*गोरखपुर शहर के मोती जेल व खूनी कुएं में छुपी है शहादत की दास्तान*
गोरखपुर। बसंतपुर स्थित मोती जेल या पुरानी जेल में दफन है शहादत की दास्तान।
बाईपास से सटे सौदागार मोहल्ले के पीछे राप्ती नदी के तट पर लालडिग्गी सब स्टेशन के निकट एक बड़ी सी टूटी-फूटी ऐतिहासिक चाहरदीवारी है। जो मोती जेल या पुरानी जेल के चारों तरफ है। जो करीब 20 फीट ऊंची है। यह जेल ऐतिहासिक और कई सौ साल पुरानी है। कई लोग इसे राजा बसंत का महल या किला कहते हैं। सतासी राजा बसंत सिंह के (मोती जेल वाले हिस्से) महल या किले को सन् 1802 ई. में अंग्रेजों ने ध्वस्त कर उसे मोती जेल के रूप में परिवर्तित कर दिया था। यहीं से थोड़ी दूरी पर ऐतिहासिक बसंत सराय है। सन् 1857 ई. के बाद इस इमारत का उपयोग सरकारी जेलखाने के रूप में किया जाता था। यहां कभी वतन पर जान न्यौछावर करने वालों को सजा दी जाती थी। यहां बेशुमार क्रांतिकारियों ने शहादत पायी। अंग्रेजों के सितम की पूरी दास्तान यहां मौजूद करीब डेढ़ सौ साल से अधिक पुराना पाकड़ का पेड़, खूनी कुआं, कई कब्रें व आज भी मौजूद पांच बैरेक बयां कर रहे हैं। मोती जेल में सन् 1857 ई. में अहम किरदार निभाने वाले राजा शाह इनायत अली को फांसी देकर शहीद किया गया। कुछ समय पं. रामप्रसाद बिस्मिल इस जेल में रहे थे। सन् 1857 ई. भारतीय इतिहास में अतिशय महत्व का वर्ष रहा हैं। अंग्रेजों के विरुद्ध असंतोष का प्रथम विस्फोट 10 मई 1857 को फौज के सिपाहियों में शुरू हुआ। जिसने धीरे-धीरे पूरे देश में फैलकर देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का स्वरूप ले लिया। विद्रोह की लपटें गोरखपुर भी पहुंची।
शहर ने जंगे आजादी में एक आवाज पर लब्बैक कहा। खूनीपुर में गंजे शहीदां की मजार एवं शहर के मुख्तलिफ हिस्सों में सन् 1857 ई. की क्रांति में शहीद हुए वीरों के मजारात आज भी मौजूद हैं। बाबू बंधू सिंह इसी जेल में बंदी रखे गए थे। सन् 1857 ई. की क्रांति के समय इस जेल में मिर्जा आगा इब्राहीम बेग जेलर के पद पर थे। विद्रोह के समय उन्होंने जेल के सभी कैदियों को आजाद कर दिया था और वह स्वयं भूमिगत हो गए थे। इन्हीं की पुत्री थी रानी अशरफुन्निशा खानम, जिनके नाम पर *मुहल्ला शेखपुर* में एक इमामबाड़ा बना हुआ है। इनके पति बंदे अली बेग के पिता को इसी दौर में क्रांतिकारी होने के कारण फांसी दी गई थी। मिर्जा आगा इब्राहीम बेग के पूर्वज मिर्जा हसन अली बेग सन् 1739 ई. में नादिर शाह के हिन्दुस्तान पर आक्रमण के समय ईरान से दिल्ली आए थे। खैर। जेल में कई सदी से मौजूद *पाकड़ का पेड़* उस दौर का गवाह है। जब आजादी की हसरत रखने वाले यहां पर सजायें पाते और शहीद किये जाते थे। पाकड़ का पेड़ सन् 1857 ई. की क्रांति का गवाह है। इस पाकड़ के पेड़ पर करीब तीन सौ लोगों को अंग्रेजों ने शहीद किया था। जब क्रांतिकारी सरफराज अली अंग्रेजी हुकूमत के