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*गोरखपुर में शहीदों और वलियों के मजार बेशुमार*

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गोरखपुर शहर बहुत कदीम व तारीखी है। यहां शहीदों और वलियों के मजार बेशुमार हैं। ज्यादातर शहीदों के मजार का ताल्लुक हजरत सैयद सालार मसूद गाजी मियां अलैहिर्रहमां से है। इसके अलावा पहली जंगें आजादी के शहीदों के मजार कसीर तादाद में हैं। खैर।  दीवाने फानी किताब  में लिखा है कि बादशाह औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम शाह उर्फ बहादुर शाह प्रथम (1707-1712 ई.) ने गोरखपुर में नया शहर बसाया और अपने नाम से मंसूब करके *'मुअज्जमाबाद'* रखा। शहरनामा किताब के मुताबिक शहजादा मुअज्जम शाह ने ही मुहल्ला धम्माल, अस्करगंज, शेखपुर, नखास बसाया और रेती पर पुल (उस वक्त राप्ती नदी पर) बनवाया। *शहर में यह भी बुजुर्ग गुजरे हैं* 1. *मुहल्ला इलाहीबाग* के शाह बदरुल हक अलैहिर्रहमां (विसाल 25 रबीउस्सानी सन् 1971 ई. मजार - कच्ची बाग कब्रिस्तान) 2. *मुहल्ला घासीकटरा* के हजरत मौलवी अब्दुल जब्बार शाह अलैहिर्रहमां (विसाल 2 जून सन् 1989 ई. मजार - कच्ची बाग  कब्रिस्तान) 3. हजरत हजरत मौलवी जुमेराती शाह (विसाल 7 नवंबर सन् 1982 ई.) 4. *मुहल्ला बुलाकीपुर* के रहने वाले हजरत मोहम...

*गोरखपुर शहर के मोती जेल व खूनी कुएं में छुपी है शहादत की दास्तान*

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गोरखपुर। बसंतपुर स्थित मोती जेल या पुरानी जेल में दफन है शहादत की दास्तान। बाईपास से सटे सौदागार मोहल्ले के पीछे राप्ती नदी के तट पर लालडिग्गी सब स्टेशन के निकट एक बड़ी सी टूटी-फूटी ऐतिहासिक चाहरदीवारी है। जो मोती जेल या पुरानी जेल के चारों तरफ है। जो करीब 20 फीट ऊंची है। यह जेल ऐतिहासिक और कई सौ साल पुरानी है। कई लोग इसे राजा बसंत का महल या किला कहते हैं। सतासी राजा बसंत सिंह के (मोती जेल वाले हिस्से) महल या किले को सन् 1802 ई. में अंग्रेजों ने ध्वस्त कर उसे मोती जेल के रूप में परिवर्तित कर दिया था। यहीं से थोड़ी दूरी पर ऐतिहासिक बसंत सराय है। सन् 1857 ई. के बाद इस इमारत का उपयोग सरकारी जेलखाने के रूप में  किया जाता था। यहां कभी वतन पर जान न्यौछावर करने वालों को सजा दी जाती थी। यहां बेशुमार क्रांतिकारियों ने शहादत पायी। अंग्रेजों के सितम की पूरी दास्तान यहां मौजूद करीब डेढ़ सौ साल से अधिक पुराना पाकड़ का पेड़, खूनी कुआं, कई कब्रें व आज भी मौजूद पांच बैरेक बयां कर रहे हैं। मोती जेल में सन् 1857 ई. में अहम किरदार निभाने वाले राजा शाह इनायत अली को फांसी देकर शहीद किया गया।  क...

एक नजर : एक मकतब जो बन गया मियां साहब इस्लामियां इण्टर कालेज

गोरखपुर। मियां साहब इस्लामियां इंटर कालेज की बुनियाद 5 जनवरी 1908 को वाजिद हुसैन खां ने अपने मकान भुआ शहीद में मकतब अशातुल उलूम के रूप में रखी थी। आज वह कालेज दरख्त बन चुका है। कालेज में हिन्दी के साथ अंग्रेजी माध्यम से भी तालीम दी जा रही है। खुद का अपना आडोटोरियम है। खेल का भव्य मैदान है। तारीखी हवाले से एक मुताला कालेज का। सन् 1911 जार्ज अशातुल उलूम के रूप में कालेज को मान्यता मिली। कालेज सन् 1912 माह जून में हामिद साहब के मकान वर्तमान अलहेरा मुसाफिर खाना में स्थानान्तरित हुआ। सन् 1913 में मासूम खां के अहाता शेखपुर वर्तमान गीता प्रेस में स्थानान्तरित हुआ । सन् 1914 में जूनियर हाई स्कूल हुआ। रियाजुद्दीन इसके हेड मास्टर हुए। स्कूल की पहली मैनेजिंग कमेटी बनी। सदर खान बहादुर मोहम्मद खलील, डिप्टी कलेक्टर बने। सिक्रेटरी मौलवी निसारूल्लाह बने। सन् 1915 में शिक्षा विभाग से जूनियर हाई स्कूल की मान्यता प्राप्त मिली। सन् 1917 में मौजूदा बिल्डिंग बक्शीपुर में स्थानान्तरित हुई। सन् 1920 में जार्ज इस्लामिया हाई स्कूल हुआ। सन् 1923 में जार्ज इस्लामिया हाई स्कूल सोसाइटी  बनी। नई मैनेजिंग कमेट...

