इफ्तार का दस्तरखान : मिट्टी के बर्तन और हर एक नेवाले में 50 घरों का स्वाद




-अधिकतर मस्जिदों व दरगाहों में रोजादार मिट्टी के बर्तन में करते हैं इफ्तार

-इस इफ्तारी के आगे छप्पन भोग भी फेल
सैयद फरहान अहमद
गोरखपुर। मुकद्दस रमजान में रोजेदार के लिए इफ्तार का समय अहम होता हैं। रोजेदार को खुदा के दिए हुए हलाल रिज्क से रोजा इफ्तार करना होता हैं। इसी इफ्तार में छुपी हुई हैं इस्लामी संस्कृति की एक अहम परंपरा। यह परंपरा मुकद्दस रमजान के तीस दिनों तक जारी रहती हैं। गरीब-अमीर सब इसमें शामिल होते हैं। इस परम्परा का मकसद सिर्फ मोहब्बत बांटकर सवाब कमाना हैं। यह संस्कृति आपको कश्मीर से कन्या कुमारी तक, हिन्दुस्तान के एक कोने से दुनिया के आखिरी कोने तक एक समान रुप से मिलेगी। यह संस्कृति हैं मुकद्दस रमजान  में घरों में तैयार इफ्तारी को मस्जिदों, दरगाहों में पहुंचाने की। यह कई सौ साल से चली आ रही परंपरा हैं। इसका मकसद हैं कि मुकद्दस रमजान में कोई भी शख्स शाम के वक्त भूखा न रहे, बल्कि बेहतरीन से बेहतरीन लुक्मा (नेवाला) उसके हलक से नीचे उतरे। यकीन जानिए शहर की किसी भी मस्जिद या दरगाह पर चलें जाईये करीब 30-50 घर से तैयार इफ्तारी आपको एक दस्तरखान व एक रिकाबी (प्लेट) में मिलेगी। हर लुक्मे  (नेवाला) में आपको अलग-अलग घरों का जायका (स्वाद) मिलेगा। यकीन न हो तो एक बार जरुर मस्जिद या दरगाह पर इफ्तार करके देखिए। यकीन जानिए पचास घरों का जायका आपकी एक प्लेट में होगा। इस इफ्तारी के आगे छप्पन भोग भी फेल नजर आयेगा। जब शाम की नमाज (असर) खत्म होती हैं उस वक्त से मस्जिदों व दरगाहों पर इफ्तारी पहुंचने का सिलसिला शुरु होता हैं। मस्जिद या दरगाहों पर एक जिम्मेदार होता हैं वह घरों से जितनी भी इफ्तारी आती हैं सबको एक जगह इकट्ठा करता हैं। शाम का एक घंटा बेहद दिलचस्प होता हैं। बच्चे, मुसाफिर, गरीब मस्जिद व दरगाहों में जमा हो होने लगते हैं। इफ्तारी आने का सिलसिला चल पड़ता हैं जो इफ्तार के अंतिम समय तक जारी रहता हैं। हर घर से आयीं इफ्तारी में से कॉमन चीजें मसलन चना, विभिन्न प्रकार की पकौड़ियां, कचौड़ियां, चिप्स पापड़, फल, खजूर, मिठाईयां, शर्बत, मटर, खीर, खस्ता, नमक पारा आदि को एक प्लेट में अलग-अलग रखा जाता हैं। चना की प्लेट में चना, पकौड़ियों की प्लेट में पकौड़िया रखीं जाती हैं। घर से भेजी गयी इफ्तारी में कुछ कॉमन तो कुछ भिन्न खाद्य पदार्थ होते हैं। सबको एक जगह इकट्ठा करने के बाद इन्हें जब बांटने का समय होता हैं तो सब अनुशासन से एक कतार में बैठ जाते हैं। उनके सामने एक मिट्टी का बर्तन होता हैं जिसे कूंडा कहा जाता हैं उसमें विभिन्न घरों से आयीं इफ्तारी मिला कर दी जाती हैं। यकीन जानिए इस इफ्तारी का हर एक लुक्मा दूसरे लुक्में से जुदा लगेगा। यानी हर लुक्मे में तीस या पचास घरों का जायका मिल जायेगा। मस्जिदों व दरगाहों पर कभी-कभी इफ्तारी ज्यादा हो जाती हैं तो गरीबों के घरों में पहुंचा दी जाती हैं। मुस्लिम समुदाय द्वारा दोस्त अहबाब, गरीबों के यहां इफ्तारी पहुंचाने व सामूहिक रोजा इफ्तार आयोजित करने की भी परंपरा हैं। यह सब करने के पीछे सिर्फ एक मकसद हैं खुदा को राजी करना, मोहब्बत भाईचारगी को बढ़ाना। मौका मिलें तो मस्जिद या दरगाह पर विभिन्न घरों की इफ्तारी एक प्लेट में चखें । जात-पात, धर्म का बंधन भी नहीं हैं। कोई भी आकर कर इफ्तारी में शामिल हो सकता हैं। आप भी कंधे से कंधा मिलाकर इफ्तार कीजिए। दुआ आपके जुबां से खुद बा खुद निकलेगी 'या इलाही यह फिजां ता कयामत कायम रहे'।