हाथ नहीं लगे तो अंग्रेजों ने सौदागार मोहल्ले में जमकर कहर ढ़ाया। उनको जानने वालों से लेकर उनका नाम लेने वालों को भी फांसी चढ़ा दिया गया। सरफराज के घर से चंद कदमों की दूरी पर यह जेल थी। अंग्रेजों को जब फांसी देने के लिए फांसी घर नहीं मिला तो उन्होंने जेल में लगे एक बड़े पाकड़ के पेड़ से सैकड़ों लोगों को फांसी पर चढ़ा कर शहीद कर दिया गया। सन् 1857 ई. की जंग-ए-आजादी में शक की बुनियाद पर मोहल्ले के अधिकांश लोगों को फांसी की सजा सुना दी गयी। सरफराज अला के खानदानी कब्रिस्तान में दो ऐसी कब्रें हैं जो इस सितम की गवाह है जिसे लोग *गंजे शहीदां* कहते है। यहां देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने वालोें को एक कब्र में एक साथ दफन किया गया था।
*यहां कुंए में दी गई थी इनायत अली शाह को फांसी*
इतिहासकार बताते हैं कि इस जेल में शाहपुर स्टेट के शाह इनायत अली शाह, जगदीशपुर स्टेट के कुंवर सिंह के भाई को फांसी दी गई थी। फांसी देने से बाबू बंधू सिंह को यहीं रखा गया था।
*आज भी मौजूद है खूनी कुआं*
जेल में स्थित कुएं में क्रांतिकारी शाह इनायत अली को फांसी दी गई थी। इसके अलावा अनेक क्रांतिकारियों को इसी कुएं में दफन कर दिया गया था। इस कुएं को मोती जेल का खूनी कुआं के नाम से जाना जाता है। इस कुएं की मुड़ेर पर वह कील आज भी मौजूद है जिससे लटकाकर क्रांतिकारियों को फांसी दी जाती थी। इसके अलावा अंग्रेजों ने अनेक क्रांतिकारियों को फांसी के बाद इसी कुएं में दफन कर दिया था। अब यह कुंआ ध्वस्त होने के कगार पर है।
*पुरानी जेल में आबाद बस्ती*
इस जेल में सन् 1857 ई. में क्रांति के बाद मगध से आए लोगों को बंदी बनाकर रखा गया। मगध राज्य से जो लोग उत्तर प्रदेश में आए उन्हें मगहिया कहा गया। ये लोग उप्र के विभिन्न शहरों के गांवों में जाकर बस गए। जब इस पुरानी जेल से बंदियों को जिला कारागार भेज गया तब सरकार की योजना बनी कि मगहिया डोमों को इस जेल में एकत्र किया जाए। इसके बाद गांव-गांव से तलाश करके ब्रिटिश हुकूमत ने इन्हें जटाशंकर पोखरा और वर्तमान मारवाड़ इंटर कालेज के समीप इकट्ठा किया। तत्पश्चात इन्हें जेल में बंदी बनाया गया। इनके लिए परिचय पत्र बनाया गया ताकि शहर में इनकी शिनाख्त हो सके। मगहिया डोमों को अंग्रेजों ने एक्ट 22 के तहत बंदी बनया गया था। यह एक्ट इन पर सन् 1952 ई. तक रहा। लगभग 30 अगस्त 1952 ई. को यह कैदी इस एक्ट से मुक्त हो सके। आज भी इनकी बस्ती यहां पर आबाद है।
*राजा शाह इनायत अली की दास्तान*
