*गोरखपुर - जानिए पुराना गोरखपुर का इतिहास व मुगलिया मस्जिदों के बारे में*
*गोरखपुर - जानिए पुराना गोरखपुर व मुगलिया मस्जिदों का इतिहास*
गोरखपुर/ गोरखनाथ क्षेत्र मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र है, या यूं कहें कि यह क्षेत्र बुनकर बाहुल्य है। यहीं प्रसिद्ध गोरखनाथ मंदिर है। गोरखपुर-परिक्षेत्र का इतिहास किताब के लेखक डा. दानपाल सिंह लिखते हैं कि दसवीं शताब्दी के आस-पास गोरखपुर, राप्ती के उत्तर पश्चिम तटीय क्षेत्र पर एक टापू के रूप में अवस्थित था। जबकि 15वीं शताब्दी तक इसका फैलाव धीरे-धीरे गोरखनाथ मंदिर के आस-पास राप्ती नदी के मार्ग परिवर्तन के कारण हुआ। राप्ती एवं रोहिणी नदियों का प्रवाह तत्कालीन नगर के बीचों बीच होने के कारण इसका फैलाव गोरखनाथ मंदिर, पुराना गोरखपुर एवं उत्तरी हुमायूंपुर के आस-पास था। मुस्लिमकाल में राप्ती नदी और दक्षिण को स्थानान्तरित हो पुराने किले के उत्तरी भाग से बगुलादह तथा कौआदह होती हुई बिलन्दपुर के पश्चिम-दक्षिण भाग से रामगढ़ताल होती हुई प्रवाहित रही। राप्ती-रोहिणी की धाराओं के परिवर्तन के कारण धीरे-धीरे नगर का फैलाव बढ़ता गया। दसवीं शताब्दी में बाबा गोरखानाथ ने इस परिक्षेत्र में अपना तपोवन बनाया। खैर। गोरखपुर नगर कई बार बसा और उजड़ा है। चौदहवीं शताब्दी के मध्य में सतासी के राजा होरिल सिंह उर्फ मंगल सिंह (1296-1346 ई.) द्वारा गोरखनाथ मंदिर के निकट एक बस्ती बनायी गयी, जिसमें गोरखनाथ, माधोपुर एवं जटेपुर के क्षेत्र शामिल थे। जिसे वर्तमान में *पुराना गोरखपुर* कहते हैं, की स्थापना हुई। उन्होंने यहां एक महल भी बनवाया। तुर्कों का प्रभाव गोरखपुर के केवल सरयू के निकटवर्ती भाग पर ही था। सुल्तान फिरोज शाह तुगलक राजा जय सिंह (1346-1381 ई.) के शासन काल में गोरखपुर आया। राजा दिग्विजय सिंह (1381-1417 ई.) के समय गोरखपुर पर जौनपुर के शर्की सुल्तानों का अधिकार था। बाबरनामा में गोरखपुर का जिक्र है तब गोरखपुर को सरवर कहा जाता था। अकबर के शासनकाल में सन् 1567 ई. में मुगलों की सेना यहां आयीं। जिसका नेतृत्व टोडरमल तथा फिदाई खां कर रहे थे। सतासी राजा सुजान सिंह की हार हुई और उन्होंने गोरखपुर से राजधानी हटाकर भौवापार स्थापित कर लीं। मुगलों ने गोरखपुर में पहली बार फौजी छावनी स्थापित *(गोरखपुर का इतिहास आदि से आज तक के लेखक अब्दुर्रहमान गेहूंआ सागरी लिखते हैं कि मुगलों ने गोरखपुर में अपनी पहली फौजी छावनी मोगलहा (बीआरडी मेडिकल कालेज के निकट) बनायी। मुगल फौज की वजह से इस क्षेत्र का नाम मोगलहा या मुगलहा पड़ा। आज भी मोगलहा मौजूद है। चारगांवां में मुगल फौज की घुड़साल (अस्तबल) कायम थीं)* थी तथा यहीं से मुगलों ने पूरे जनपद पर अपना आधित्य स्थापित किया। इसी समय टोडरमल ने बाबा गोरखनाथ की समाधि एवं फिदाई खां ने एक मस्जिद बनवायी थी। अकबर ने जौनपुर की जागीर मुनीम खां को प्रदान कर दी थी। मुनीम खां ने पायन्दा महमूद बंगश को गोरखपुर में अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया। कुछ समय के लिए गोरखपुर जनपद अवध के स्थान पर जौनपुर के अन्तर्गत चला गया था। मुगल शासक द्वारा तांबे के सिक्के ढ़ालने का एक सरकारी टकसाल भी खोला गया। अकबर के समय गोरखपुर को *गोरखपुर सरकार* कहा जाता था। शहंशाह जहांगीर, शाहजहां के जमाने में भी गोरखपुर मुगलिया सल्तनत के अधीन रहा। शहंशाह औरंगजेब के जमाने में गोरखपुर पर मुगलों का ठोस कब्जा हुआ। शहंशाह औरंगजेब के निधन के बाद बहादुर शाह यानी मुअज्जम शाह शासक बना। जिसने गोरखपुर में मुगल सत्ता को सुदृढ़ करने के लिए अपने समय के सर्वाधिक योग्य सेनापति चिनकिलिचखां को गोरखपुर को फौजदार नियुक्त किया जो सन् 1710 ई. तक इस पद पर बना रहा। सन् 1712 ई. में मुगल बादशाह बहादुर शाह की मृत्यु हो गयी तथा इसके पश्चात् मुगल साम्राज्य पर किसी शक्तिशाली बादशाह का शासन नहीं हुआ। खैर। *तारीख मुअज्जमाबाद* किताब में लिखा है कि जमाना कदीम में मुस्लिम सूबेदारों ने रसूलपुर आबाद किया। बादशाह औरंगजेब के जमाने में नवाब फिदाई खां की सूबेदारी में पुराना गोरखपुर में मुफ्ती मुहम्मद हुसैन को बाग व मस्जिद के लिए जमीन मिली। *दबिस्ताने गोरखपुर* किताब में लिखा है कि शहजादा मुअज्जम शाह जब अपने वालिद शहंशाह औरंगजेब से नाराज होकर गोरखपुर चला आया और यहां कुछ दिनों ठहरा रहा। शहर को वीरान देखकर इसकी आबादकारी का हुक्म दिया और इसका नाम अपने नाम की निस्बत से मुअज्जमाबाद रखा। *दीवाने फानी* किताब में सैयद शाहिद अली सब्जपोश ने पेज नं. 5 पर लिखा है उनके खानदान के बड़े बुजुर्ग हजरत मीर सैयद कयामुद्दीन अलैहिर्रहमां जब गोरखपुर तशरीफ लाये तो शहंशाह शाहजहां की हुकूमत का आखिरी दौर था। जहां आप ठहरे यानी मौजूदा जाफरा बाजार का एरिया जंगल था। शहर उसके जानिबे शुमाल था। जहां एक मुहल्ला पुराना गोरखपुर आबाद था। शहंशाह औरंगजेब के जमाने में मुअज्जम शाह ने नया शहर बसाया और उसका नाम मुअज्जमाबाद रखा।
*1. रसूलपुर जामा मस्जिद क्षेत्रफल के हिसाब गोरखपुर की सबसे बड़ी मस्जिद है*
मुगल काल के समय में बनीं रसूलपुर जामा मस्जिद की नव तामींर 30 अक्टूबर 1987 से आधुनिक ढ़ंग से शुरू हुई। तब से शुरू हुआ यह सिलसिला 31 वर्षों से अभी तक इस मस्जिद में चल रहा है। यहां का सबसे बड़ा हाल सिर्फ दो खंभों पर बनाया गया है। इस मस्जिद के अंदर तीन हजार से अधिक नमाजी एक साथ नमाज पढ़ सकते हैं। ईद, ईदुल अजहा और अलविदा में 8 हजार नमाजी नमाज अदा करते हैं। मस्जिद के ऊपर बनायीं गई मीनार की ऊंचाई जमीन से 110 फीट है। मस्जिद के अंदर जाने के लिए पांच दर हैं। मस्जिद के सेक्रेट्री सगीर अहमद कादरी ने बताया कि मुगल काल के समय में रसूलपुर जामा मस्जिद बनायी गयीं। मस्जिद के अंदर जाने के लिए 12 दर थीं और 12 खंभों पर छत लगाये गये थे। मस्जिद के ऊपर 2 छोटी-छोटी मीनारें बनायीं गयीं थीं। 31 वर्ष पहले पुरानी मस्जिद की जगह नई मस्जिद की तामीर शुरु की गई तो खुदाई के समय की ईंटें मिलीं । इन ईटों पर वर्ष का उल्लेख था। अफसोस सारी ईटें मस्जिद में इस्तेमाल कर ली गयीं। जमीन के अंदर से बहुत बड़ी पक्की फर्श भी मिली थीं। मिट्टी के बर्तन व मस्जिद की पुरानी बुनियाद भी मिली थी। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि वर्तमान मस्जिद तीसरी बार तामीर हुई। खुदाई में मानव हड्डियों व मिट्टी के बर्तनों का मिलना और बहुत बड़ी फर्श का मिलना इस बात का संकेत है कि भूकंप की वजह से प्राचीन मस्जिद का वजूद खत्म हो गया हो। रसूलपुर जामा मस्जिद को पहले भी इसी नाम से जाना जाता था और आज भी इसी नाम से शोहरत है। पुरानी मस्जिद में चार सौ ही लोग एक साथ नमाज अदा कर सकते थे। स्थानीय निवासी मौलाना जहांगीर के अनुमान के मुताबिक मस्जिद करीब 60 फीट चौड़ी 100 फीट लंबी है। लेकिन यह क्षेत्रफल के लिहाज से यह गोरखपुर की सबसे बड़ी मस्जिद है। वहीं गोरखपुर की सबसे पुरानी मस्जिदों में भी इसका शुमार होता है। इस वक्त की बनीं मस्जिद बेहद खूबसूरत, बाकमाल व लाजवाब है।
*2. मुगलकालीन पुराना गोरखपुर की जामा मस्जिद पर था ईरानी फूल का निशान*