*गोरखपुर - सन् 1240 ई. में यानी 778 साल पहले मुहल्ला बहरामपुर बसाया मुस्लिम शासक बहराम मसऊद ने*

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*सन् 1030 ई. में हजरत सैयद सालार मसूद गाजी मियां अलैहिर्रहमां का गोरखपुर पर कब्जा हुआ* गोरखपुर। मुहल्ला बहरामपुर बहुत पुराना मुहल्ला है। शहरनामा किताब के लेखक डा. वेद प्रकाश पांडेय लिखते हैं कि 1240 ई. में मुस्लिम शासक बहराम मसऊद ने अपने नाम से *मुहल्ला बहरामपुर* 778 साल पहले बसाया।* शहरनामा किताब में लिखा है कि कुछ इतिहासकारों का मत है कि सन् 1030 ई. में हजरत सैयद सालार मसूद गाजी मियां अलैहिर्रहमां ने गोरखपुर पर अधिकार कर लिया था। गाजी मियां जनसामान्य में बाले मियां के नाम से जाने जाते है। बहरामपुर में मौजूद प्रतीकात्मक दरगाह पर हर साल जेठ के महीने में मेला लगता हैं जहां पर आस-पास के क्षेत्रों के अलावा दूर दराज से भारी संख्या में अकीदतमंद यहां आते है। एक माह तक चलने वाले मेले के मुख्य दिन अकीदतमंदों द्वारा पलंग पीढ़ी, कनूरी आदि चढ़ा कर मन्नतें मांगी जाती है। इस मेले को पूर्वांचल की गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल माना जाता है। हर साल लग्न की रस्म पलंग पीढ़ी के रूप में मनायी जाती है। ऐतिहासिक  प्रमाणों के मुताबिक हजरत सैयद सालार मसूद गाजी मियां अलैहिर्रहमां मजहब-ए-इस्ल...

*गोरखपुर - अकबर के सेनापति फिदाई खां ने 451 साल पहले बसाया हुमायूंपुर मुहल्ला *

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गोरखपुर। शहरनामा किताब के लेखक डा. वेद प्रकाश पांडेय लिखते हैं कि जौनपुर के शर्की शासकों का जब गोरखपुर पर कब्जा हुआ तो गोरखपुर को *'सूबा-ए-शर्किया'* कहा गया। फिर गोरखपुर को *'अख्तर नगर'* के नाम से जाना गया। यह बता पाना मुश्किल है कि ये अख्तर साहब कौन थे, जिनके नाम पर गोरखपुर को 'अख्तर नगर' की संज्ञा प्राप्त हुई। डा. दानपाल सिंह के मुताबिक बाबरनामा में गोरखपुर को *'सरवर'* नाम से पुकारा गया। शहरनामा में आगे लिखा है कि एक दौर वह भी था जब इसे *'गोरखपुर सरकार' कहा गया फिर इसके बाद *'मुअज्जमाबाद'* हुआ। अंत में अंग्रेजों के शासन काल (1801) में इसका नाम स्थायी तौर पर *'गोरखपुर'* स्वीकार किया गया। खैर। *मुहल्ला हुमायूंपुर* अकबर के सेनापति फिदाई खां ने मुगल सम्राट 'हुमायूं' के नाम पर सन् 1567 ई. यानी 451 साल पहले बसाया। डा. दानपाल सिंह लिखते हैं कि मुगलों का गोरखपुर पर आक्रमण सन् 1567 ई. में हुआ। मुगल सेना का नेतृत्व टोडरमल व फिदाई खां कर रहे थे। मुगल सेना ने सभी स्थानीय राजाओं को हरा कर जीत हासिल की। गोरखपुर में मुगलों की फौजी छा...

*गोरखपुर - आला हजरत के छोटे साहबजादे ने रखी थी मदरसा मजहरुल उलूम घोषीपुरवा व नूरी मस्जिद तुर्कमानपुर की नींव*

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गोरखपुर। चौदहवीं सदी के मुजद्दीद आला हजरत इमाम अहमद रजा खां अलैहिर्रहमां के छोटे साहबजादे हजरत मुस्तफा रजा खां अलैहिर्रहमां जिनको दुनिया मुफ्ती-ए-आजम हिंद के नाम से जानती है। उन्होंने मदरसा मजहरुल उलूम घोषीपुरवा की बुनियाद 25 नवंबर सन् 1978 ई. में रखीं। इस मदरसे को खोलने में हाजी अब्दुल गफूर, हाजी बारकल्लाह, मो. गनी, शौकत अली, जौहर अली, अलगू, मो. अली, सज्जाद अली, अनवर हुसैन, एड. मो. यूनुस ने नुमाया किरदार निभाया। एक अंग्रेज पीेएफ मार्टिन की जमीन उसके बेटे यूजिन मार्टिन से 80 हजार रुपया में 7 मई 1978 को खरीदी गयीं। मार्टिन का यहां बंग्ला था। मदरसे की जमीन 80 डिस्मिल है। हाजी बारकल्लाह ने ठेले लेकर जगह-जगह से चंदा वसूला। उस जमीन पर मदरसा मजहरुल उलूम की नींव रखी गयी। मदरसा अब दरख्त की शक्ल ले चुका है। मदरसे की शानदार इमारत है। मदरसे के प्रागंण में औलिया जामा मस्जिद करीब सन् 2000 में कायम हुई। मदरसे का बड़ा मैदान है। हर साल भव्य दस्तारबंदी का जलसा होता है। इस वक्त मदरसे के प्रिंसिपल मौलाना अब्दुर्रब हैं। मदरसे में  अाला हजरत के उर्स पर जलसा करने की परंपरा है। मदरसे से निकले सैकड़ों ह...