*गोरखपुर - मजार हजरत मामू-भांजे शहीद, हजरत सुब्हान शहीद, हजरत सैयद लतीफ शहीद वगैरह की निशानदेही 155 साल पहले दिलचस्प अंदाज में हुई*



गोरखपुर। शहर में बेशुमार शहीदों, मज्जूबों व मसायख-ए-इजाम के मजारात हैं। डोमिनगढ़ में रोहिन नदी के किनारे पर पुर बहार फिजां है। हजरत अब्दुल लतीफ शहीद अलैहिर्रहमां का बाकरामत मजार है। जो आज भी मर्जे खलाइक है और तालिबाने खैरों बरकत हाजिर रहते हैं। वहां बैठकर लिखने की प्रैक्टिस करने से बद खत (खराब लिखने वाला) आज भी खुश खत (अच्छा लिखने वाला) बन सकता है। इसकी निशानदेही व करामत का बयान 155 साल पहले मियां साहब इमामबाड़ा इस्टेट के पहले सज्जादानशीन हजरत सैयद अहमद अली शाह ने अपनी तीसरी मशहूर जमाना किताब *महबूबुत तारीख* में की है। जो 118 पन्नों की है। जो सन् 1863 ई. में छपीं। उसमें लिखते हैं 

*"मगर इसके उत्तर हैं अब्दुल लतीफ, डोमिनगढ़ है उनका मजार शरीफ, किनारे पर रोहिन के है मजार, है शोहरा बहुत खूब और पुरबहार, वहां लोग जाते हैं सब सैर को, है वहां फायदा साहिबे खैर को, जो वहां जाते हैं मश्क को बद रकम, तो कुछ दिन में होते हैं वह खुश कलम।*


फिर माधोपुरा में मौजूद हजरत सुब्हान शहीद अलैहिर्रहमां के बारे में कहते हैं *है माधोपुरा में भी सुब्हान शहीद, वहां जमा होती है खिलकत मजीद*


लालडिग्गी स्थित बंधे के पास हजरत मामू-भांजे शहीद अलैहिर्रहमां की मजार है उसके बारे में लिखते हैं *है यहां मामूं और भांजें शहीद, शहीदों में मशहूर हैं वो सईद*। 

*(बेहद महत्वपूर्ण - लालडिग्गी स्थित बंधे के पास हजरत मामू-भांजे मजार, कब्रिस्तान का मामला शहर के कब्रिस्तानों से बिल्कुल अलग हैं। यहां मजार और एक छोटी सी मस्जिद कायम है लेकिन कब्रिस्तान की तकरीबन 20 डिस्मील जमीन का कुछ अता-पता नहीं हैं। सब पर नाजायज कब्जा हो चुका है और मामला अदालत में जेरे गौर हैं। खादिम मोहम्मद हसन के अनुसार यह पूरी जमीन सरकार बहादुर कैसर हिंद के नाम से हैं। यहां ऐतिहासिक पुरानी जेल (मोती जेल) के कैदी को दफन  किया जाता था। हालांकि नाजायज कब्जे की वजह से कब्रों के निशान मिट गए हैं लेकिन आज भी यहां सैयद असद अली व आमिना खातून की कब्र मौजूद हैं। उन्होंने बताया कि लेखपाल के गैर जिम्मेदारान रवैया के सबब जमीन को बंजर में दर्ज कर दिया गया है। जिसके लिए कानूनी लड़ाई जारी है। उनका कहना है कि अगर कब्रिस्तान की बाउंड्री हो जाये तो न केवल अवैध कब्जे रुक जायेंगे बल्कि रोज-रोज के झगड़ों से सभी को निजात मिल जायेगी)*

हजरत मामू भांजे की मजार से पहले हजरत चीनी बख्श शाह अलैहिर्रहमां का मजार है। जो मज्जूब थे। आपकी करामत के चर्चे आम हैं। 


हजरत गालिब शहीद के बारे में लिखते हैं *है इस शहर के तो सिम्ते शुमाल, शहीदों में है बस अदीमुल मिसाल, है नाम उनका मशहूर गालिब शहीद, शहीदों में है बुजुर्ग व रसीद*


उसी तरह मशरिक में हजरत लाडले शाह अलैहिर्रहमां की मजार है। उनके बारे में कहते हैं कि *"मगर मशरिक में शहर के नामवर, शहीदों में हैं लाडले कामवर"*


हजरत मुबारक खां शहीद अलैहिर्रहमां के बारे में कहते हैं *मुबारज खां नामी नहीं दूर हैं, दक्किन शहर के खूब मशहूर हैं* अब यह मजार हजरत मुबारक खां के नाम से मशहूर है पहले जमाने के लोग इसे हजरत मुबारज खां शहीद के नाम से जानते थे। 


शहर से कुछ दूर मानीराम में हजरत आरिफ शहीद अलैहिर्रहमां की मजार है उनके बारे में अहमद अली शाह कहते हैं कि *मनीराम में भी हैं आरिफ शहीद, लेकिन वो हैं शहर से कुछ बईद, हैं वो भी बहुत साहिबे इख्तेसास, जियारत को जाते हैं वहां खासो आम*


शहर गोरखपुर पर ऐसी तमाम हस्तियों का साया है इसी की तर्जुमानी सैयद अहमद अली करते हैं *"तुफैल शहीदाने बाइज्जो शान, खुदा हाफिज शहर है बेगुमान, ये शहर उनके साये में मामूर है, हर एक की जुबां पर ये मजकूर है"* आगे लिखते हैं *"थे दाऊद चक में मियां शाह हयात, वो पुख्ता मसायख सुतूदा सिफात"* *"पर हासुंपूर में थे खैरात अली, थे सादात से व खफी व जली"* 

आगे लिखते हैं *"सब कहां कुछ लालो गुल में नुमाया हो गई, खाक में क्या सूरतें होंगी के पिनहा हो गई"*





*स्रोत - मसायख-ए-गोरखपुर लेखक - सूफी वहीदुल हसन* 4 अक्टूबर 2018

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