शाह इनायत अली शाहपुर स्टेट के राजा थे। बात सन्1857 ई. की है। आजमगढ़ के अतरौलिया से 11 अंग्रेज अफसर गोरखपुर की सीमा में आना चाहते थे। कमांडर एलिस ने सरयू नदी पार कराने के लिए शाह को संदेशा भेजवाया और नाव उपलब्ध करने को कहा। शाह ने एक नाविक को अंग्रेज अफसरों को ले आने के लिए भेजा। उन्होंने नाविक को नदी के बीचोबीच पहुंचने पर नाव डुबाने का निर्देश दिया। नाविक ने वैसा ही किया। 11 अंग्रेज अफसरों की नदी में डूबने से मौत हो गई। इस घटना के बाद अंग्रेजों ने शाह को सन् 1875 ई. को मोती जेल में फांसी दे दी गयी। शाह के शव को उनके पूर्वज अब्दुल अजीज शाह की मजार के बगल में दफनाया गया। मियां साहब सैयद अहमद अली शाह द्वारा लिखित किताब कशफुल बगावत में पेज 13 पर सन् 1857 ई. के क्रांतिकारियों का जिक्र मिलता है जिसमें शाह इनायत अली शाह का भी नाम मौजूद है। इस किताब में लिखा है कि कई राजाओं ने अंग्रेजों से जंग के लिए फौज तैयार करने में मदद की थी। उसमें शाह इनायत अली भी थे। *तारीख-ए-जंगे आजादी हिन्द 1857* में भी राजा इनायत अली के बारे में मुख्तसर तारीख मिलती है।
इतिहासकार डा. दानपाल सिंह ने श्रीनेत राजवंश (सतासीराज) के प्रथम खण्ड में इनायत अली शाह के बारे में लिखा है।
सैयद मन्ने ने बहुत पहले (वर्ष 2014) बताया था कि शाहपुर स्टेट के जागीरदार शाह इनायत अली को बाबू कुंवर सिंह नें अंग्रेजों को कुचलने का पैगाम भेजते हुए एक पत्र भेजा कि हम अंग्रेजों को कुचलते हुए आजमगढ़ के एक कस्बे में अपना डेरा डाले हुए हैं। अब हमें गोरखपुर पहुचनें के लिए सरयू को पार करना है। जिसके लिए आप नाव की व्यवस्था करें। वहीं अग्रेंजों को नाव से इस पार उतरने से रोका जाए। शाह इनायत अली ने बाबू कुंवर सिंह की भरपूर मदद की और अंग्रेजों से यह कहते हुए नाव मुहैया करानें से इंकार कर दिया कि अंग्रेजों को हमारे रियासत से गुजरनें की जुर्रत करने की कोशिश करना भी महंगा पड़ेगा।
*"जंगे आजादी के रणबांकुरों की नजर शाहपुर स्टेट के पास स्थित धुरियापार के नील कोठी के अंग्रेज मालिक के ऊपर गड़ गई। यह अंग्रेज नील फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों के साथ अमानवीय व्यवहार करता था। इससे स्वतंत्रता सेनानियों में जबरदस्त आक्रोश था। एक रात स्वतंत्रता के लड़ाकुओं ने नील कोठी पर धावा बोल दिया। मालिक तो अपनी जान बचाकर भाग गया परन्तु उसका परिवार कोठी में ही छूट गया। नील कोठी के मालिक के परिवार को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी के लिए अंग्रेजों ने शाह इनायत अली से कहा। इनायत अली ने जिम्मेदारी लेने से साफ इन्कार कर दिया था। नील कोठी के मलिक के पूरे परिवार को मौत के घाट उतार दिया गया। इस घटना के बाद अंग्रेज कलेक्टर आग बबूला हो गया और शाह इनायत अली को नाफरमानी और साजिश के तहत गिरफ्तार करवा लिया और फांसी पर लटका दिया।"*
*उपेक्षित है राजा इनायत अली शाह का मकबरा*
