गोरखपुर - हजरत रौशन अली के कारनामों से रौशन है उनका नाम, 200वां उर्स-ए-पाक आज
सैयद फरहान अहमद
गोरखपुर। मियां बाजार स्थित ऐतिहासिक मियां साहब इमामबाड़े की ख्याति महान दरवेश हजरत सैयद रौशन अली शाह अलैहिर्रहमां की वजह से है। शनिवार 24 मार्च को स्थानीय अकीदतमंदों द्वारा हजरत सैयद रौशन अली शाह अलैहिर्रहमां का करीब 200 वां उर्स-ए-पाक इमामबाड़े में मनाया जायेगा। इस्लामी माह 5 रज़ब को स्थानीय अकीदतमंदों द्वारा उर्स-ए-पाक मनाए जाने की परंपरा है। जो इस बार 24 मार्च को पड़ रही है। हजरत रौशन अली शाह ने अंग्रेजी तारीख सन् 1818 ई. में दुनिया को अलविदा कहा था। मिली जानकारी के अनुसार शनिवार को भोर में मजार शरीफ का गुस्ल होगा। इसके बाद संदलपोशी की जायेगी। प्रात: 8 बजे कुरआन ख्वानी व कुल शरीफ की रस्म अदा की जायेगी।। चादरपोशी शाम को असर व मगरिब की नमाज के दरम्यिान की जायेगी एवं मुल्कों मिल्लत के लिए दुआ की जायेगी। आम दिनों में (प्रत्येक गुरुवार, शुक्रवार) को भी अकीदतमंद मजार की जियारत कर फातिहा पढ़ते है। खासकर गुरुवार को हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के लोग मजार की जियारत करते है और रौशन अली के वसीले से खुदा से दुआ मांगते है। अकीदतमंद धूनी की राख तबर्रुक के तौर पर साथ ले जाते है। मुहर्रम माह में तो यहां की रौनक देखने लायक होती है।
--"कौन थे सैयद रौशन अली"
दरवेश हजरत सैयद रौशन अली शाह बुखारा के रहने वाले थे। वह मोहम्मद शाह के शासनकाल में बुखारा से दिल्ली और फिर गोरखपुर आए। "मसाएख-ए-गोरखपुर" किताब में आपकी जिंदगी पर विस्तृत रोशनी डाली गयी है। किताब में हैं कि आप हमेशा खुदा की इबादत में लगे रहते थे। अहले बैत (पैगंबर साहब के घर वाले) से बहुत मुहब्बत रखते। हजरत सैयदना इमाम हुसैन रजिअल्लाहु तआला अन्हु व उनके साथियों की नियाज-फातिहा के लिए इमामबाड़ा स्थापित किया। हजरत सैयद रौशन अली शाह "हनफी" सुन्नी थे। "खुलफा-ए-राशिदीन"( चारों खलीफा) पर पक्का यकीन व अकीदा रखते थे। खास किस्म का पैरहन, सफेद साफा व सफेद चादर पहनते थे। खड़ाऊ पहनने की आदत थीं । न गोश्त खाते थे और ही न नमक। चटाई पर बैठते थे। हिंदू के हाथ का बना खाना खाते थे। फारसी, उर्दू जानते थे मगर दस्तखत हमेशा हिंदी में करते थे। अपने करीब एक धूनी रखती थे जो हमेशा सुलगती रहती थी । नमाज के पाबंद थे। आबिद दरवेश थे। आपने मस्जिद, पुल, कुंआ, इमामबाड़ा की मरम्मत, मुसाफिरों के लिए कुछ ठहरने की जगह, स्कूल, ग्यारहवीं शरीफ, ईद मिलादुन्नबी, मुहर्रम, बुजुर्गों का नियाज-फातिहा, उर्स, यतीमों व बेवाओं की मदद के लिए दिल खोल कर खर्च करते थे। सारी जिंदगी राहे खुदा में खर्च करते रहे। जिक्र व फिक्र का अभ्यास करते रहे। इमामबाड़ें से बाहर आप नहीं निकलते थे। यहीं फकीरों, दरवेशों और तालिबाने हक का एक मजमा लगा रहता था। आप शरीयत के पाबंद थे। मुरीदों की इस्लाह में काफी तवज्जो देते थे। आपने सारी जिंदगी इबादत, खिदमत में गुजार दी। गोरखपुर में उन्हें अपने नाना से दाऊद-चक नामक मुहल्ला विरासत में मिला था। उन्होंने यहां इमामबाड़ा बनवाया। जिस वजह से इस जगह का नाम दाऊद-चक से बदलकर इमामगंज हो गया। मियां साहब की ख्याति की वजह से इसको मियां बाजार के नाम से जाना जाने लगा। सन् 1818 ई. में आपका विसाल (निधन) हो गया। मगर आपका नाम हमेशा आपके कारनामों से रौशन रहेगा।
