गोरखपुर - 190 सालों से ईसाई समाज चर्च निर्माण के साथ जला रहा शिक्षा की अलख

SYED FARHAN AHMAD
-गुड फ्राईडे व ईस्टर पर खास
गोरखपुर। ईसाई समाज की संख्या शहर में कम है लेकिन  सोच, जोश व जज्बा बुलंद है। कुछ कर दिखाने का हौसला बेशुमार है। शिक्षा, समाजसेवा, गरीबों, बेसहारों, यतीमों, दुख-दर्द के मारों की मदद करने में ईसाई समाज अग्रणी रहा है। अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के मुकाबले ईसाई समाज ज्यादा जागरूक है। ईसाई समाज ने शहर की तरक्की में नुमाया किरदार अदा किया है। तरक्की की जिस राह पर शहर चल रहा है उसमें ईसाई समाज की करीब 190 साल की अथक मेहनत रही है। ईसाई समाज ने चर्च निर्माण के साथ स्कूल खोले। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा में असीम योगदान दिया। इन ईसाई समाज के स्कूलों से निकलने वालों ने देश ही नहीं पूरी दुनिया में नाम रौशन किया। जिनकी लिस्ट बहुत लंबी है। 'शहरनामा' किताब में  ईसाईयों की तादाद शहर में 14000 के करीब बतायी गयी है वहीं मसीही सेवक वीपी अलेक्जेंडर जिले में ईसाई समाज की तादाद सवा लाख या एक लाख के अंदर बताते है। ईसाई समाज की आबादी बशारतपुर, धर्मपुर, राप्तीनगर (उत्तर टोला), मोती पोखरा, स्टैंडपुर, पादरी बाजार आदि जगहों पर खास तादाद में है। ईसाई समाज का कब्रिस्तान बशारतपुर, पैडलेगंज, मसीही कलीसिया राप्तीनगर, खरैया पोखरा (जो भर चुका है) में है। इस अल्पसंख्यक समाज की आबादी भले ही थोड़ी हो लेकिन शहर के विकास में हिस्सेदारी बड़ी है। इंगलिश मीडियम शिक्षा में अहम योगदान रहा है। खैर। ईसाई समाज 40 दिन का उपवास रखने के बाद पड़ने वाले शुक्रवार को गुड फ्राइडे के रूप में मनाता है। वही गुड फ्राइडे के तीसरे दिन यानी रविवार को ईस्टर मनाया जाता है। इस मौके पर हम शहर की तरक्की में दिए गए ईसाई समाज के मुख्तसर इतिहास व योगदान की चर्चा कर रहे है। ईसाई समाज शहर में 18वीं सदी के दौरान बसना शुरू हुआ। उस जमाने के चर्च व स्कूल आज भी मौजूद है। इसमें से कुछ तो जस के तस बने हुए हैं, जबकि कुछ की शक्लों सूरत पूरी तरह से बदल चुकी है।

