*गोरखपुर - कदीम मुहल्ला नखास जहां कुछ दूर पर है शहीद सरदार अली खां की मजार, साढ़े छह वाली गली व शाही रोटियों के होटल*

गोरखपुर। नखास शहर का कदीम (पुराना) मुहल्ला है। बादशाह औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम शाह ने धम्माल, अस्करगंज, शेखपुर, नखास बसाया और रेती पर पुल (उस वक्त राप्ती नदी पर) बनवाया। वास्तव में नखास मुहल्ला 'नख्खास' से बना है। मुगल काल में यह मवेशियों का बाजार था। मवेशियों में घोड़े भी शामिल थे। इसके अलावा यहां गुलामों की खरीद फरोख्त भी हुआ करती थी। 'नख्खास' का अर्थ ही है, मवेशियों का बाजार, घोड़ों का बाजार और गुलामों का बाजार। मगर इनके अलावा रोजमर्रा के इस्तेमाल की वस्तुएं भी यहां उपलब्ध थीं। रियाज खैराबादी ने नखास पर मुशतरी नाम की तवायफ का वर्णन अपने अखबार में किया है। यहीं से रियाज खैराबादी का साप्ताहिक अखबार 16 पन्नों का *फित्ना* और *फित्ना-इतरे-फित्रा* (सन् 1882 ई.) भी निकलता था। यहीं थोड़ी दूर पर है पहली जंगे आजादी (सन् 1857 ई.) के अजीम मुजाहिद शहीद सरदार अली खां अलैहिर्रहमां व बेहिसाब शहीदों की मजार। शहर का पुराना मुस्लिम होटल व मशहूर साढ़े छह वाली गली यहीं है। यहीं मिलती हैं सेवईयां और खजूरें बारह माह लगातार।

*शहीद सरदार अली खां की मजार*
नखास स्थित कोतवाली से हर कोई वाकिफ है। यह कभी मुअज्जम अली खां की हवेली हुआ करती थी। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहीद सरदार अली खां अलैहिर्रहमां उनके भाई रमजान अली खां व उनके परिवार वालों की मजारे यहां हैं यहां बेहिसाब शहीदों की मजारें हैं। शहीद सरदार अली खान पुत्र मुअज्जम अली खां अवध कोर्ट के रिसालादार यानी सैनिक कमांडर और बड़े जमींदार थे। जब सन् 1857 ई. में स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला भड़की तो गोरखपुर ने भी लब्बैक कहा। मीर मोहम्मद हसन व श्रीनेत राजाओं के नेतृत्व में सरदार अली खां ने जंग लड़ी। शहीद सरदार अली खां उनके भाई रमजान अली खां व खानदान वालों को फांसी पर चढ़ा दिया गया। हवेली को कोतवाती में तब्दील कर दिया गया। यहां मजार के पास कई मजारें है जो उनके परिजनों व अन्य शहीदों की है। यहां आकर अकीदतमंद खिराजे अकीदत जरूर पेश करते हैं।