बेलघाट विकास खण्ड के शाहपुर गांव में शाह इनायत अली के शव को उनके पूर्वज सूफी संत हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक हजरत अब्दुल अजीज शाह अलैहिर्रहमां के मकबरे के अहाते में दफना दिया गया जो सैकड़ों वर्षों से उपेक्षित पड़ा हुआ है। अंग्रेजो ने उनके स्टेट को नीलाम कर दिया। जिससे बारह आने जानकी कुंवारी ने नीलाम लिया। एक आना शिवराज चौधरी मीरपुर तथा तीन आना त्रिवेणी लाल शाहपुर ने लिया। मात्र बावन बीघे जमीन उनके परिवार को गुजारे के लिए ग्राम बेलांव में अग्रेंजों द्वारा दी गई थी। शाह इनायत अली का एकमात्र वारिस तारा शाह और तारा शाह के भी एकमात्र वारिस गुलजार शाह जिनकी ससुराल कोट आजमगढ में थी, वहीं जाकर बस गए और पुलिस में नौकरी की। राजा के परिवार वाले इस समय आजमगढ़ में मुफलिसी की जिन्दगी गुजार रहे हैं। राजा की दरगाह पर हिन्दू-मुस्लिम जनता प्रत्येक जुमेरात को अकीदत के साथ सिरनी मलीदा चढ़ाने जाती है। दूल्हा उनके चैखट पर सलामी पेश करके ही अपनी मंजिल को जाता है। यहां 21 जिलहिज्जा को उर्स-ए-पाक मनाया जाता है।
*इंटेक की बनी योजना लेकिन परवान नहीं चढ़ी*
इंटेक ने ऐतिहासिक जेल को संजोने की योजना बनाई थी। इंटेक दिल्ली की टीम ने निरीक्षण कर इसे संरक्षित करने के लिए 46 पेज का प्रस्ताव भेजा था, जो आजतक परवान नहीं चढ़ सका। जेल की दीवार का कुछ हिस्सा गिर चुका है।
गोरखपुर - ऐतिहासिक उत्तर जेल
जिला अस्पताल के पास मौजूद ऐतिहासिक उत्तर जेल (सदर लॉकप) को गिराकर विधि विज्ञान प्रयोगशाला बनाया जा रहा है। यह करीब 150 साल पुरानी धरोहर है। लगभग 1868 ई. में इसका निर्माण अंग्रेजों ने करवाया था। लेकिन इस बात का कोई रिकार्ड नहीं मिला है कि यहां जंगे आजादी के मतवाले रखे जाते थे। बाद में लॉकप का का उपयोग बाल कारागार के रुप में किया जाने जाने लगा। सन् 1986 ई. में इसे बंद कर दिया गया।
खैर। सन् 1857 ई. के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के कुछ सालों बाद इसका निर्माण हुआ। भले ही रिकार्ड इस बात की तस्दीक ना करते हो कि यहां आजादी के मतवाले रखे जाते हो लेकिन समय इस बात की गवाही देता है कि जंगे आजादी के दौरान यहां जंगे आजादी के मतवाले रखे जाते रहे होगें, क्योंकि वह दौर जंगे आजादी का रहा। लालडिग्गी स्थित जेल जब खस्ताहाल हुई तो कैदियों को यहीं रखा जाता रहा। जब सन् 1895 ई. में मंडल कारागार बना तो इस जेल का महत्व कम हो गया। तारीख के बहुत से पन्ने है जो गुमशुदा है शायद यह जेल उन गुमशुदा पन्नों की गवाह रही हो। करीब 32 साल से बंद साढ़े तीन एकड़ में फैली दर्जनों छोटी-छोटी बैरेक थीं। यहां नयी विधि विज्ञान प्रयोगशाला बन रही है। काफी दिनों से बंद रहने की वजह से झाड़ियों ने सभी बैरकों को अपने आगोश में ले लिया था। परिसर के अंदर कई कब्रें भी हैं कुछ यहूदियों की।
Hi syed farhana ahmed, I am also a young historian who identity different historical places in city and I really like and appreciate your, kindly tell me how can I contact you??
जवाब देंहटाएंAppreciate your work***
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