-ईसाई समाज का ऐतिहासिक सफर

'शहरनामा' किताब के मुताबिक गोरखपुर क्षेत्र में ईसाई धर्म की स्पष्ट उपस्थिति करीब 200 वर्षों से भी पूर्व (सन् 1801) से दर्ज हुई है। जब यह ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन हुआ और इस जिले का दर्जा दिया गया। यहां के पहले जिलाधिकारी रैटवेल नाम के ईसाई थे। सन् 1821 में एक कर्मठ मिशनरी आरएम बर्ड ने स्थानीय ईसाईयों के आर्थिक सहयोग से कुछ धन इकट्ठा करके फादर विल्किंसन को प्रथम चैपलेन (पुरोहित) नियुक्त किया। फादर विल्किंसन क्रिश्चियन मिशनरी सोसाइटी के प्रथम पुरोहित थे। इन्होंने सन् 1831 में विलियम बेन्टिक से जंगल की 2000 बीघा (1120 एकड़) लावारिस जमीन अनुदान के रूप में हासिल की और उसे स्थानीय ईसाईयों को दे दिया। जिसे इन लोगों ने खेती के योग्य बनाया। यही क्षेत्र आज 'बशारतपुर' के नाम से जाना जाता है। सेंट जॉन भव्य गिरजाघर सन् 1835 में बना। सन् 1828 में  स्थापित मिशन स्कूल धीरे-धीरे बढ़ता गया। 1899 में सेंट एंड्रयूज कालेज बन गया। उस समय इसके अतिरिक्त एक एंग्लोवर्नाकुलर मिडिल स्कूल अलीनगर में, साहबगंज में स्विटंन मेमोरियल वर्नाकुलर मिडिल स्कूल भी खुला था। उस समय पांच अन्य प्राइमरी स्कूल भी खुले थे। चर्च मिशनरी सोसायटी द्वारा 1828 में जिले का पहला अंग्रेजी माध्यम प्राइमरी स्कूल स्थापित किया गया। जो आज सेण्ट्र एण्ड्रयूज इंटर कालेज है। 1872 में इसे उच्च प्राथमिक विद्यालय का दर्जा मिला और 1898 में इसका नाम बदलकर सेण्ट्र एण्ड्रयूज हो गया। ईसाई समाज के अन्य स्कूल-कालेजों में सेंट जोसेफ कालेज फार वीमेन,  सेंट जोसेफ स्कूल, सेंट जोसेफ इंटर कालेज, लिटिल फ्लावर स्कूल, सेंट पाल स्कूल,  कार्मल गल्रस इंटर कालेज , कार्मल स्कूल, सेंट मेरीन स्कूल, सेंट जूड्स स्कूल आदि काफी मशहूर है। 'शहरनामा' किताब के मुताबिक ईसाई समुदाय द्वारा करीब 50 शिक्षण संस्थायें संचालित है जिसमें करीब 50000 छात्र जेरे तालीम है

-ईसाई समाज के ऐतिहासिक चर्च
1. सेंट एंड्रयूज कॉलेज कैंपस में बने क्राइस्ट चर्च के मुताल्लिक 'इंटेक' की किताब में लिखा है कि सन् 1824 में श्री एवं श्रीमती माइकल विल्किंसन  शहर में आए। प्राइवेट दान से 1829 में क्राइस्ट चर्च का निर्माण कराया गया। यह चर्च वास्तुकला का आकर्षण नमूना है। मसीही सेवक वीपी अलेक्जेण्डर ने बताया कि यह इकलौता ऐसा चर्च है, जिसका अपीयरेंस असल मायने में चर्च जैसा है। इसके गुंबद से लेकर सभी चीजें उसी शेप और साइज में बनाई गई हैं, जैसा कि इसे होना चाहिए। इस चर्च की मरम्मत तो हुई लेकिन स्ट्रक्चर आज भी वैसा ही है, जैसा कि बनते वक्त था। इसके शेप और साइज में अब तक कोई बदलाव नहीं किया गया। वहीं, पहले यह एरिया कैंट के तौर पर जाना जाता था। अंग्रेजों का राज था, तो 1947 तक इसमें सिर्फ अंग्रेजों के एडनमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर्स और सिविल सर्वेंट ही जाते थे, लेकिन आजादी के बाद से इसमें इंडियन क्रिश्चेन की भी एंट्री होने लगी।

2. 'इंटेक' की किताब के मुताबिक शहर के कौवाबाग रेलवे कॉलोनी में सन 1899 में बंगाल और नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे (बीएनडब्लू रेलवे) कंपनी की ओर से सेंट एंड्रयूज चर्च बनवाया गया। यह श्रद्धा का केंद्र तो हैं ही साथ ही इसकी बिल्डिंग बेहतर आर्किटेक्चर का एक नायाब नमूना है। रेलवे के अधिकारियों के लिए खास बने इस चर्च में रेलवे कॉलोनी और आसपास के अधिकारी ही जाया करते थे। धीरे-धीरे आबादी बढ़ी तो लोग वहां भी जाने लगे। शहर में यह इकलौता ऐसा चर्च हैं, जहां आज भी इंग्लिश में प्रार्थाना होती है। 15 साल पहले तक यहां सिर्फ इंग्लिश में ही प्रार्थाना हुआ करती थी, लेकिन बाद में यहां हिंदी में भी प्रार्थाना होने लगी। शहर के बाकी चर्च में हिंदी में ही प्रार्थाना होती है।