हिन्दुस्तान अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक मुगल काल में बनीं पुराना गोरखपुर गोरखनाथ स्थित जामा मस्जिद सैकड़ों साल पुरानी है। करीब 61 वर्ष पहले यहां पर नई मस्जिद तामीर कराई गई। पुरानी मस्जिद में अंदर जाने के लिए तीन दरवाजे और एक गुबंद था। गुंबद पर ईरानी चिन्ह कमल के फूल का निशान था। जिससे यह प्रतीत होता था कि यह शाही मस्जिद है। मस्जिद छोटी होने के कारण करीब सन् 1957 ई. में नई मस्जिद तामीर कराई गई। लोगों का कहना है कि पुरानी मस्जिद का गुंबद इतना मजबूत था कि सैकड़ों लोगों ने उसे तोड़ने में 6 से 8 दिन लगा दिए थे। पुराने लोग बताते हैं कि मुगल काल के समय में बादशाह जब कही घूमने जाते थे तो जहां उनका ठहराव होता था। वहीं पर वो मस्जिद बनवा देते थे। यहां पर भी मुगलों ने मस्जिद बनवाई थी। उस समय मस्जिद में एक साथ 300 से 400 लोग ही नमाज अदा कर पाते थे। संख्या बढ़ी तो पुरानी मस्जिद की जगह नई मस्जिद तामीर कराई गई। नई मस्जिद में 9 दर है और 30-30 फीट की 2 बड़ी मीनारें है। इसकी नक्काशी ऐसी कराई गई है कि चारों तरफ से हवा आ सके। इस समय मस्जिद में आम दिनों में करीब 2500 नमाजी नमाज अदा करते हैं। ईद, बकरीद और अलविदा में 5 से 6 हजार नमाजी नमाज अदा करते हैं।
*3. शाही जामा मस्जिद उर्दू बाजार 1120 हिजरी में बनीं*
मुगलिया सल्तनत की अजीमुश्शान निशानी ऐतिहासिक शाही जामा मस्जिद उर्दू बाजार है। करीब 320 सालों से पूर्वांचल के इतिहास में चार चांद लगा रही है। मुगल वास्तुकला की अनमोल धरोहर के रुप में इसका शुमार है। मुगल बादशाह मुअज्जम शाह का अज़ीम शाहकार है। मस्जिद आज भी अपने आन, बान और शान से मुगल सल्तनत के वकार को बयां कर रही। इसकी दरों दीवार में मुगलिया सल्तनत की वास्तुकला अद्भुत रुप से रची बसी नजर आती है। इस ऐतिहासिक मस्जिद के मेम्बर, मेहराब, सेहन, गुम्बद आलीशान है। इसका निमार्ण औरंगजेब के दूसरे पुत्र शाहजदा मुअज्जम शाह ने 1120 हिजरी में मुताबिक सन् 1698 ई. में इसका कराया था। हालांकि यह तामीर मुअज्जम शाह ने बादशाह बनने के पहले शुरू करायी। उसी ने यहां नया शहर बसाया और अपने नाम से मंसूब किया। जो पूरे सौ साल तक चला। औरंगजेब के दूसरे शाहजादे आजम शाह के नाम पर आजमगढ़ बना। गोरखपुर का असल शहर पुराना गोरखपुर था। उर्दू बाजार का भी निमार्ण बादशाह मुअज्जम शाह ने करवाया। यहां पर मुगलिया सेना रहती थी। सेना की सहूलियत के लिए उर्दू बाजार का निमार्ण कराया गया। यह फौज का बाजार था। उर्दू तुर्की शब्द है जिसका अर्थ होता है फौज या सेना का बाजार। एक तरह से यह जगह मुगलिया फौज की छावनी थी। इसी के लिए उर्दू बाजार बना । यहां पर तमाम तरह के सामान मिल जात थे। इसका निमार्ण फौज के चकलेदार या सूबेदार खलीलुर्रहमान के जेरे नजर शुरू हुआ। इन्हीं खलीलुर्रहमान के नाम पर खलीलाबाद शहर तामीर हुआ। वहां पर उन्होंने जामा मस्जिद, किला, नौ किलोमीटर लम्बी सुरंग व अयोध्या तक सड़का का निर्माण करवाया। बहरहाल दरिया-ए-राप्ती मस्जिद से सट कर बहती थी। इसलिए इसकी नींव को लम्बे क्षेत्रफल में बनाया गया। नींव बेहद मजबूत ताकि दरिया इसे नुकसान न पहुंचा सके। मस्जिद के निमार्ण से पहले सात कुंओं का निमार्ण कराया गया। जो रेती, लाल इमली, धम्माल, जामा मस्जिद के करीब एवं अन्य कुएं मस्जिद के अंदर बनाये गये। ताकि पानी की जरूरत पूरी की जा सके। उस जमाने में यह कुएं ही पानी का स्रोत थे। अब इन कुओं का वजूद खत्म हो गया है। कई सौ मजदूर लगाये गये। मिट्टी, सूर्खी चूने व उस जमाने की लाखौरी ईटों से इसका निमार्ण कराया गया। कई सालों में मस्जिद का निमार्ण सम्पन्न हुआ। इस मस्जिद