-गाजी मस्जिद गाजी रौजा मोहल्ले के ताबिश सिद्दीकी बतातें हैं कि मोहल्ले के करीब 30-50 घर प्रतिदिन मस्जिदों में इफ्तारी भेजते हैं। कभी-कभी इफ्तारी ज्यादा हो जाने पर गरीबों में भी भेजवायीं जाती हैं। यह मुसाफिर, बच्चे, गरीब सभी एक दस्तरखान पर लजीज व्यंजनों का जायका लेते हैं।


-सब्जपोश मस्जिद के इमाम हाफिज रहमत अली ने बताया कि मुकद्दस रमजान में इफ्तार के वक्त कोई भूखा नहीं रहे इसलिए  मुस्लिम समुदाय मस्जिदों, दरगाहो व घरों में इफ्तारी भेजते हैं। मस्जिद में कई दर्जनों घरों की इफ्तारी आती हैं। अलग-अलग जायकों की। यह इफ्तारी जायकों के साथ मोहब्बत व अकीदत की खुशबू भी अपने अंदर समाहित किए हुए रहती हैं।


-चिश्तिया मस्जिद बक्शीपुर के इमाम हाफिज महमूद रजा अजहरी बताते हैं कि हर रोज घरों से इफ्तार आती हैं। दो दर्जन से अधिक लोग मस्जिदों में इफ्तार भेजते हैं। कुछ इफ्तार में खाया जाता हैं कुछ सहरी के लिए बचा कर रख लिया जाता हैं। ज्यादा होने पर गरीब घरों में पहुंचा दिया जाता हैं। इफ्तार के वक्त मुसाफिर, बच्चे, बूढ़े,  गरीब, फकीर एक दस्तरखान पर इफ्तार खोलते हैं।


-मोहल्ला रहमतनगर जामा  मस्जिद के निकट रहने वाले अली गजनफर शाह बतातें हैं कि इस माह गरीब, फकीर सब अल्लाह के फज्ल से  बेहतरीन खाना खाते हैं। तकरीबन हर घर से इफ्तारी भेजी जाती हैं। लोग एक कतार में बैठ कर मस्जिद के डंके का इंतजार करते हैं। इसमें बच्चे, बूढ़ें, फकीर सब शामिल रहते हैं। मिट्टी के बर्तन में सब इफ्तार करते हैं और मिल कर नमाज अदा करते हैं। काश यह सिलसिला पूरे साल रहता तो शायद कोई भूखा न सोता।

-तिवारीपुर के राजिक हुसैन कहते हैं 30-40 घर से हर रोज मस्जिद खादिम हुसैन में इफ्तारी आती हैं। वहीं हसनैन मस्जिद घासीकटरा  के इमाम हाफिज रज्जब अली कहते हैं कि मस्जिद में डेली 50-60 घरों से इफ्तारी आती हैं। हाफिज रेयाज अहमद, मौलाना अफजल बरकाती, मुफ्ती मोहम्मद अजहर शम्सी कहते हैं कि मिट्टी के बर्तन में खाना नबी-ए-पाक की सुन्नत हैं।

-ये हैं नन्हें रोजेदार

गोरखपुर। रोजा रखने में बड़ों के साथ बच्चे भी आगे हैं। तिवारीपुर के रहने वाले मोहम्मद अली व शहाना के 9 वर्षीय पुत्र अरीश खान ने रमजान का पहला रोजा रखा। शाम को रोजा कुशाई हुई। खूब तोहफा मिला।

इसी तरह तकिया कवलदह सूर्य बिहार कालोनी के अजमल हुसैन के 7वर्षीय पुत्र मोहम्मद असद ने पहला रोजा रखा। तीसरी क्लास में पढ़ने वाले असद ने मम्मी-पापा के साथ सहरी खायीं। दिन भर इबादत की। शाम को लजीज पकवान से रोजा खोला। घर वालों ने खूब सारी दुआएं व तोहफे दिए।

आजाद नगर कालोनी रुस्तमपुर के रहने वाले अयूब अली व नाजमा बानो के 5 वर्षीय पुत्र अनस अली ने पहला रोजा रखा। सुबह सहरी कर दिन भर अब्बू से साथ इबादत की। घर वालों ने हौसला बढ़ाया तो वक्त का पता नहीं चला। इफ्तार के समय रोजा इफ्तार की पार्टी हुई। खूब तोहफा मिला तो अनस का चेहरा खिल गया।

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