*गोरखपुर - सन् 1240 ई. में यानी 778 साल पहले मुहल्ला बहरामपुर बसाया मुस्लिम शासक बहराम मसऊद ने*
*सन् 1030 ई. में हजरत सैयद सालार मसूद गाजी मियां अलैहिर्रहमां का गोरखपुर पर कब्जा हुआ*
गोरखपुर। मुहल्ला बहरामपुर बहुत पुराना मुहल्ला है। शहरनामा किताब के लेखक डा. वेद प्रकाश पांडेय लिखते हैं कि 1240 ई. में मुस्लिम शासक बहराम मसऊद ने अपने नाम से *मुहल्ला बहरामपुर* 778 साल पहले बसाया।* शहरनामा किताब में लिखा है कि कुछ इतिहासकारों का मत है कि सन् 1030 ई. में हजरत सैयद सालार मसूद गाजी मियां अलैहिर्रहमां ने गोरखपुर पर अधिकार कर लिया था। गाजी मियां जनसामान्य में बाले मियां के नाम से जाने जाते है। बहरामपुर में मौजूद प्रतीकात्मक दरगाह पर हर साल जेठ के महीने में मेला लगता हैं जहां पर आस-पास के क्षेत्रों के अलावा दूर दराज से भारी संख्या में अकीदतमंद यहां आते है। एक माह तक चलने वाले मेले के मुख्य दिन अकीदतमंदों द्वारा पलंग पीढ़ी, कनूरी आदि चढ़ा कर मन्नतें मांगी जाती है। इस मेले को पूर्वांचल की गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल माना जाता है। हर साल लग्न की रस्म पलंग पीढ़ी के रूप में मनायी जाती है। ऐतिहासिक प्रमाणों के मुताबिक हजरत सैयद सालार मसूद गाजी मियां अलैहिर्रहमां मजहब-ए-इस्लाम को चौथे खलीफा हजरत अली रजियल्लाहु अन्हु की बारहवीं पुश्त से है। गाजी मियां के वालिद का नाम गाजी सैयद साहू सालार था। आप सुल्तान महमूद गजनवीं की फौज में कमांडर थे। सुल्तान ने साहू सालार के फौजी कारनामों को देख कर अपनी बहन सितर-ए-मोअल्ला का निकाह आप से कर दिया। जिस वक्त सैयद साहू सालार अजमेर में एक किले को घेरे हुए थे, उसी वक्त गाजी मियां 15 फरवरी 1015 ई. को पैदा हुए। चार साल चार माह की उम्र में आपकी बिस्मिल्लाह ख्वानी हुई। नौ साल की उम्र तक फिक्ह व तसव्वुफ की शिक्षा हासिल की। आप बहुत बड़े आलिम थे। आप बहुत बहादुर थे। आपकी शहादत असर व मगरिब के बीच इस्लामी तारीख 14 रज़ब 423 हिजरी में (बहुत ही कम उम्र में) हुई। आप हमेशा इंसानों को एक नजर से देखते थे। सभी से भलाई करते। दुनिया से जाने के बाद भी आपका फैज जारी है। आपका मजार शरीफ बहराइच शरीफ में है। अकीदतमंदों ने गोरखपुर में सैकड़ो साल पहले प्रतीकात्मक मजार बनायी। जो वक्फ विभाग में दर्ज है। यहां गाजी मस्जिद भी है। यहां सेहरा बाले का मैदान ईदगाह है जो शहर की बड़ी ईदगाह में शुमार होती है। गाजी मियां के नाम से मोहल्ला गाजी रौजा भी बसा है।
शहरनामा किताब में लिखा हुआ है कि 15वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मुगलों ने अलीनगर, जाफरा बाजार व नियामत चक बसाया। दीवाने फानी में लिखा है कि बादशाह औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम शाह उर्फ बहादुर शाह प्रथम (1707-1712 ई.) ने गोरखपुर में नया शहर बसाया और अपने नाम से मंसूब करके *'मुअज्जमाबाद'* रखा। शहरनामा किताब के मुताबिक शहजादा मुअज्जम शाह ने ही मुहल्ला धम्माल, अस्करगंज, शेखपुर, नखास बसाया और रेती पर पुल (उस वक्त राप्ती नदी पर) बनवाया। उर्दू बाजार भी आबाद करवाया। जौनपुर के शर्की शासकों का जब गोरखपुर पर कब्जा हुआ तो गोरखपुर को *'सूबा-ए-शर्किया'* कहा गया। फिर गोरखपुर को *'अख्तर नगर'* के नाम से जाना गया। यह बता पाना मुश्किल है कि ये अख्तर साहब कौन थे, जिनके नाम पर गोरखपुर को 'अख्तर नगर' की संज्ञा प्राप्त हुई। डा. दानपाल सिंह के मुताबिक बाबरनामा में गोरखपुर को *'सरवर'* नाम से पुकारा गया। शहरनामा में आगे लिखा है कि एक दौर वह भी था जब इसे *'गोरखपुर सरकार' कहा गया फिर इसके बाद *'मुअज्जमाबाद'* हुआ। अंत में अंग्रेजों के शासन काल (1801) में इसका नाम स्थायी तौर पर *'गोरखपुर'* स्वीकार किया गया। खैर।
*गोरखपुर का इतिहास आदि से आज तक के लेखक अब्दुर्रहमान* लिखते है कि सन् 1206 ई. में तुर्क सेनापति बख्तियार खिलाजी तथा इख्तियार खिलजी ने दो राज्यों के विजय के बाद गोरखपुर में कुछ सैनिकों को बसाया। गोरखपुर नगर में स्थापित *मुहल्ला बख्तियार* व *तुर्कमानपुर* का बसाव इसी काल खंड में प्रतीत होता है।
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