की चौड़ाई उत्तर दक्षिण 90 फीट, पूरब पश्चिम करीब 80 फीट है। रेती पर केवल रेत ही रेत नजर आती थी। धीरे-धीरे दरिया का दायरा सिमटता गया। आबादी बसने लगी। अब यहां पर बड़ी आबादी हो चुकी है, लेकिन इसके बावजूद मस्जिद अपनी भव्यता व रौनक अपने अंदर उसी जलवे के साथ बरकरार रखे हुये है जो कई सौ साल पहले वजूद में थी। मस्जिद के तीन गुबंद अपनी भव्यता की जीती जागती निशानी है। वहीं मीनार व दरों दीवार पर मुगलिया नक्काशी दिलकश है। मस्जिद का दरवाजा भी अपनी शान को बयां करता है। मस्जिद की दो मीनारें थी। सन् 1934 के जलजले में एक मीनार शहीद हो गयी। दूसरी मीनार भी कमजोर हो गयी थी। इसलिए मीनारों को छोटा कर दिया। मस्जिद के तीन दरवाजे है पूरब, उत्तर, दक्षिण की ओर से। मस्जिद के अंदरूनी हिस्से में एक वक्त में छह सौ लोगों के नमाज पढ़ने की जगह है। एक सफ में करीब 80 आदमी खड़े हो सकते है। जब मस्जिद जर्जर होने लगी तो 20-25 साल पहले आगरा के अर्कियोलाजिस्ट वकार ने मुआयना करने के बाद इसके पुननिमार्ण कराने की सलाह दी। उन्होंने हिदायत दी की मस्जिद की दरों दीवार कमजारे हो चुकी है। इसमें एक कील भी न ठोकी जायें। तीनों मेहराब कमजोर हो चुकी है। मस्जिद की दीवारों में दरार पड़ने लगी। कमेटी ने उस समय ढ़ाई से तीन लाख रूपया खर्च कर इस धरोहर का बचाने की कोशिश की। कुछ साल पहले कमेटी व आवाम के सहयोग से इस ऐतिहासिक मस्जिद की मरम्मत की गई। अब यह मस्जिद 100-150 साल तक के लिये सुरक्षित हो गयी है। इस मस्जिद के जेरे नजर सात और मस्जिदें है। जिसमें संगी मस्जिद, सौदागार मोहल्ला, हांसूपुर, अखाड़े वाली मस्जिद, हाल्सीगंज की मस्जिद, महराजगंज जिले की जामा मस्जिद, मस्जिद मुसाफिर खाना शामिल है। इस वक्त मस्जिद के किरायेदार की सूची लम्बी है जिसमें विविध दुकानदार भी शामिल है।
*एक नजर बादशाह मुअज्जम शाह*
बहादुर शाह प्रथम मुअज्जम शाह का जन्म 14 अक्टूबर सन् 1643 ई. में बुरहानपुर भारत में हुआ। बहादुर शाह प्रथम दिल्ली (शहजादा मुअज्जम शाह) के सातवें मुगल बादशाह थे। यह बादशाह औरंगजेब के दूसरे पुत्र थे। पूरा नाम साहिब-ए-कुरआन मुअज्जम शाह आलमगीर सानी अबु नासिर सैयद कुतुबुद्दीन अबुल मुहम्मद मुअज्जम शाह आलम बहादुर शाह प्रथम पादशाह गाजी (खुल्द मंजिल) था। इनका राज्यभिषेक 19 जून 1707 ई. को दिल्ली में हुआ। शासन काल सन् 22 मार्च 1707 से 27 फरवरी 1712 ई. तक रहा। इनके शासन काल में मुगल सीमा उत्तर और मध्य भारत तक फैली थी। शासन अवधि 5 वर्ष रही। 68 साल की उम्र में इनका इंतकाल हुआ। उत्तराधिकारी बहादुर शाह जफ़र हुए। इनके आठ पुत्र और एक पुत्री थी। अपने पिता के भाई और प्रतिद्वंद्वी शाहशुजा के साथ बड़े भाई के मिल जाने के बाद शहजादा मुअज्जम ही औरंगजेब के संभावी उत्तराधिकारी थे। बहादुर शाह प्रथम को शाहआलम प्रथम या आलमशाह प्रथम के नाम से भी जाना जाता है। बादशाह बहादुर शाह प्रथम के चार पुत्र थे जहांदारशाह, अजीमुश्शान, रफीउश्शान और जहानशाह। इन्होंने गोरखपुर में बसंतपुर सराय का पुन: निर्माण कराया। हिजरी 1120 में जामा मस्जिद उर्दू बाजार का निमार्ण करवाया। इस साल इन्होंने सिल्वर का सिक्का भी चालू कराया। इसके अलावा इन्होंने दिल्ली की मोती मस्जिद भी बनवायीं।
*4. दाऊद चक (इलाहीबाग) की शाही मस्जिद*
