*गोरखपुर - खूनीपुर (इस्माईलपुर) मुहल्ले में है अज़ीम बुजुर्ग हजरत शाह मुराद आलम की मजार*
गोरखपुर। मसायख-ए-गोरखपुर के लेखक सूफी वहीदुल हसन पेज 37, 38, 39 व 40 पर लिखते हैं कि तकरीबन सन् 1800 ई. में इस शहर गोरखपुर में एक कामिल बुजुर्ग, फकीर, हक आगाह शेखे तरीकत ने मारफत के दरिया पिलाये। जिनको यहां की आवाम आज भी *हजरत शाह मुराद आलम अलैहिर्रहमां* के नाम से जानती है। आपका पूरा नाम *हजरत मखदूम शाह इलाही बख्श (शाह मुराद आलम) था। आप हजरत मखदूम शाह सुब्हान टांडवी अलैहिर्रहमां के मुरीद थे। जुमला सलासिल में इजाजत व खिलाफत थी। बेशुमार मुरीद थे। जिनमें तालीमयाफ्ता गैर मुस्लिमों की भी खासी तादाद थीं। सूफियों की इंसान दोस्ती और खिदमते खल्क के जज्बे की बिना पर हर शख्स मुतास्सिर होता है। आप साहिबे हाल बुजुर्ग थे। आपकी सोहबते बाबरकत से कोई महरूम नहीं रहा सभी सैराब किया। हजरत शाह मुराद आलम शायर भी थे और मुराद तखल्लुस फरमाते थे। आपका दीवान मुराद सन् 1884 ई. में रियाजुल अखबार गोरखपुर से पहली बार छपा। जिस तरह दीवान मुराद अपने अंदर फारसी व उर्दू का कलाम लिए हुए है उसी तरह आपकी शायरी भी तसव्वुफ की तमाम रवायते कदीम अपने साथ लिए हुए है। दीगर सूफी शायरों की तरह उर्दू का कलाम, गजलों, नातों मनकबत से लबरेज है। नातों से हुब्बे रसूल का इजहार होता है और गजलों से नगमगी टपकती है। शेखे मसायख हजरत निजामुद्दीन औलिया अलैहिर्रहमां की शान में जो कलाम कहा गया है उससे आपकी वालहाना अकीदत का पता लगता है और शायरी की खूबियां नुमाया होती है। आपके हम असर शायर मौलवी अहमद अली रजवी थे जिन्होंने आपकी शायरी की सारी खूबियां अपने फारसी और उर्दू अलग-अलग दीवान मुराद की इसाअत पर तारीखी कताअ कह कर नुमाया कर दिया है। इसे दीवाने मारफत और इलहामी शायरी के लकब से नवाजा गया है। आपका दीवान बहुत मकबूल हुआ। इसकी मकबूलियत का सबूत यह है कि सन् 1897 ई. में ये दोबारा छापा। हजरत शाह मुराद आलम एक अल्लाह वाले थे जिन्होंने अदब की बुजुर्गों के सिलसिले की और अपनी मकबूल दुआओं के जरिए खल्के खुदा की बड़ी खिदमत की।आपने अपने खुलफा को बाहर भेज कर दीन की बड़ी तबलीग व इसाअत की। आपके बहुत से खुलफा थे। जिसमें हजरत मोहम्मद मासूम अलैहिर्रहमां बड़े ही बाकरामत बुजुर्ग हुए हैं। खलीफा हजरत मासूम का जिक्र 'दीवाने आसी' अल मारूफ बेएैनल मारूफ में भी आया है। हजरत शाह मुराद आलम का मजार मुहल्ला खूनीपुर (इस्माईलपुर) में है। आपका उर्स 28 जिलहिज्जा को बाद नमाज असर मनाया जाता है। *मियां साहब इमामबाड़ा के पहले सज्जादानशीन मरहूम सैयद अहमद अली शाह अपनी किताब 'महबूबुत तारीख' में लिखते हैं कि उनके समय में नगर में 52 मुहल्ले एवं चक थे। 36 की तादाद में तालाब थे। कई बाग-बगीचे भी थे। सन् 1860-63 ई. में गोरखपुर नगर के मुहल्ला खूनीपुर और शेखपुर हुसैन अली के संरक्षण में था। खूनीपुर मुहल्ले में शहीदों की मजारात मौजूद है। यह क्षेत्र गंजे शहीदां के नाम से जाना जाता है।*हजरत इस्माईल शाह अलैहिर्रहमां के नाम पर मुहल्ला इस्माईलपुर बसा। आपकी मजार काजी जी की मस्जिद इस्माईलपुर के निकट है। खूनीपुर में शेख झाऊं की मस्जिद भी कदीम व मशहूर है।मुहर्रम पर यहां से निकले वाली झांऊं की मेंहदी भी।
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