*गोरखपुर - मुगल बादशाह जहांगीर के जमाने में पत्थरों से बनीं भूकंप रोधी संगी मस्जिद*
गोरखपुर। मुगल सल्तनत के बादशाह जहांगीर के शासन काल में मदरसा चौराहा बसंतपुर की *संगी मस्जिद* बनीं। जानकारी के मुताबिक संगी मस्जिद का निर्माणकाल 1040 हिजरी है। उस हिसाब से संगी मस्जिद का निर्माण सन् 1618 ई. में हुआ। इतिहासकार डा. दानपाल सिंह अपनी किताब गोरखपुर-परिक्षेत्र का इतिहास में लिखते हैं कि सन् 1605 ई. में अकबर की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र नुरुद्दीन मोहम्मद जहांगीर बादशाह गाजी के नाम से मुगल साम्राज्य का शासक बना। जहांगीर के शासन काल में (1605-1627 ई.) गोरखपुर शहर की प्रशासिनक व्यवस्था अफजल खां को दे दी गयी। जो बिहार का शासक था। अफजल खां ने इस क्षेत्र को वरीयता देकर इसे अपना निवास स्थान बनाया, जबकि उसकी आधिकारिक राजधानी पटना थी। बादशाह जहांगीर के शासन काल पर गौर करने पर चलता है कि संगी मस्जिद का निर्माण 1618 ई. में ही हुआ, लेकिन मस्जिद किसने बनवायीं यह तारीख में गुम हैं, लेकिन इसे बनवाया मुगल सल्तनत के बड़े ओहदेदार ने ही। वहीं सन् 1567 ई. में अकबर के शासनकाल में फिदाई खां ने गोरखपुर में पहली शाही मस्जिद बनवायीं। गोरखनाथ क्षेत्र की रसूलपुर जामा मस्जिद या पुराना गोरखपुर जामा मस्जिद में से एक मस्जिद फिदाई खां ने आज से 451 साल पहले बनवायीं थी, यानी संगी मस्जिद से भी पुरानी मस्जिद गोरखनाथ क्षेत्र मे कायम हुई थी। साक्ष्य इस बाद की गवाही देते हैं। उर्दू बाजार की शाही मस्जिद बादशाह औरंगजेब के जमाने में 1120 हिजरी (सन् 1698 ई.) में बनीं। इसके अलावा शहर के इलाहीबाग दाऊद चक, तकिया कवलदह, बसंतपुर सराय व कौड़ीराम में भी शाही मस्जिद है। खैर। डा. दानपाल लिखते हैं कि अफजल खां के पटना की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर कुतुब खां ने पटना में प्रवेश किया और शेख बनारसी से किला ले लिया। इस घटना के पश्चात् अफजल खां को गोरखपुर से पटना प्रस्थान करना पड़ा। कुतुब खां को पराजित कर अफजल खां ने किला वापस लिया। किंतु इस घटना के कारण अफजल खां का गोरखपुर में रहना संभव नहीं हो सका। सन् 1612 ई. में अफजल खीं की मृत्यु हो गयी गोरखपुर की सैनिक छावनी कमजोर हो गयी। उसके बावजूद गोरखपुर क्षेत्र मुगल साम्राज्य का एक हिस्सा था। सतासी राजाओं व मुगलों में युद्ध हुआ। मुगल हार गए। इन्हीं सबके बीच संगी मस्जिद बनीं लेकिन अफजल खां की मृत्यु के पश्चात्। खैर।
जानकारी के मुताबिक संगी मस्जिद में नक्काशी ऐसी है कि अंदर की आवाज बाहर नहीं सुनाई देगी लेकिन अगर बाहर से कोई धीरे से बात करे तो पूरी आवाज अंदर तक सुनाई देती है। इस मस्जिद का निर्माण कीमती पत्थरों से हुआ है। बड़े-बड़े पत्थरों को जोड़कर ही मस्जिद बनीं है, इसीलिए इसे संगी मस्जिद कहते हैं। इस मस्जिद के अंदर बने तीन गुंबदों में से दो पर बेहतरीन नक्काशी की गयी है। एक गुंबद सादा है। गुंबद बाहर से भी आकर्षक है। जो इसकी ऐतिहासिकता दर्शाता है। नक्काशी की खासियत इसे दूसरी मस्जिदों से अलग बनाती है (आवाज के मुताल्लिक)। वर्ष 2016 में नेपाल में आए भूकंप का असर गोरखपुर में भी हुआ था लेकिन उस समय मस्जिद में काफी लोग थे, उन्हें भूंकप का एहसास तक नहीं हुआ, बाद में लोगों ने बताया तो मस्जिद में बैठे लोगों को पता चला कि गोरखपुर में भूकंप आया था। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि मस्जिद भूकंप रोधी है। भूंकप का असर इस मस्जिद पर नहीं होता। अब आप अनुमान लगा लीजिए इस मस्जिद की उम्र 400 साल मुकम्मल हो चुकी है। उसके बावजूद मस्जिद अपने असली हालात पर है। उस जमाने में बिना उन्नत टेक्नोलॉजी के शानदार मस्जिद का निर्माण करना मुगलों की काबिलियत का नमूना है। इस मस्जिद में एक साथ 600 लोग नमाज पढ़ सकते हैं। एसएम नूरूद्दीन अपने एक लेख में मस्जिद का नक्शा कुछ यूं खींचते हैं कि सड़क के किनारे पांच सीढ़ी फिर संगी मस्जिद का मुख्य द्वार शाहजहानी मेहराब है। मेहराब के अगल व बगल द्वार की दीवार पर मेहराबनुमा एक पंक्ति में पांच ताक हैं। प्रथम मेहराब के ऊपर छत और उसमें एक खाना है। द्वार के सीध में दाएं एवं बायं दो मीनारें हैं। मीनार के मध्य छोटे-छोटे पांच मेहराब फिर नीचे की तरफ तीन छोटे मेहराब हैं। मुख्य द्वार से अंदर आने पर एक खाली जगह, द्वार का मार्ग फिर एक दरवाजा है। यहां भी खाली स्थान है। दायीं तरफ अलमारी और बांयीं तरफ अजान देने की कोठरी है। एक लंबी सीढ़ी मस्जिद के अग्रभाग के पहले मंजिल पर जाने के लिए है। दायीं तरफ एक कमरा है। मुख्य द्वार पर बाहर की तरफ मेहराब के शीर्ष के मध्य में मस्जिद में दाखिल होने की दुआ लिखी हुई है। मस्जिद में प्रवेश करने पर एक विशाल खुला हुआ भाग है। उत्तर एवं दक्षिण तरफ दीवारें हैं। सामने तीन विशाल मेहराबे हैं। प्रथम मेहराब के शीर्ष पर कलमा लिखा है। मस्जिद के इस विशाल मेहराब में प्रवेश करने पर एक विशाल भनव मिलता है। छत तीन विशाल गुंबदों की है। प्रथम मेहराब के सामने दीवार से सटकर तीन छोटी सीढ़ियों का विशेष स्थान जहां से इमाम खुतबा देते हैं।
*एक स्याह सच*
*गोरखपुर - तवायफ की बनवायी कई सौ साल पुरानी मस्जिद खंडहर में तब्दील*
*नमाज होनी चाहिए: मुफ्ती अख्तर*
गोरखपुर।
*मस्जिदेे बाबरी से ये आई सदा, हर इलाके की मस्जिद को आबाद कर*
*अपने सज्दों की पहले हिफाजत तो कर खाली मस्जिद बनाना जरूरी नहीं*
शेर का जुमला नसीराबाद स्थित राज आई हास्पिटल के पीछे खंडहर में तब्दील कई सौ साल पुरानी मस्जिद की जुंबा से खुद बा खुद निकल रहा है। यह मस्जिद सिर्फ इसलिए वीरान है कि इसे किसी तवायफ ने बनवाया था। मुहल्ला नसीराबाद आबादी की कदीम मस्जिद आज भी वीरान और नमाज से महरूम है। तारीख के सफहात में जहां का इंद्राज बतौर मस्जिद दर्ज है। वहां समाज के सबसे खराब पेशे से वाबस्ता खातून का नाम जुड़ जाने की वजह से उजाड़ है। इलाके के बुजुर्ग भी ये बताने से कासिर है कि आखिरी बार इसमें नमाज कब पढ़ी गयी। लेकिन मस्जिद में नमाज पढ़ी गयी उससे इंकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि अगर उस वक्त के उलेमा किराम की जानिब से इस की मुखालफत की गयी होती तो तारीख में इसका जिक्र आता, जबकि इस तरह की मुखालफत का कोई सबूत और गवाही मौजूद नहीं है। गौर की बात है कि जब तवायफ मस्जिद बनवा रही थी तब उस वक्त कोई आवाज नहीं उठी। अगर आवाज उठी होती तो तामीर मुकम्मल ही नहीं होता है, लेकिन मस्जिद के हालात बतो रहे हैं कि मस्जिद मुकम्मल हुई थी। सदियों से देखभाल ने होने के कारण भले ही वीरानी छायी हुई है, लेकिन मस्जिद की रूहानियत भी यहां पर एक अलग तरह का एहसास होता है। चूंकि उस जमाने में मस्जिद बनाने के लिए अच्छी खासी रकम अदा करनी पड़ी होगी। इसके अलावा मस्जिद के लिए काबे का रूख वगैरह भी तय करना पड़ा होगा। इसलिए इस बात को तकवियत मिलती है कि खातून के नाम पर जायदाद वगैरह रही होगी। जिस को फरोख्त करके यह मस्जिद तामीर की गयी। मस्जिद बनाने वालों को भी इसका तकद्दुस मालूम होता है। मस्जिद के वीरानी में जरूर कोई ना कोई अहम राज छुपा हुआ है जो वक्त के आगोश में गुम हो चुका है। गुजश्तिा एक