*साढ़े छह वाली गली*
वरिष्ठ संवाददाता अजय श्रीवास्तव अपने एक लेख में लिखते हैं कि शहर की गलियां वहां की सभ्यता और संस्कृति की पहचान होती हैं। अपने शहर की कुछ गलियां भी कई यादों और संस्कृतियों को समेटे हुए हैं। भागदौड़ की जिंदगी के बीच गलियों की पहचान भले ही कुछ धूमिल हुई हो लेकिन लोग पुरानी यादों को संजोने की कोशिश करते हैं। करीब 46 वर्ष पहले हफीजुर्रहमान ने बदायूं से यहां आकर नखास और रेती के बीच स्थित एक गली में सस्ता क्लाथ हाउस नाम से छोटी सी दुकान खोलकर एक प्रयोग किया था। करीब 13 वर्षों तक उन्होंने हर कपड़ा साढ़े छह रुपये मीटर की दर से बेचा। कुछ दिनों बाद इस गली का नाम ही *साढ़े छह वाली गली* पड़ गया। गली की सभी दुकानों की होर्डिंग पर लिखा पता ‘6-1/2 वाली गली’ हफीजुर्रहमान को इंतकाल के बाद भी जिंदा रखे हुए है। यह गली सन् 1972 ई. से आबाद है। यहां सन् 1985 ई. तक साढ़े छह रुपये मीटर में बिकता था कपड़ा। करीब 4 से 8 फीट तक चौड़ी है गली। सन् 1972 से 1985 ई. तक हफीजुर्रहमान ने साढ़े छह रुपये की दर से यहां हर कपड़ा बेचा। अगल-बगल के आधा दर्जन दुकानदार भी साढ़े छह रुपये मीटर की दर से कपड़ा बेचने लगे। सन् 2005 ई. में हफीजुर्रहमान के इंतकाल के बाद उनके दोनों बेटे दुकान चला रहे हैँ। उनके बेटे जहीउर्रहमान का कहना है कि अब्बू कानपुर से 5.50 रुपये प्रति मीटर की दर से कपड़े लाते थे। किराए का खर्च निकालने के बाद 6.50 रुपये मीटर की दर से कपड़ों की बिक्री होती थी। हर दूसरे दिन कानपुर से एक ट्रक कपड़ा गली में पहुंचता था। सन् 1995 से लेकर 2005 ई. तक इस गली में वीडियो कैसेट और गाने के कैसेट की आठ दुकानें खुलीं। कुछ दिनों के लिए इसे वीडियो गली भी कहा जाने लगा। गली की सभी दुकानों पर साढ़े छह वाली गली लिखा है। डाक विभाग भी साढ़े छह वाली गली के नाम पर चिट्ठी पहुंचा देता है।हफीजुर्रहमान ने अपनी दुकान को नई पहचान देने के लिए शर्ट, पैंट, सलवार, समीज से लेकर सभी कपड़ों को साढ़े छह रुपये मीटर की दर से बेचा। सन् 1972 से लेकर 1985 ई. तक उन्होंने इस परम्परा को कायम रखा लेकिन महंगाई के चलते आगे नहीं बढ़ा सके। अब उनके लड़के जहीउर्रहमान और बशीउर्रहमान तीन-चार साल के अंतराल पर कटपीस के कपड़ों को साढ़े छह रुपये में बेचकर पिता के नाम को कायम रखे हुए हैं। साढ़े छह वाली गली में 75 दुकानें हैं। बमुश्किल दर्जन भर दुकानदार ही ऐसे हैं जो पिछले एक दशक से बाजार में हैं। कई दुकानदार ऐसे हैं जो दो-तीन साल में दुकानदारी छोड़कर दूसरे बाजार में चले जाते हैं।  अमूमन गली की दुकानें सुबह 10 बजे से लेकर रात 9 बजे तक खुलती हैं लेकिन रमजान के महीने में दुकानें 12 बजे तक गुलजार रहती हैं। कटपीस कपड़ों की बिक्री गली की खास पहचान है। अख्तर आलम बतातें हैं कि मुस्लिम धर्म से जुड़ी दीनी किताबें भी इस गली में मिलती हैं। कुरआन-ए-मजीद, हदीस की किताबों के साथ ‘तारीखी नावेल’ के लिए गोरखपुर-बस्ती मंडल से लोग यहां पहुंचते हैं।