--"रौशन अली के समाने झुक गया अवध का नवाब"
अवध के नवाब आसफ-उद्दौला शिकार के बेहद शौकीन थे। हाथी पर सवार शिकार करते हुए वह गोरखपुर के घने जंगलों में आ गये। इसी घने जंगल में धूनी (आग) जलाये दरवेश रौशन अली शाह बैठे थे। शिकार के दरम्यािन नवाब ने देखा एक बुजुर्ग कड़कड़ाती ठंडक में बिना वस़्त्र पहने धूनी जलाए बैठे है। उन्होंने अपना कीमती दोशाला (शाल) उन पर डाल दिया। दरवेश ने उस धूनी में शाल को फेंक दिया। यह देख कर नवाब नाराज हुआ। इस पर रौशन अली शाह ने धूनी की राख में चिमटा डाल कर कई कीमती दौशाला (शाल) निकाल कर नवाब की तरफ फेंक दिया। यह देख नवाब समझ गया कि यह कोई मामूली शख्स नहीं बल्कि खुदा का वली है। नवाब आसफ-उद्दौला ने तुरंत हाथी से उतर कर मांफी मांगी।
-- "आज भी मौजूद है रौशन अली का सामान व जलाई धूनी"
हजरत सैयद रौशन अली शाह का हुक्का, चिमटा, खड़ाऊ तथा बर्तन आदि आज भी इमामबाड़ा में मौजूद है। हजरत सैयद रौशन अली शाह ने इमामबाड़े में एक जगह धूनी जलायी थी। वह आज भी सैकड़ों वर्षाें से जल रही है। यहां सोने-चांदी की ताजिया भी है। जो मुहर्रम माह में दिखायी जाती है।
गोरखपुर। मियां बाजार स्थित ऐतिहासिक मियां साहब इमामबाड़े की ख्याति महान दरवेश हजरत सैयद रौशन अली शाह अलैहिर्रहमां की वजह से है। शनिवार 24 मार्च को स्थानीय अकीदतमंदों द्वारा हजरत सैयद रौशन अली शाह अलैहिर्रहमां का करीब 200 वां उर्स-ए-पाक इमामबाड़े में मनाया जायेगा। इस्लामी माह 5 रज़ब को स्थानीय अकीदतमंदों द्वारा उर्स-ए-पाक मनाए जाने की परंपरा है। जो इस बार 24 मार्च को पड़ रही है। हजरत रौशन अली शाह ने अंग्रेजी तारीख सन् 1818 ई. में दुनिया को अलविदा कहा था। मिली जानकारी के अनुसार शनिवार को भोर में मजार शरीफ का गुस्ल होगा। इसके बाद संदलपोशी की जायेगी। प्रात: 8 बजे कुरआन ख्वानी व कुल शरीफ की रस्म अदा की जायेगी।। चादरपोशी शाम को असर व मगरिब की नमाज के दरम्यिान की जायेगी एवं मुल्कों मिल्लत के लिए दुआ की जायेगी। आम दिनों में (प्रत्येक गुरुवार, शुक्रवार) को भी अकीदतमंद मजार की जियारत कर फातिहा पढ़ते है। खासकर गुरुवार को हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के लोग मजार की जियारत करते है और रौशन अली के वसीले से खुदा से दुआ मांगते है। अकीदतमंद धूनी की राख तबर्रुक के तौर पर साथ ले जाते है। मुहर्रम माह में तो यहां की रौनक देखने लायक होती है।
--"कौन थे सैयद रौशन अली"
