म की अंगूठियां और छल्ले पहन सकती हैं लेकिन दूसरी धातुओं की अंगूठी जैसे तांबा, पीतल, लोहा और जस्ता वगैरा तो यह मर्द और औरत दोनों के लिए नाजाइज है। लड़कियों को सोने चांदी के ज़ेवर पहनाना जाइज है। इसी तरह लड़कियों के हाथ पांव में मेंहदी लगाना जाइज है।


सोने का बयान

मुस्तहब यह है कि बावुजू सोयें और कुछ देर दाहिनी करवट पर दाहिने हाथ का रुखसार (गाल) के नीचे रखकर क़िब्ला की तरफ़ मुंह करके सोयें फिर उसके बाद बायें करवट पर। पेट के बल न लेटें। और पांव पर पांव रखना मना है जबकि चित लेटा हो। लड़का जब दस साल का हो जाए तो अपनी मां या बहन वगैरा के साथ न सुलाया जाए। दिन के शुरू हिस्सा में सोना या मगरिब व इशा के दरम्यान सोना मकरूह है। पश्चिम की तरफ पैर करके बिल्कुल न सोये क्योंकि उस सिम्त काबा शरीफ़ है और हमारे मुल्क में उत्तर जानिब पांव फ़ैलाकर सोना बिला शुबहा जाइज है। उसे नाजाइज समझना गलत है। और जब सो कर उठे तो यह दुआ पढ़ें :

'अलहम्दु लिल्लाहिल्लजी अहयाना बाद मा अमा त ना व इलैहिन्नुशूर'।


इसाले सवाब / नियाज़ व फातिहा


नियाज़, फातिहा और इसाले सवाब का माना किसी नेक अमल का सवाब मुसलमान मुर्दों को पहुंचाना है। ये बेहतर अमल है। फातिहा नियाज़ व इसाले सवाब का फायदा मुर्दों को पहुंचता है और पहुंचाने वाले के सवाब में कोई कमी नहीं आती। हर किस्म के नेक अमल रोज़ा, नमाज़, हज, सदका, खैरात वगैरह का सवाब मुर्दों को पहुंचा सकते हैं। इसाले सवाब, नियाज़ व फातिहा औरतें भी कर सकती हैं।


जिसका तरीका ये है:


जिस भी नेकी का सवाब पहुंचाना हो वो करने के बाद अल्लाह पाक की बारगाह में दुआ करें कि अल्लाह पाक इस नेकी के करने में हमसे जो गलती हुई हो उसे मुआफ फरमा, और इसे अपनी बारगाह में कुबूल फरमा, उसके बाद इसका सवाब प्यारे आका नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वआलिही वसल्लम की बारगाह में पेश करें प्यारे आका सल्लल्लाहु अलैहि वआलिही वसल्लम के सदके में सवाब तमाम नबियों, सहाबा और बुजुर्गों की बारगाह में पेश करें बिल आखिर जिसको सवाब पहुंचाना हो आका ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वआलिही वसल्लम और बुजुर्गाने दीन के वसीले से अल्लाह पाक की बारगाह में दुआ करें कि मैंने इस नेक अमल का सवाब फुला को बख्शा इसे कुबूल फरमा।


मसअला: किसी भी जायज चीज़ पर फातिहा कराना जायज़ है। जो अवाम में मशहूर में है कि मछली वगैरह पर फातिहा देना जायज़ नहीं गलत है। अलबत्ता फातिहा के लिए सुर्ती वगैरह दीगर बुरी चीज़ें रखना सख्त बुरा है ऐसा न करना चहिए।


मसअला: मुहर्रम में चौक पर फातिहा कराना भी जायज नहीं बल्कि घर में ही इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु के नाम की नियाज़ कराना चाहिए कि इससे घर में भी बरकत होगी।


मसअला: औरतें खुद मजारात पर न जाएं बल्कि अपने घर के मर्दों से शीरनी वगैरह भेज कर फातिहा करा दें या घर से ही फातिहा करके बुजुर्ग के वसीले से दुआ करें।


नोहा


यानी मरने वाले की तारीफ बयान करके आवाज़ से रोना, कपड़े फाड़ना, चूड़ियां फोड़ना, मुंह नोचना। ये सब काम सख्त जहालत वाले और हराम हैं, इस्लाम ने ऐसे कामों से मना किया है। हदीस शरीफ़ में है प्यारे आका सल्लल्लाहु अलैहि व आलिही वसल्लम ने फरमाया "जो मुंह पीटे, गिरेबान फाड़े और जाहिलियत का पुकारना पुकारे(यानी नोहा करे) वह हम में से नहीं।

{बुखारी व मुस्लिम}

मसअला: आवाज़ से रोना मना है, कि रोने वालों की आवाज़ की वजह से मुर्दों को तकलीफ होती है, हां आवाज़ न निकले तो इसमें हर्ज नहीं।

सोग (गम)

हदीस शरीफ में है "जिस मुसलमान मर्द या औरत पर कोई मुसीबत आई उसे याद करके *इन्ना लिल्लाही व इन्ना इलैहि राजिऊन* कहे अगरचे मुसीबत को ज़माना गुज़र गया हो तो अल्लाह तआला इस पर नया सवाब अता फरमाता है, और वैसा ही सवाब देता है जैसा उस दिन कि जिस दिन मुसीबत आई थी।"

मालूम हुआ की जब कोई मुसीबत, परेशानी, गम टूटे तो अल्लाह पाक से सब्र की तौफीक मांगनी चाहिए न कि उलूल जुलूल बातें कह कर अपने लिए गुनाह इकठ्ठा करना चाहिए।

• तीन दिन से ज्यादा सोग मनाना जायज़ नहीं मगर औरत शौहर के मरने पर चार महीने दस दिन सोग करे। {कानून ए शरीयत}


बराए मेहरबानी कोई कमी देखें तो जरूर इत्तिला करें। अल्लाह तआला मेरी गलतियों को नबी ए करीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के सदके माफ फरमाए। आमीन।

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