3. बशारतपुर में बना सेंट जॉन चर्च 1831 में लॉर्ड विलियम बेन्टिक क जो उस समय भारत का गवर्नर जनरल था, उसने 2000 बीघा जमीन रेवरेन्ट विल्किंसन को दे दी। इस जमीन पर मसीही समुदाय के लोग खेती करने लगे। धीरे-धीरे आबादी बढ़ती गई और अब यह पूरा इलाका 'बशारतपुर' के नाम से जाना जाता है। 1835 में ईसाई समुदाय ने यहां सेण्ट जान्स चर्च का निर्माण कराया। मगर 1857 में हुई क्रांति में यह पूरी तरह से ध्वस्त हो गया। इसके बाद इसका दोबारा से निर्माण हुआ, अब यह पूरी तरह से बदल हो चुका है। शहर में सबसे बड़ा चर्च है। यहां करीब सात हजार का पंजीकरण है,
मसीही सेवक वीपी अलेक्जेण्डर ने बताया कि 17 सितंबर 2015 में चर्च के ऊपरी हिस्से में पांच सौ किलो का यूरोपियन घंटा इस मकसद से लगाया गया कि लोगों को प्रार्थना और अन्य सूचनाएं दी जा सकें। यह घंटा चेन्नई से मंगवाया गया था। यह करीब 8 लाख रुपया कीमत का है। चर्च से सटे करीब दो शताब्दी पूर्व पुराना तालाब आज भी है। चर्च निर्माण के समय लगाया गया पुराना घण्टा और दीवारें भी आने वालों को आकर्षित करती हैं। इसकी आवाज करीब तीन किमी तक सुनाई देती है। चर्च में संडे स्कूल चलाया जाता है। इसमें गरीब, बेसहारा बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा, किताब और भोजन मुहैया कराया जाता है साथ ही समाज के गरीब, महिलाओं और बच्चों को आर्थिक मदद भी की जाती है।

-ईसाई समाज के मशहूर चर्च
क्राइस्ट चर्च शास्त्री चौक, सेंट जॉन चर्च बशारतपुर, सेंट थॉमस चर्च धर्मपुर, सेंट मार्टिन चर्च खरैया पोखरा, सेंट मार्क चर्च पादरी बाजार, सेंट एंड्रयूज चर्च रेलवे कालोनी कौवा बाग, सेंट जोसेफ महागिरजाघर, फुल गॉस्पल चर्च मोती पोखरा, मसीही कलीसिया चर्च खरैया पोखरा, प्रेयर हाल राप्तीनगर, एचईएम खजांची चौक, सेंट एंथनी चर्च धर्मपुर, सेंट मार्क चर्च स्टैंडपुर पादरी बाजार, कार्मल माउंट चर्च स्टैंडपुर पादरी बाजार अादि

-ईसाई समाज का 'हास्पिटल' व 'स्नेहालय'





फातिमा हास्पिटल पादरी बाजार की स्थापना 16 जुलाई 1995 को हुई। वहीं फातिमा इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडिकल भी खोला गया।इसके अलावा कैथोलिक डायसिस ऑफ गोरखपुर की सामाजिक कार्य इकाई पूर्वांचल ग्रामीण सेवा संस्थान ने वर्ष 2012 में आश्रय गृह खोला एवं 2015 में शिशु बाल गृह की स्थापना की। 2016 में स्नेहालय भवन का निर्माण हुआ जिसमें दोनों प्रोजेक्ट के बच्चों को रखा जाता है। शिवपुर सहबाजगंज में स्थित इस भवन में 0 से 10 वर्ष आयु वर्ग के 13 बच्चे, 10 से 18 आयु वर्ग के 32 बच्चे आश्रय लिए हुए हैं। इनमें से कई पढ़ाई करने भी जाते हैं लेकिन कुछ को स्नेहालय में पढ़ाया जाता है। इन बच्चों में 9 बच्चे दिव्यांग एवं मूक बधिर भी हैं। इनमें सिर्फ तीन लड़कियां हैं। जिन्हें यहां सभी आधुनिक सुख-सुविधाओं के साथ अपनापन और प्यार भी मिलता है। सिविल लाइंस स्थित चाइल्ड लाइन भी लावारिस बच्चों की देखभाल व खोये बच्चों को उनके परिजनो तक पहुंचाने में महती भूमिका निभाता है।



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