इलाहीबाग स्थित शाही मस्जिद दाऊद चक मुगलकालीन दौर की स्थापत्य कला की याद दिलाती है। सैकड़ों वर्ष पूर्व बनी यह मस्जिद अभी भी लखौरी ईंट और सुर्खी चूने की बनी है। लोगों का कहना है कि कई आपदाओं को झेल चुकी इस मस्जिद में कोई दरार नहीं पड़ी की इसकी नवतामीर कराई जाय। मुगलों के समय बनी इस मस्जिद में विम और पाया नहीं है। उस समय की लखौरी ईंट (पतले-पतले ईंट) को एक दूसरे में फंसाकर पूरी मस्जिद तैयार की गई है। इस मस्जिद में मुगलों के समय की नक्काशी कराई गई है। मस्जिद के ऊपर बने तीन गुम्बद के स्पोर्ट के लिए एक पतली तख्ती बनाई गई है। सुर्खी चूने की बनी यह मस्जिद इतनी मजबूत है कि इसके छत पर एक बार काम के लिए मजदूर छीनी और हथौड़ी से निशान लगा रहे थे। छत तो नहीं टूटा लेकिन छीनी जरूर टूट गई। मुगलों ने इस मस्जिद को बनाने के लिए 3-3 इंच का लेयर बनाया हुआ है। यहां पर एक बार में 400 से 500 नमाजी नमाज अदा करते हैं। मस्जिद के आहाते में मियां साहब इमामबाड़े के बुजुर्ग हजरत रोशन अली शाह के भाई की मजार है इसके अलावा और भी मजारें हैं।
*5. ऐतिहासिक बसंतपुर सराय की शाही मस्जिद*
बसंतपुर सराय स्थित शाही मस्जिद भी ऐतिहासिक है। बादशाह मुअज्जम शाह ने ऐतिहासिक बसंतपुर सराय में शाही मस्जिद का निर्माण करवाया था। इस क्षेत्र के सूबेदार खलीलुर्रहमान पूरी फौज के साथ यहां रहा करते थे। नमाज की सहूलियत के मद्देनजर इसका निर्माण करवाया गया। मस्जिद ज्यादा बड़ी तो नहीं है। सूर्खी चूने से बनी मस्जिद अपने हुस्न कमाल में अनोखी है। इस मस्जिद की तामीर इतिहासकारों के मुताबिक करीब 300 साल पुरानी है। पहले सराय में मुसाफिर भी रुकते थे। यहीं पास में राप्ती नदी भी बहती थी। इसलिए इस मस्जिद का महत्व इतिहास में मिलता है। जामा मस्जिद उर्दू बाजार के साथ ही इसका निर्माण हुआ है। पुरातत्व विभाग की टीम ने दो तीन साल पहले इसका जायजा लिया था तो पाया था कि बसंतपुर सराय 400 साल पुरानी है उसी हिसाब से इस मस्जिद की उम्र 300 साल से ज्यादा है। इंटेक ने बसंतपुर सराय और मस्जिद के संरक्षण की योजना भी बनायी थी। लेकिन योजना परवान नहीं चढ़ी। बसंतपुर सराय करीब तीन एकड़ में है और इसमें 67 कोठरियां है। यहीं पर बसंतपुर शाही मस्जिद है। जो मुगलिया दौर की है और यहीं पर बाबा नासिर अली शाह की मजार भी है। मस्जिद सुन्नी वक्फ बोर्ड में दर्ज है। जिसका वक्फ़ नम्बर 1416 है व आराजी नं. 436 व 437 है। इसके अलावा शहर के तकिया कवलदह, कौड़ीराम में भी शाही मस्जिद है। इसके अलावा मुगलिया दौर की संगी मस्जिद भी है। जो बसंतपुर चौराहे पर है। जिसके बारे में विस्तार से बताया जा चुका है। खैर।
*अबु बाजार की कदीम मस्जिद 267 साल पुरानी है*
महानगर स्थित अबु बाजार ऊचवां स्थित मुगलकाल की मस्जिद मुगलकाल की नक्काशी को संजोए हुए है। करीब 267 साल (1173 हिजरी - सन् 1751 ई.) पुरानी ये मस्जिद कई बार भूखंप सहित अन्य त्रासदी को झेल चुकी है। बावजूद इसमें किसी प्रकार की कोई क्षति नहीं हुई। लोगों का कहना है कि इस मस्जिद में कोई नई तामीर नहीं कराई गई है। सिर्फ साफ-सफाई और पेन्टिंग होती है। अबु बाजार ऊचवां के रहने वाले अनवर कमाल बताते है कि ऊचवां मस्जिद में कोई बदलाव नहीं हुआ है। करीब 150 वर्ष पहले आए भूकंप में मस्जिद के ऊपर बने दो गुंबदों को उतरवा दिया गया लेकिन नीचे कोई बदलाव नहीं किया गया। इस मस्जिद में मुगल काल के समय के 4 से 5 फीट के फाटक लगे हुए है। दीवारे अभी भी सुर्खी चूने की ही बनी हुई है। इस मस्जिद के बगल में मजहबी नासिर लाइब्रेरी का निर्माण कराया गया है। जहां पर मुस्लिम वर्ग के लोग पहुंचकर किताबों को पढ़ते हैं। वहीं मस्जिद परिसर में दीनी मकतब का भी संचालन होता है। जहां 12-12 बच्चों का चार बैच चलता है।
*निजामपुर की कदीम मस्जिद करीब 155 साल पुरानी है*
