ईद-उल-अजहा - 25 हजार रुपया के मालिक हैं तो आप पर कुर्बानी वाजिब
अजमत-ए-इस्लाम व मुस्लिम सिर्फ कुर्बानी में है : मुफ्ती अख्तर हुसैन
-दरगाह हजरत मुबारक खां शहीद पर दर्स का पहला दिन
गोरखपुर। तंजीम उलेमा-ए-अहले सुन्नत की जानिब से नार्मल स्थित दरगाह हजरत मुबारक खां शहीद मस्जिद में कुर्बानी पर दस दिवसीय दर्स (व्याख्यान) कार्यक्रम का शुभारंभ बुधवार को हुआ। इस मौके पर हजरत औरंगजेब आलमगीर अलैहिर्रहमां, हजरत टीपू सुल्तान शहीद अलैहिर्रहमां, हजरत मौलाना नकी अली खां कादरी अलैहिर्रहमां के रुह को इसाले सवाब किया गया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए मदरसा दारूल उलूम हुसैनिया दीवान बाजार के मुफ्ती अख्तर हुसैन मन्नानी (मुफ्ती-ए-गोरखपुर) ने कहा कि इस्लाम में कुर्बानियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। अजमत-ए-इस्लाम व मुस्लिम सिर्फ कुर्बानी में है। उसी में से एक ईद-उल-अजहा पर्व है, जो 2 सितम्बर को मनाया जायेगा। रब का इरशाद हैं कि 'ऐ महबूब अपने रब के लिए नमाज पढ़ों और कुर्बानी करो। ईद-उल-अजहा पर्व एक अजीम बाप की अजीम बेटे की कुर्बानी के लिए याद किया जाता है। पैगम्बर हजरत इब्राहीम व इस्माईल अलैहिस्सलाम से मंसूब एक वाक्या इस पर्व की बुनियाद है। इस पर्व में हर वह मुसलमान जो आकिल बालिग मर्द औरत जिसके पास कुर्बानी के तीनों दिन के अंदर जरुरते अस्लिया को छोड़कर, कर्ज से फारिग होकर तकरीबन 25 हजार रूपया का मालिक हो जाये तो उसके ऊपर कुर्बानी वाजिब हैं। इसी वजह से हर मुसलमान इस दिन कुर्बानी करवाता है। जानवर जिब्ह करने के वक्त उसकी नियत होती है कि अल्लाह राजी हो जायें, यह भी नियत रहती हैं कि मैंने अपने अंदर की सारी बदअख्लाकी और बुराई सबकों मैने इसी कुर्बानी के साथ जिब्ह कर दिया और इसी वजह से मजहबे इस्लाम में ज्यादा से ज्यादा कुर्बानी का हुक्म किया गया है।
मुख्य वक्ता इस्लामिक स्कॉलर मुफ्ती मोहम्मद अजहर शम्सी ने कहा कि कुर्बानी का अर्थ होता है कि जान व माल को रब की राह में खर्च करना। इससे अमीर, गरीब इन अय्याम में खास बराबर हो जाते है। कुर्बानी हमें दर्स देती है कि जिस तरह से भी हो सके अल्लाह की राह में खर्च करो। कुर्बानी से भाईचारगी बढ़ती है।
उन्होंने कहा कि साहाबा ने अर्ज किया या रसूलल्लाह सल्लल्लाहौ अलैही वसल्लम यह कुर्बानी क्या है। आपने फरमाया तुम्हारे बाप हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की सुन्नत है। जो इस उम्मत के लिए बरकरार रखी गयी है। और पैगम्बर को इसका हुक्म दिया गया है। खास जानवर को खास दिनों में तकरीब (जिब्ह) की नियत से जिब्ह करने को कुर्बानी कहते है। हदीस में इसके बेशुमार फजीलतें आयी है। हदीस में नबी-ए-पाक ने फरमाया जिस ने खुश दिली व दिली तलबे सवाब होकर कुर्बानी की तो वह आतिशे जहन्नम से रोक हो जायेगा। हुजूर ने इरशाद फरमाया कि जो रूपया ईद के दिन कुर्बानी मे खर्च किया गया उस से ज्यादा कोई रुपया प्यारा नहीं।
संचालन करते हुए मौलाना मकसूद आलम मिस्बाही ने कहा कि हदीस में आया है कि हुजूर ने फरमाया कि यौमे जिलहिज्जा (दसवीं जिलहिज्ज) में इब्ने आदम का कोई अमल खुदा के नजदीक कुर्बानी करने से ज्यादा प्यारा नहीं है। वह जानवर कयामत के दिन अपने सींग और बाल और खुरों के साथ आयेगा। कुर्बानी का खून जमीन पर गिरने से पहले खुदा के नजदीक मकामें कुबूलियत में पहुंच जाता है। लिहाजा इसको खुशी से करो। दूसरी हदीस में आया है कि नबी-ए-पाक ने फरमाया कि जिसे कुर्बानी की ताकत हौ और वह कुर्बानी न करें। वह हमारी ईदगाहों के करीब न आयें।
इस मौके पर कारी शराफत हुसैन कादरी, कारी महबूब रजा, अब्दुल अजीज, शहादत अली, अजीम, अनवर हुसैन, अशरफ, सैफ रजा, शारिक, शाकिब, अब्दुल राजिक, नौव्वर अहमद, तौहीद अहमद, मोहम्मद अतहर, मोहम्मद सैफ, मोहम्मद कैफ, नूर मोहम्मद दानिश, रमजान, कुतबुद्दीन, नवेद आलम आदि मौजूद रहे।
जिस आदमी के ऊपर कर्ज हो और कर्ज अदा ना करके वह कुर्बानी कराए तो क्या उसकी कुर्बानी जायज है और चाहे उसके ऊपर कर्ज हो उसने कर्ज अदा ना किया हो वह कुर्बानी करा रहा हो तो क्या उस की कुर्बानी कबूल होगी Karz के हालत में कुर्बानी कराना चाहिए कि नहीं कराना चाहिए इसका सही मसला क्या है
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