तवील अरसे के जिस तरह यह उजाड़ है, उसकी एक अहम वजह मुहल्ले में मुस्लिम आबादी का कम होना भी है। वहीं इसके वारिसों का कोई अता पता नहीं है। सरकारी बंदोबस्त (मुहल्ले के नक्शे) जो सन् 1914 ई. में हुआ उसमें ये मस्जिद आज भी दर्ज है। इससे अंदाजा होता है कि ये मस्जिद कितनी कदीम (कई सौ साल पुरानी) होगी। इसकी बनावट और इसमें इस्तेमाल में लायी गयी ईंट और चूना भी इसके कदीम होने पर गवाही देता है। इसके तामीर में वहीं चीजें लगी है जो उर्दू बाजार की जामा मस्जिद, बसंतपुर सराय में इस्तेमाल किया गया है। इससे एक अंदाजा लगाया जा सकता है कि मस्जिद दो सौ साल से ज्यादा पुरानी है। तकरीबन बारह सौ स्कवायर फुट में मौजूद इस मस्जिद की जगह पर साल 2000 ई. में कुछ शरारती तत्वों के जरिए कब्जा करने की कोशिश की गयी थी, लेकिन मुसलमानों की बेदारी व गुस्से के कारण यह मुमकिन नहीं हो सका। कुछ माह बाद मस्जिद के आगे खाली जमीन पर दुकानें बनवा दी गयी और इसकी देखरेख की जिम्मेदारी रिटायर्ड हाईडिल अफसर मोबिनुल हक को सौंप दी गयी। ताकि इस जगह की हिफाजत हो सके। फिलहाल यहां दुकान तो है ही उसमें कारोबार भी किया जा रहा है। लेकिन मस्जिद की सूरते हाल खस्ताहाल है। इसमें पाकड़ का जखीम दरख्त उग आया है। जिससे मस्जिद की दीवारों को काफी नुकसान पहुंच रहा है। इस बाबत संवाददाता ने मोबिनुल हक से राफ्त कायम करने की कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली। मकामी लोगों ने बताया कि वो नसीराबाद से मुहल्ला से कहीं और शिफ्ट हो गए है। जिस की मालूमात उन्हें नहीं है। मुहल्ला नसीराबाद की आबादी तकरीबन पांच हजार है। इनमें तकरीबन एक हजार घर मुसलमानों के बताये जाते है, लेकिन जहां यह मस्जिद है इसके आसपास में मुसलमानों के सिर्फ एक-दो घर ही है। जबकि सामने एक मस्जिद और है। जिसे *फारूकी साहब की मस्जिद* के नाम से जाना जाता है और इसमें मुसलमान नमाज अदा करते है। मुहल्लें के नजदीक बुजुर्गों की माने ते इस मस्जिद को एक तवायफ ने तामीर करवाया था, जिस की वजह से इसमें कभी नमाज नहीं पढ़ी गयी। ऐसे में सवाल ये पैदा होता है कि तवायफ के जरिए तामीर मस्जिद में नमाज हो सकती है या नहीं। उलेमा किराम को सबूत की रोशनी में इसकी रहनुमाई की जाने की जरूरत है, ताकि इस मस्जिद को फिर से आबाद किया जा सके। ये बात भी काबिले जिक्र है कि मुल्क की बहुत सी तारीखी मस्जिदें भारतीय पुरातत्व विभाग के कब्जे में है। उनमें नमाज की इजाजत नहीं तो नहीं है। अलबत्ता गैर शरई कामों करने की छूट मिली हुई है। इसके बरअक्स यहां मामला मुख्तलिफ है। नसीराबाद की मस्जिद की खस्ताहाली को देखते हुए इस बात का कवी अंदेशा है कि ये मस्जिद खुद ही कहीं टूट फूट का शिकार होकर जमींदोज ना हो जायें। मस्जिद के ताल्लुक से हाजी तहव्वर हुसैन ने बहुत पहले बताया था कि इस मस्जिद को अल्लाह के सिवा कोई और देखने वाला नहीं है। उन्होंने कहा कि अगर शरीयत इस मस्जिद में नमाज अदा करने की इजाजत नहीं देती हो इस जगह को लाइब्रेरी या इस्लामिक इंफार्मेशन सेंटर बना देना चाहिए। मदरसा दारुल उलूम हुसैनिया दीवान बाजार के मुफ्ती अख्तर हुसैन ने बताया कि मस्जिद में नमाज जायज है। ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है कि तवायफ ने ही मस्जिद बनवायी। हो सकता है उसने ये तामीर आवाम के चंदे से की हो। लेकिन वह मस्जिद है नमाज होनी चाहिए।
(प्रस्तुति - सैयद फरहान अहमद 7 अक्टूबर 2018 - फोटो - जनाब अब्दुल जदीद साहब एचटी मीडिया के सौजन्य से)
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