निजामपुर स्थित मस्जिद जहूर अशरफ ने बनवायीं थीं। वह सन् 1863 ई. में निजामपुर के मालिक थे। यह मस्जिद मुगल काल के बाद की बनी है लेकिन नक्काशी मुगलों के जैसी है। कई त्रासदी झेल चुकी मस्जिद में कोई बदलाव नहीं हुआ है। अभी भी इसके गुबंद जस के तस है। करीब155 साल पुरानी यह मस्जिद कई बार भूकंप झेल चुकी है। लोगों ने बताया कि भूकंप के समय पूरी मस्जिद हीली लेकिन कोई नुकसान नहीं हुआ। यहां पर एक बार में 400 से 500 लोग ही नमाज अदा कर सकते हैं।
*गोरखनाथ की लड़कियों में आलिमा बनने का बढ़ा क्रेज*
-ज्यादातर है अच्छी वक्ता
-मुस्लिम महिलाओं की कर रही रहनुमाई
-मुस्लिम महिलाओं की समस्या होगी आसानी से हल
गोरखपुर।
जलसा नं. 1 - नार्मल स्थित दरगाह हजरत मुबारक खां शहीद पर 21 मई 2017 को मुस्लिम महिलाओं के सम्मेलन में मुस्लिम महिला धर्मगुरुओं (आलिमा) ने हजारों महिलाओं को संबोधित किया था। मंच से बोलने वाली ज्यादातर कम उम्र की शहर की आलिमा थी।
जलसा नं. 2 - खादिम हुसैन मस्जिद तिवारीपुर के निकट मैदान में 6 दिसम्बर 2017 को मुस्लिम महिला सम्मेलन में महिलाओं की रहनुमाई करने वाली ज्यादातर कम उम्र की आलिमा थी।
मुस्लिम महिलाओं की ऐसी बहुत सारी मजहबी समस्याएं होती है जो वह पुरुष मुस्लिम धर्मगुरुओं को बताने में संकोच व शर्म महसूस करती है और कतराती है। वहीं पुरुष मुस्लिम धर्मगुरु मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं को जलसे के स्टेज पर कहने में संकोच करते है। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि मुस्लिम महिलाओं की मजहबी समस्याओं का समाधान कैसे हो। मुस्लिम महिलाएं किसके सामने खुलकर अपनी बात रख सके। लेकिन अब मुस्लिम महिलाओं की तमाम मजहबी समस्याओं का हल मिलना शुरु हो चुका है। शहर की लड़कियों का रुझान मजहबी शिक्षा की तरफ तेजी बढ़ा है। शहर में अब मुस्लिम महिला धर्मगुरुओं (आलिमा) की तादाद बढ़ रही है। मुस्लिम महिलाएं मुस्लिम महिला धर्मगुरुओं के पास आसानी से अपनी समस्या कह ले रही है और समाधान भी पा रही है। शहर के मुस्लिम समाज में एक नए तरह का परिवर्तन देखने को मिल रहा है। जो एक बेहतर कल की ओर इशारा कर रहा है और यह भी संदेश दे रहा है कि मुस्लिम बेटियां मजहबी फिल्ड में भी बेटों से कम नहीं है। अभी आपने मुस्लिम समाज की बेटियों को डॉक्टर, इंजीनियर, वकील बनते सुना होगा लेकिन शहर की मुस्लिम बेटियों को आलिमा (मौलाना की डिग्री), मुफ्तिया (फतवा देने के लिए अधिकृत डिग्री), हाफिजा (पूरा कुरआन कंठस्थ करने पर मिलने वाली डिग्री) व कारिया (कुरआन बेहतरीन आवाज से पढ़ने में महारत हासिल होने पर मिलने वाली डिग्री) जैसी अहम मजहबी डिग्रीयां लेते हुए शायद ही सुना हो। मुस्लिम परिवारों में बहुत तेजी से परिवर्तन आ रहा है। मुस्लिम लड़कियों की रूचि उच्च मजहबी शिक्षा की तरफ बढ़ी है। शहर में 40 से अधिक मुस्लिम महिला धर्मगुरु (आलिमा) है। जो गोरखपुर की तमाम महिलाओं की रहनुमाई कर सकने में सक्षम है। बड़े -छोटे जलसों व मीलाद की महफिलों के जरिए मुस्लिम महिलाओं की रहनुमाई व जागरूकता भी ला रही है।