दरवेश हजरत सैयद रौशन अली शाह बुखारा के रहने वाले थे। वह मोहम्मद शाह के शासनकाल में बुखारा से दिल्ली और फिर गोरखपुर आए। "मसाएख-ए-गोरखपुर" किताब में आपकी जिंदगी पर विस्तृत रोशनी डाली गयी है। किताब में हैं कि आप हमेशा खुदा की इबादत में लगे रहते थे। अहले बैत (पैगंबर साहब के घर वाले) से बहुत मुहब्बत रखते। हजरत सैयदना इमाम हुसैन रजिअल्लाहु तआला अन्हु व उनके साथियों की नियाज-फातिहा के लिए इमामबाड़ा स्थापित किया। हजरत सैयद रौशन अली शाह "हनफी" सुन्नी थे। "खुलफा-ए-राशिदीन"( चारों खलीफा) पर पक्का यकीन व अकीदा रखते थे। खास किस्म का पैरहन, सफेद साफा व सफेद चादर पहनते थे। खड़ाऊ पहनने की आदत थीं । न गोश्त खाते थे और ही न नमक। चटाई पर बैठते थे। हिंदू के हाथ का बना खाना खाते थे। फारसी, उर्दू जानते थे मगर दस्तखत हमेशा हिंदी में करते थे। अपने करीब एक धूनी रखती थे जो हमेशा सुलगती रहती थी । नमाज के पाबंद थे। आबिद दरवेश थे। आपने मस्जिद, पुल, कुंआ, इमामबाड़ा की मरम्मत, मुसाफिरों के लिए कुछ ठहरने की जगह, स्कूल, ग्यारहवीं शरीफ, ईद मिलादुन्नबी, मुहर्रम, बुजुर्गों का नियाज-फातिहा, उर्स, यतीमों व बेवाओं की मदद के लिए दिल खोल कर खर्च करते थे। सारी जिंदगी राहे खुदा में खर्च करते रहे। जिक्र व फिक्र का अभ्यास करते रहे। इमामबाड़ें से बाहर आप नहीं निकलते थे। यहीं फकीरों, दरवेशों और तालिबाने हक का एक मजमा लगा रहता था। आप शरीयत के पाबंद थे। मुरीदों की इस्लाह में काफी तवज्जो देते थे। आपने सारी जिंदगी इबादत, खिदमत में गुजार दी। गोरखपुर में उन्हें अपने नाना से दाऊद-चक नामक मुहल्ला विरासत में मिला था। उन्होंने यहां इमामबाड़ा बनवाया। जिस वजह से इस जगह का नाम दाऊद-चक से बदलकर इमामगंज हो गया। मियां साहब की ख्याति की वजह से इसको मियां बाजार के नाम से जाना जाने लगा। सन् 1818 ई. में आपका विसाल (निधन) हो गया। मगर आपका नाम हमेशा आपके कारनामों से रौशन रहेगा।
--"रौशन अली के समाने झुक गया अवध का नवाब"
अवध के नवाब आसफ-उद्दौला शिकार के बेहद शौकीन थे। हाथी पर सवार शिकार करते हुए वह गोरखपुर के घने जंगलों में आ गये। इसी घने जंगल में धूनी (आग) जलाये दरवेश रौशन अली शाह बैठे थे। शिकार के दरम्यािन नवाब ने देखा एक बुजुर्ग कड़कड़ाती ठंडक में बिना वस़्त्र पहने धूनी जलाए बैठे है। उन्होंने अपना कीमती दोशाला (शाल) उन पर डाल दिया। दरवेश ने उस धूनी में शाल को फेंक दिया। यह देख कर नवाब नाराज हुआ। इस पर रौशन अली शाह ने धूनी की राख में चिमटा डाल कर कई कीमती दौशाला (शाल) निकाल कर नवाब की तरफ फेंक दिया। यह देख नवाब समझ गया कि यह कोई मामूली शख्स नहीं बल्कि खुदा का वली है। नवाब आसफ-उद्दौला ने तुरंत हाथी से उतर कर मांफी मांगी।
-- "आज भी मौजूद है रौशन अली का सामान व जलाई धूनी"
हजरत सैयद रौशन अली शाह का हुक्का, चिमटा, खड़ाऊ तथा बर्तन आदि आज भी इमामबाड़ा में मौजूद है। हजरत सैयद रौशन अली शाह ने इमामबाड़े में एक जगह धूनी जलायी थी। वह आज भी सैकड़ों वर्षाें से जल रही है। यहां सोने-चांदी की ताजिया भी है। जो मुहर्रम माह में दिखायी जाती है।
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