*अफगानिस्तान से गोरखपुर ऐसे पहुंची बाकरखानी*
नखास, मदीना मस्जिद, शाहमारूफ व जामा मस्जिद उर्दू बाजार की फिजां बेहद दिलकश नजर आती है। यहां की बनने वाली ब्रिरयानी, कोरमा, सीक कबाब, गोल कबाब, गलौटी कबाब सभी के पसंद है। इन लजीज व्यंजनो को चखने के लिए यहां विभिन्न प्रकार की रोटियां भी बेहद जायकेदार व मुगलिया है। तंदूर से गरमा गर्म निकलती हुई यह रोटियां बरबस ही आपको अपनी ओर खींचती है। जहां फुटकर में सैकड़ों के हिसाब से बाकरखानी, शीरमाल , नान, खमीरी रोटी, रूमाली रोटी, कुल्चा जैसी कई अन्य तरह की रोटियां मिल जाएंगी।
आज हम आपको एक ऐसी ही रोटी के बारे में आपको बता रहे है। जिसने अफगानिस्तान, बांग्लादेश, जौनपुर, बनारस का लम्बा सफर तय कर गोरखपुर में दस्तक दी। मुगल बादशाहों और बाद में नवाबों के बावर्ची खाने की शान माने जाने वाली बाकरखानी रोटी अपने जायके व खुबसूरती के लिए गोरखपुर के खान-पान में चार चांद लगा रही है। नवाबों ने खानपान के बहुत से व्यंजन चलाये हैं। इनमें बहुत प्रकार की रोटियां भी थीं। ऐसी ही रोटियां यहां के बाजार में आज भी मिलती हैं। विशेषज्ञ के अनुसार शाही खाने में गिनी जाने वाली बाकरखानी रोटी अमीरों के दस्तरखान की बहुत ही विशिष्ट रोटी थी। इसमें मेवे और मलाई का मिश्रण होता है। ये नाश्ते में चाय का आनन्द बढ़ा देती है। मुगलिया खान-पान विश्व प्रसिद्ध है। जो हिन्दुस्तान के खान-पान में रच बस गयी। मुगल सल्तनत के पतन के बाद उनके खान-पान की रिवायत को आगे बढ़ाया लखनऊ व जौनपुर के नवाबों ने। जब इन नवाबों का पतन हुआ तो इनके बावर्ची खाने में काम करने वाले खानसामों ने दूसरी राह पकड़ी। जौनपुर के नवाब युसूफ के यहां काम करने वालें खानसामों ने पहले बनारस और फिर गोरखपुर की राह पकड़ी। इन्हीं के साथ चला आया, नवाबों का पसंदीदा व्यंजन शहर में। इसी खास व्यंजन में जौनपुर के नवाब की पंसदीदा रोटी बाकरखानी भी है। जो शहर के खान-पान में रच बस गयी है। इस रोटी का सफर अफगानिस्तार, बांग्लादेश होते हुए हिन्दुस्तान के जौनपुर, बनारस से गोरखपुर तक का सफर करने में कई सौ साल लग गए।
नखास स्थित निजामियां होटल के शमशाद ने बताया कि इस रोटी का गोरखपुर आगमन करीब 90 साल पहले हुआ। पुरखें जौनपुर के नवाब के यहां खानसामा थे। जब नवाबों का पतन हुआ तो पुरखें बनारस चले गये। और अपने साथ लेते चले गए नवाब के बावर्ची खाने की प्रमुख व्यंजन। नवाब के बावर्ची खाने का स्वाद आज होटलों में जरूर देखा जा सकता है। पुरखों के साथ ही बाकरखानी जौनपुर से बनारस और फिर गोरखुपर आयी है। उन्होंने बताया कि दादा मरहूम जहूर ने अस्करगंज में तंदूर लगाया और यहीं से अपने लड़के मरहूम हाजी मोहम्मद निजाम के साथ रोटी तैयार कर शाही मस्जिद उर्दू बाजार की सीढियों पर फरोख्त करते थे। कुछ समय बाद नखास चौक पर दुकान मिल गयी। तब से नवाबों के पंसदीदा व्यंजनों की रवायत यहीं से आगे बढ़ने लगी। उन्होंने बताया बाकरखानी उप्र में केवल जौनपुर, बनारस व गोरखपुर में ही बनती है। इनके विभिन्न प्रकार है। अमूमन जो बाजार में बाकरखानी नजर आती है। उसे जाफरानी बाकरखानी कहते है। बाकरखानी की कीमत 10 रुपए से लेकर 110 रुपए तक है। बनारस में इसे बनारसी पराठा कहते है। इसके अलावा इसके प्रकार में शाहजहानी पराठा, मुगलिया रोटी, लच्छा पराठा, बनारसी पराठा, रोटी बाकर खानी, जाफारानी बाकरखानी आदि है। इसे हर व्यंजन के साथ खाया जाता है। उन्होंने बताया कि बाकरखानी का एक प्रकार जो खासो आम में मशहूर है उसे शिरमाल कहते है। इसे लखनऊ में इजाद किया गया। सात साल की उम्र से बाकरखानी बनाने वाले बनाने वाले धम्माल निवासी शफीउल्लाह उर्फ शब्बू ने बताया कि वह सात तरह की बाकरखानी बनाना जानते है। उन्होंने बताया कि बाकरखानी शाही, मनेरियम बाकरखानी, मिनी बाकरखानी, मेवे वाली बाकरखानी, रोगनी बाकरखानी, मैंगो पराठा व लच्छा पराठा बनाने में महारत रखते है। काफी सालों तक शाही मस्जिद उर्दू बाजार स्थित होटल हबीब में काम किया अब शादियों वगैरह में दूर-दराज बाकरखानी बनाने जाते है। उन्होंने बताया कि सबसे सस्ती बाकरखानी 10 रुपए की है तो वहीं सबसे महंगी बाकर खानी जिसे मैंगों पराठा कहते है 110 रुपए की है।
जामा मस्जिद शाही उर्दू बाजार के नीचे 25 सालों से होटल हबीब चलाने वाले वलीउल्लाह बताते है कि बाकरखानी की काफी डिमांड है। 10, 15, 20 रुपए की बाकरखानी बनती है। इस होटल में बेहतरीन किस्म के पकवान बनते है। काफी भीड़ उमड़ती है। रेती रोड मदीना मस्जिद के पास स्थित जफर होटल भी खानपान के मामले में फेमस है।






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