बुलाकीपुर के रहने वाले कारी मो. अनीस कादरी की एक बेटी आलिमा है और दूसरी बेटी आलिमा की पढ़ाई कर रही है। महज 18 साल की बड़ी बेटी ताबिंदा खानम आलिमा, कारिया होने के साथ बेहतरीन वक्ता है। ताबिंदा आलिमा का कोर्स करने के बाद घोसी मऊ से मुफ्तिया (फतवा देने के लिए अधिकृत कोर्स) की डिग्री लेना चाहती हैं। ताबिंदा को पढ़ाई पूरी करने में सात साल लगे, दो साल मुफ्तिया बनने में लगेंगे। बड़े-बड़े जलसों मे संबोधित करती है। इनकी छोटी बहन शोएबा अनीस भी आलिमा का कोर्स कर रही है। रसूलपुर की आलिमा शबाना खातून शम्सी जानी मानी इस्लामिक वक्ता है। इसी तरह रसूलपुर जामा मस्जिद के करीब रहने वाली मुफ्तिया गाजिया खानम (फतवा देने में सक्षम) मुस्लिम समाज की बड़ी आलिमा में शुमार होती है। वहीं रसूलपुर की ही समीना जबीं, पुराना गोरखपुर की नाजिश फातिमा, रसूलपुर दशहरी बाग की गुलफिशां अंजुम आलिमा बन महिलाओं की रहनुमाई कर रही है। इसके अलावा आलिमा रोजी खातून, कनीज फातिमा, शमीमा खातून, अहमदनगर की निकहत फातिमा, वसीम बानो, रसूलपुर की वसीमा खातून, काफिया नूर, गुलफिशां खातून, आलिमा व कारिया नूसरत जहां, मुबस्सिरा खातून, जरीन फातिमा, जेबा खातून, मुस्कान खातून, तशरीफुन्न निशा, तराना खातून, शहीदुन, समन फातिमा, शबनम बानो, शाहीना, सबा, नादिया खातून, तमन्ना खातून, सना खातून, उजमा खातून, खालिदा, राशिदा जहरा, शीबा खातून, रहमतुन निशा, तबस्सुम, निकहत बानो, चांदनी खातून, हबीबा खातून, रुखसार खातून, शहनाज बानो, तस्निया, आलिमा कारिया निशा फातिमा, आलिया खातून, जैनब खातून, साफिया खातून, खदीजा खातून अहमदनगर चक्शा हुसैन की तरन्नुम बानो, शमीमा खातून, कटसहरा की समीरा खातून आदि वह नुमाया नाम है जो मुस्लिम महिलाओं की मजहबी रहनुमाई कर रही हैं। शहर में इस वक्त शायद यह पहला मौका है जब इतनी बड़ी तादाद में मुस्लिम समाज की महिलाएं आलिमा, मुफ्तिया, हाफिजा व कारिया बन कर मुस्लिम समाज में जागरूकता लाने का कार्य कर रही है। शहर में मुस्लिम महिलाओं को आलिमा बनाने के लिए चंद मदरसे भी खुले है। आस-पास के जिलों में भी मदरसे खुल रहे हैं। मऊ के घोषी कस्बे का कुलयतुल बनातुल अमजदिया पूर्वांचल का मशहूर मदरसा है। इसके अलावा यहीं का जमयतुल बनात शमसुल उलूम भी महिलाओं की उच्च शिक्षा में मशहूर नाम है। जहां से हर साल सैकड़ों की तादाद में आलिमा, मुफ्तिया, हाफिजा व कारिया निकलती है।
"मुस्लिम समाज में तेजी से परिवर्तन आ रहा है। जब मैं किसी जलसे में जाती हूं दो तीन महिलाएं अपनी बच्चियों को लेकर आ जाती है और कहती है हमारी बच्चियों को भी आलिमा की पढ़ाई करवानी है रहनुमाई करें। इसके अलावा महिलाएं अपनी मजहबी दिक्कतें हमारे सामने आसानी से बयां कर देती है। अब माहौल बदल रहा है। इस क्षेत्र में मुस्लिम महिलाओं को आना चाहिए। ताकि एक बेहतरीन समाज कायम करने में मदद मिलें। जलसे व मीलाद की महफिलों द्वारा मुस्लिम महिलाओं को जागरूक किया जा रहा है। तालीम से ही परिवर्तन संभव है।
मुफ्तिया गाजिया खानम
रसूलपुर जामा मस्जिद के पास"
"मैंने बचपन में ही अब्बू से कह दिया था कि मुझे आलिमा बन कर मुस्लिम महिलाओं को जागरूक कर उनकी रहनुमाई करनी है। अब्बू ने भी मेरा साथ दिया। सात साल लगे मुझे आलिमा बनने में। लेकिन आज मैं महज 18 साल की उम्र में न केवल हजारों महिलाओं के बीच स्टेज पर तकरीर कर लेती हूं बल्कि दीन के मसले मसायल आसानी से बता भी लेती हूं। काफी महिलाएं मुझसे मसले मसायल पूछती रहती है। इसके अलावा जलसों के जरिए समाज में फैली तमाम बुराईयों पर खुलकर बोलने की कोशिश करती हूं और समस्या का समाधान भी बताती हूं। मुसलमान चाहे पुरुष हो या महिला दोनों के लिए तालीम हासिल करना बेहद जरुरी है। मुस्लिम लड़कियों को इस तरफ खास तवज्जो देनी की जरूरत है।
आलिमा ताबिंदा खानम
बुलाकीपुर"
"पहले मुस्लिम महिला धर्मगुरु मिलना (आलिमा) बहुत मुश्किल था लेकिन वक्त के साथ मुस्लिम समाज में बड़ा परिवर्तन हो रहा है। लड़कियों का रुझान उच्च मजहबी शिक्षा के प्रति बढ़ा है। इस वजह से मुस्लिम महिलाओं की तमाम समस्याओं के लिए परेशान नहीं होना पड़ेगा। अब मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में आलिमा आसानी से मिल जा रही है। मुस्लिम महिलाओं की रहनुमाई के लिए जलसे व मीलाद की महफिले बहुत कारगर है। इसके अलावा महिलाएं आलिमाओं के घर आकर भी समस्या का हल पा रही है। शहर में मुस्लिम महिलाओं के लिए एक ऐसे सेंटर की दरकार है। जहां आलिमा आसानी से मिल सके और महिलाओं की समस्या आसानी से हल हो सके। मैं तो जलसे, मीलाद के महफिलो व व्यक्तिगत रुप से महिलाओं में जागरूकता लाने के पूरी कोशिश करती हूं। मुस्लिम महिलाओं को इल्म की तरफ ज्यादा फोकस करना चाहिए। तभी महिलाओं की स्थिति बेहतर हो सकती है।
आलिमा शबाना खातून शम्सी
रसूलपुर"
*ऐतिहासिक ईदगाह*
नार्मल स्थित ईदगाह मुबारक खां शहीद शहर की सबसे पुरानी ईदगाह है। सैकड़ो वर्ष पूर्व इसका निर्माण हुआ। यहां पर करीब पांच से छह हजार नमाजी एक साथ नमाज अदा करते है। इस ईदगाह का क्षेत्रफल 29 डिस्मिल है। यहां के इमाम फैजुल्लाह कादरी हैं। ईदगाह सेहरा बाले के मैदान की तामीर लोगों के मुताबिक 1035 ई. में हुई। इसका क्षेत्रफल करीब साढे़ चार एकड़ में फैला हुआ है। यह शहर की बड़ी ईदगाह है। ईदगाह इमामबाड़ा इस्टेट मियां बाजार पुरानी ईदगाहों में शुमार होती है। इस ईदगाह की तामीर नवाब आसिफुद्दौला के जमाने में हुई। इस ईदगाह की तामीर हजरत रौशन अली शाह रहमतुल्लाह अलैह ने की। इसका फैलाव एक एकड़ में है। पुलिस लाइन ईदगाह काफी पुरानी है। इसके अलावा फतेहपुर मेडिकल कालेज, एमएमएमयूटी के पास रानीडिहा ईदगाह व चिलमापुर की ईदगाह भी शहर में हैं।
*बेनीगंज ईदगाह का दिलचस्प पहलू*
रूद्रपुर की ईदगाह बेनीगंज को बनाने का हुक्म मुगल शहंशाह औरंगजेब ने करीब सवा तीन सौ बरस पहले अपने द्वितीय पुत्र मुअज्जम अली शाह को दिया। यह मुगल वास्तुकला की बेजोड़ निशानी है। ईदगाह में तीन दरवाजे है। एक मिम्बर और छोटी मीनारें अपने अतीत की यादों को अपने अंदर समेटे हुये है। इस ईदगाह में एक साथ पन्द्रह हजार लोग नमाज पढ़ सकते है। कुछ वर्ष पूर्व मिली जानकारी के अनुसार इसके मुतवल्ली जुनैद के पास औरंगजेब की लगी मोहर के कागजात मौजूद थे। ईदगाह के सेक्रेट्री इसरार अहमद ने बहुत पहले बताया था कि इस ईदगाह में वहीं सामान लगे है जो जामा मस्जिद उर्दू बाजार की तामीर में लगा हुआ है। उन्होंने बताया था कि इसकी तामीर में कड़वा तेल, दाल, चूना, सूर्खी व उस जमाने की लाखौरी ईंट का प्रयोग हुआ है। इसके अंदर एक कुआं है। इसके आसपास सात कुएं है। हालांकि कुओं का अस्तीत्व समाप्त हो चुका है। ईदगाह की चौड़ाई एक सौ अस्सी मीटर है। इस ऐतिहासिक ईदगाह में दो गेट है। एक गेट शहंशाह औरंगजेब का बनवाया हुआ है। एक गेट आवाम की मदद से कमेटी ने बनवाया है। उन्होंने बताया था कि औरंगजेब के दूसरे पुत्र बहादुर शाह प्रथम शहजादा मुअज्जम शाह के जेरे नजर इसकी तामीर हुई। पहले यहां पर दो ईमली के पेड़ थे। एक हरी ईमली व दूसरा लाल ईमली का पेड़। इन्हीं ईमली के पेड़ की वजह से यह ईदगाह ईमली वाली ईदगाह के नाम से मशहूर हुई। लाल ईमली गेट के पास व हरा ईमली का पेड़ ईदगाह के अंदर था। करीब बीस वर्ष पहले इसे काट दिया गया। ईद व ईदुल अजहा के दिन ईदगाह के अंदर आठ हजार नमाजी व चार हजार ईदगाह के बाहर सड़क पर नमाज पढ़ते है। पहले यहां पर तीन गोले दागे जाते थे नमाज से पहले। अब इनका प्रयोग नहीं होता है क्योंकि यह पटाखे नमाजियों के इत्तेला के लिए था, फिर जब लाउडस्पीकर का प्रचलन शुरू हो गया तो इनका प्रयोग बंद हो गया।
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